समर वेख गो संग, तास दरसण जो कीजै।

चौरासी लख वेख, मरण जामण छूटीजै।

वेग सखी मिलि वेगि, साज भोयण सवांहेय।

एकै आइ लाइ एक, रिव दीपक साहेय।

तजि रोम अंग आठी ‘अलू’, पंच पंच मारग चले।

या सौंज गहौ प्रीय सिरि वहौ, हंस हंसराज हि मिले॥

स्रोत
  • पोथी : सिद्ध अलूनाथ कविया ,
  • संपादक : फतहसिंह मानव ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकेदमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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