पुरष एक प्रगटयौ, पाप पुंन स्यंध्य करंतौ।

नहीं भूख तीस नींद, रह निराकार नीरंतौ।

रूंख विरख विसराम, तजी मनहुं ता माया।

मंडप मैड़ी कोट, तज्या घर मिंदर छाया।

वील्हा देखि विवांस्य मन, साधां गुर साचौ मील्यौ।

झंभ सीरीसो अैसो गुर, को कल्य मां ओरा हुं सांभल्यौ॥

भगवान जांभोजी के उस आदि रूप पर विचार करते हुए कहा है कि एक ऐसा पुरुष प्रकट हुआ है जिन्होंने पापों को पुण्य में बदल दिया है। उन्हें भूख, प्यास लगती है एवं वे निराहार रहते हैं। पेड़ के नीचे विश्राम करते हैं तथा मन से माया का त्याग कर दिया है। उन्होंने मंडप, चौबारा, किले, घर और मंदिर आदि की छाया का त्याग का दिया है। कवि वील्होजी कहते हैं कि सच्चा गुरु जांभोजी मिला है, जिनके समान कलयुग में और कोई नहीं हुआ है।

स्रोत
  • पोथी : वील्होजी की वाणी ,
  • सिरजक : वील्होजी ,
  • संपादक : कृष्णलाल बिश्नोई ,
  • प्रकाशक : जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर ,
  • संस्करण : तृतीय
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