मूठी जेतलौ जमारौ नरां काह ग्रहौ काठी मूठी,

पुन्न कियां गाढ़ी मूठी साबतौ प्रमांण।

मोटौ धणी याद करौ झूठी बातां लागौ मती,

मूठी धूड़ तणौ थांरी देह रौ मंडांण॥

हीर चीर हेम तार घड़ी में विरांणा होसी,

लाखां द्रब्ब विभौ स्त्रब्ब हाथी घोड़ा लाठ।

धंधै झूठा लागा नरां भार का कहावौ धणी,

गार रा पिंड रै लागी वायरा री गांठ॥

हूँ करूं, हूँ करुं आडा टेढ़ा कांई हालौ,

नमेख में आडा टेढ़ा करै दीनानाथ।

मेदनी आकास तोलूं काळ तणा डाढ़ा मोटा,

हेल मात्र गंदी काया साढ़ा तीन हाथ॥

देग तेग सावधान जिमाड़ौ धपाड़ौ दुनी,

मीठा बोलौ सांईं भजौ मोटो राखौ मन्न।

जाया आया बाधी मूठी खुली मूठी परा जासौ,

ओपौ आढ़ौ कहै नरां बांरौ मूठी अन्न॥

प्रियजनो, यह मनुष्य जीवन इतना अल्प है कि मुट्ठी में समा जाये। इतना सब कुछ जानते हुए भी अपनी मुट्ठी क्यों बंद कर रखी है, अर्थात् इतनी कृपणता क्यों करते हो? यदि परोपकार करोगे तो तुम्हारी ख़ाली मुट्ठी भी भर जायेगी। अतः सांसारिक मायाजाल की झूठी बातों के पीछे मत लगो और चराचर के स्वामी परमेश्वर का नाम-स्मरण करो। जिस देह पर तुम इतना अंहकार करते हो, उसका सृजन तो मात्र मुट्ठी भर धूलि से हुआ है।1

हीरे, ज़री के अमूल्य वस्त्र स्वर्णाभूषण, लाखों का द्रव्य, यह अनंत वैभव और हाथी घोड़े आदि पशुओं का समूह, सभी तुम्हारे प्राणों के निष्क्रमण के साथ ही क्षण भर में दूसरों के अधिकार में चले जायेंगे। अतः दुनिया के इस झूठे व्यापार में उलझ कर व्यर्थ ही यह बोझा क्यों उठा रहे हो? जिस शरीर पर तुम इतना गर्व करते हो, वह तो मिट्टी का बना एक लोंदा मात्र है। विशेषता केवल इतनी ही है कि इसमें प्राणवायु की गाँठ पड़ी हुई है। लेकिन स्मरण रहे, यह गाँठ किसी भी समय खुल सकती है।2

अहंकारवश तुम सभी से इस प्रकार टेढ़े-टेढ़े क्यों चलते हो? उस दीनबन्धु का ऐसा सामर्थ्य है कि धरती और आकाश को अपनी बाजुओं में तोलने का दम्भ भरने वाले म्हाबलियों का वे पल भर में दर्प-दलन कर उन्हें टेढ़ा-मेढ़ा कर सकते हैं। उस महाकाल की दाढ़ें बड़ी विकाराल हैं। फिर तुम्हारी इस साढ़े तीन हाथ की मल-मूत्र भरी गंदी काया की तो बिसात ही क्या है?3

अपने जीवन के लक्ष्य के प्रति सावधान रहकर एक दातार और शूरवीर की तरह अन्न-यज्ञ द्वारा समाज के लोगों को तृप्त करो। सबके साथ मधुर व्यवहार रखते हुए भगवान का नाम-स्मरण करो और मन में उदारता एवं सदाशयता रखो। ओपा आढ़ा कहता है- प्रियजनों, जब हम इस दुनिया में आये तो हमारी मुट्ठी बँधी हुई थी, लेकिन अंत समय यहाँ से ख़ाली हाथ ही विदा होना पड़ेगा। अतः उदारतापूर्वक अनाज बाँटो।4

स्रोत
  • पोथी : ओपा आढ़ा काव्य सञ्चयन ,
  • सिरजक : ओपा आढ़ा ,
  • संपादक : फतह सिंह मानव ,
  • प्रकाशक : सहित्य अकादेमी- पैली खेप
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