कहां चित्त मारुत, गति पंखी तजि कवणि।
कहाँ विचित्र वैकुंठ, कहाँ रैवा नदि थावणि।
गज मौड़ौ समरीयौ, वेगि पण बंध विछुट्टा।
स्याम पीत वप वसन, रूप चत्रबाह प्रगट्टा।
जय विजय न कमला जांणीयो, पुरुष नाथ अदभूत परि।
सांचौ अनंत सांमी कीयौ, आरत बंध विरद्द करि॥