रूळै उकत रो रूप, अंध सो नाम उचारै।

कहे वळै छवकाळ, विरुध भाषा विसतारैं।

हींण दोष सो हुवै, जात पित मुदो जाहर।

निनंग जेण नै निरख, विकल वरणण बिन ठाहर।

पांगळो छंद भाखै प्रगट, बद घट कला बखाणजै।

बिच अवर द्व बणैं जात विरुध सो जाणजै॥

अपस अमूझ्यों अरथ, सबद पिण बिण हित साजै।

नाळछेद जिणनाम, जथा हीणों गुण जाझै।

तवैं दोष पखतूट, जोड़ पतली अरु जालम।

बहरो सो शुभ वयण, मुड़ै अणशुभ व्है मालम।

मुरभूम पाठ पिंगल मता, साहित वीदग सार नै।

कहै मंछ भलां रूपक करो, दस दोष निवार नै॥

स्रोत
  • पोथी : रघुनाथरूपक गीतांरो ,
  • सिरजक : मंसाराम सेवग ,
  • संपादक : चन्द्रदान चारण ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम