जपै नागपत्नी खत्री रूप जोती,

महाभद्र जाती तणां कांन मोती।

पुणी सांमळौ गात्र पीळा पिछोरा,

कंणां ऊपरां नंग ओपै कंदोरा॥1

पंगा घूघरी रोळ आणंद पुंजा,

गळै हार मोती रूळै माळ गुंजा।

बिचै दूलड़ी हेक चौकी विराजै,

जिसौ राजवी केहरी-नख्ख राजै॥2

बिहूं बंध बाजू तणां नंग बांहै,

मंणी नंग हीरां तंणी ज्योत मांहै।

अहीनारि जंपै लई मोल ऊंची,

पहूंचै प्रभूरै लटक्कै प्रहूंची॥3

सबै सुंदरी मुंदरी देख मोही,

वळै दाड़िमै दंत-चौकी विमोही।

अधूरै अमृतं जायै अघाई,

झिगै कुंडळां लोळ कपोल झांई॥4

इखै नासिका सिघ्घ दीपक्क ऐरी,

कळी चंप जांणै लळी लंप केरी।

नवा नेह दीरघ्घ पंकज नेत्रै,

सोभा मीन खंजन मृगा सहेत्रै॥5

दोहूं भ्रक्कुटी कोर हु देखि दूंहै,

भ्रमै भ्रंग सूता अली जांण भूंहै।

अली संकुलि जांणि कीधी अलक्कं,

तणौं केसरी कस्तूरी तिलक्कं॥6

बंधी चोळमा रंग रंग-बिरंगी,

सुहै ऊपरां पाघ खांगी सुचंगी।

चवै नागणी चंद्रका मोर ची ही,

ओपै चोप पावस घट्टा अछेही॥7

वे (नाग-स्त्रियां) क्षत्रिय बालक श्रीकृष्ण के स्वरूप को देखती हुई कहने लगीं कि- अरे! इनके कानो में तो महाभद्र जाति के मोती हैं तथा श्यामगात्र पर पीताम्बर सुशोभित है एवं उसके किनारे पर नगीने और करधनी शोभायमान हो रहे हैं।1

पैरों में आनंद का समूह, घुंघरुओं का शब्द हो रहा है तथा गले में मोतियों का हार एवं गुंजाओं की माला झूल रही है। साथ ही दो लड़वाली सांकल के बीच में एक चौकी शोभा दे रही है। जिस प्रकार का राजकुमार है उसके ही अनुरूप यह सिंह-नख शोभित हो रहा है।2

दोनों बाहों पर बाजूबंद बांधे हुए हैं जिनके अन्दर मणि, हीरे आदि नगीनों की ज्योति प्रकाशमान हो रही है। एक दूसरी नागिन बोली- अरे देखो! भगवान के पुणचें (कलाई) में जो यह पुणची (पौंचा, कलाई का एक गहना) लटक रही है, यह तो बहुत ऊंची कीमत में खरीदी गई है।3

सभी सुन्दरियां मुद्रिका को देखते ही मोहित हो गई। फिर सम्मोहित करने वाली दाड़िम के बीजों के समान दांतों की पंक्ति थी जो अधरामृत पान से तृप्त ही नहीं हो रही थी, साथ ही कपोल चंचल कुण्डलों की आभा से प्रकाशमान हो रहे थे।4

इनकी (कृष्ण की) नासिका दीपक की लौ के समान(तीखी) दिखाई दे रही है वह मानों चप्पे की कली एवं लांप की नोक है। नवीन स्नेह के समान संवर्धनशील बड़े नेत्र, कमल के समान शोभायमान हो रहें हैं। इस प्रकार मानों मीन, खंजन एवं मृगों की सभी छटा यहां एकत्र हो गई है।5

हे सखी! दोनों भृकुटियों के किनारों को देखकर ऐसा भ्रम होता है मानों दोनों भौहों के ऊपर भौरें सो रहे हों और मानों भ्रमरों की शृंखला हो। इसी प्रकार केशर तथा कस्तूरी का तिलक भी शोभायमान हो रहा है।6

विविध रंगों में रंगी हुई चोळमां बांधी हुई है और मस्तक पर टेढ़ी पगड़ी भली शोभित हो रही है। इसके अतिरिक्त मयूर-चंद्रिका भी लगाई हुई है। नागिन कहती है कि- इनकी प्रभा तो वर्षा ऋतु की घटा के समान प्रतीत हो रही है।7

स्रोत
  • पोथी : नागदमण (नागदमण) ,
  • सिरजक : सांयाजी झूला ,
  • संपादक : मूलचंद प्राणेश ,
  • प्रकाशक : भारतीय विधा मंदिर शोध प्रतिष्ठान, बीकानेर ,
  • संस्करण : तृतीय
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