प्रकृति के माध्यम से मानव समाज ने जितना ज्ञान और जितनी शिक्षा हासिल की है, उसकी तो कोई सीमा ही नहीं है, उसका तो कोई विराम और अन्त ही नहीं है। प्रकृति, मनुष्य की सबसे बड़ी युनिवर्सिटी है। इस युनिवर्सिटी से मनुष्य ने कितना सीखा है, कितना सीखता चला जा रहा है और कितना सीखेगा — इसका न तो कोई पार है और न इसकी कोई सीमान्त रेखा ही। सूरज, चाँद, तारे, नक्षत्र, वायु, बरसात, बादल, बिजली, पहाड़, नदी, नाले, समुद्र, वृक्ष, हरियाली, पशु, पक्षी, सर्दी, गर्मी, उषा, संध्या, तूफान, आँधी और गर्जन आदि ने मनुष्य को कदम-कदम पर वे पाठ पढ़ाये हैं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। इन्हीं पाठों को सीखते-दोहराते ही मनुष्य आज मनुष्य बन सका है। प्रकृति के साथ मानव-समाज का बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है।
आदिम मानव की यह एक स्वाभाविक वृत्ति है कि वह बाह्य वस्तु-जगत को अपनी कल्पना के द्वारा, अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप चित्रित करता है। प्रकृति के सभी उपकरण उसके लिए चेतनाशील हैं, सक्रिय हैं, और वह समझता है कि, वह प्राकृतिक सक्रियता उसकी चेतना ही का एक अंश है। अपनी मानवीय भावनाओं का पुट देकर वह प्रकृति को ठीक अपने ही समान समझने लगता है। वह प्रकृति में अपनी आत्मा की झाँकी देखता है। अपने स्वरूप का दर्शन पाता है। वह धरती को केवल धरती कह कर ही सन्तुष्ट नहीं होता, ‘धरती-माता’ कहे बिना उसके आंतरिक शिशु-मन को ठीक से सान्त्वना नहीं मिलती।
आदिम मानव प्रकृति को अपने प्रत्यक्ष व्यवहार में बरतता है। सीधे और सहज रूप में उससे काम लेता है। वह सोचता है कि प्रकृति उसकी कामनाओं को, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती है। उसके मन की बात को समझती है। उसका कहा मानती है। इसलिए वह उसकी प्रार्थना करता है, स्तुति करता है। उसकी प्रशंसा में मंत्र उच्चारित करता है। वेदों में प्राकृतिक उपकरणों ही को ‘देव’ माना गया है और उनकी स्तुति की गई है। अन्तरिक्ष, सूर्य, चन्द्र, संध्या, इंद्र, वरुण, मारुत, वायु, वात, पर्जन्य, अग्नि आदि ये प्रकृति के उपकरण ही वैदिक ‘देव’ हैं। इन देवों में सबसे बड़ा देव है — इंद्र — विस्तृत नीले अंतरिक्ष का देवता : सारी दुनिया का पालनहार। उसके हाथ में वज्र है। वह बरसात देने वाला है। उसका आदेश पाकर ही बादल एकत्रित होते हैं। वह अंधकार का विजेता है। प्रकाश फैलाने वाला है। वह सारी दुनिया में, सारी प्रकृति में, जीवन का संचार करता है। वैदिक इंद्र, केवल वर्षा ही का देव नहीं है। उसका कार्यक्षेत्र बादल और बरसात से अधिक है। वह दुश्मनों का संहार करने वाला है। आर्यों का रक्षक है। लेकिन कालान्तर में इंद्र, बरसात और बादल ही का पर्यायवाची बन कर रह गया। वैदिक काल में बादल और वर्षा का देव था — पर्जन्य। इसी सम्बन्ध को लेकर ही वेदों में इसकी ऋतुएँ हैं। बरसात के लिए बार-बार पर्जन्य की कामना की जाती थी। पर्याप्त वर्षा होने पर, उससे थमने के लिए भी विनती की जाती थी — ‘अब शान्त हो जाओ पर्जन्य ! खूब बरस चुके तुम ! देखो, तुम्हारे प्रसाद से निर्जन मरु भी यात्रा के योग्य हो गये हैं। अन्न-दान के लिये वनस्पतियाँ अंकुरित हो रही हैं। प्रजाजन सर्वत्र तुम्हारी प्रशंसा के गीत गा रहे हैं।’ वात, वायु और मारुत — वैदिक-काल में हवा, तूफान और अंधड़ के देवता थे और आज दिन भी वे बहुत-कुछ रूप में इन्हीं अर्थों के लिए प्रयुक्त होते हैं। राजस्थानी लोक-गीतों से पर्जन्य लुप्त हो गया। बरसात का पूरा कार्य-क्षेत्र इंद्र के अधिकार में आ गया। बादलों की गर्जन को सुन कर कहा जाता है— ‘इन्दरियौ घररावे है।’ बरसाती बादलों को उमड़ते देख कर कहा जाता है— ‘इन्दरजी ओलर-ओलर आवै जी।’ ‘इन्दर राजा ने पानी की झड़ लगादी है।’ ‘इन्दर राजा कुपित हो गये हैं — ठंडी हवा चल रही है।’ जब बिजलियाँ पर बिजलियाँ चमकती हैं, पानी मगन होकर बरसने लगता है, मोर खुशी के मारे बोलने लगते हैं, दादुर अपनी ही राग अलापते हैं, तब कहा जाता है — ‘बरसात के सारे बाजे लेकर इन्दर राजा आ गया।’ राजस्थानी लोक गीतों में इन्द्र केवल वर्षा का देव है।
किसान का प्रकृति के साथ ‘सौन्दर्य-प्रेम’ का ही सम्बन्ध नहीं है। प्रकृति उसके जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता है। लोक-रुचि, प्रकृति को रंजन-सामग्री ही में निःशेष नहीं कर डालती। लोक-जीवन और प्रकृति का घनिष्ट रिश्ता है। प्रकृति का प्रत्येक उपकरण अपने-अपने तरीकों से किसान की जिदगी को प्रभावित करता है। ‘जेठ के महीने में यदि भरपूर गर्मी पड़े तो शहर के वासी घबरा उठेंगे। गरमी न पड़ने की कामना करेंगे। हाय-हाय करने लगेंगे। लेकिन गाँव के किसान का मन इस ‘आड़ंग’ (गरमी) से नाच नाच उठेगा। ‘जेठ मास की गरमी किसान को वर्षा का संदेशा देती है’। वह इस गरमी से घबराता नहीं, खुश होता है। ‘काती महीने की बरसात’ से शहरी जीव शायद आनन्द प्राप्त कर सकता है, लेकिन किसान का मन भय से काँप उठेगा; क्योंकि यह बरसात उसकी ‘फसल के लिए बहुत हानिकारक’ है। ‘मघा नक्षत्र बरसता है तो पृथ्वी अघा जाती है’। जब ‘उत्तरा नक्षत्र वरस जाय’ तो किसान की खुशी का पार नहीं होता; क्योंकि वह जानता है, यह बरसा हुआ पानी, उसकी फसल के लिए बहुत ही लाभप्रद होगा। ‘भरणी नक्षत्र’ बरसने पर परणी (स्त्री) तक छोड़ना पड़ेगा। यह बरसात फसल को सर्वथा नष्ट कर देती है, जिससे किसान की विपदा का पार नहीं रहता। ‘असलेखा नक्षत्र’ की बरसात किसान को रोगों की सूचना देती है। ‘आर्द्रा नक्षत्र’ की हवा उसे अकाल की सूचना देती है। जेठ की पुरवाई में किसान को अकाल के आसार नज़र आते हैं। ‘दक्खिनी हवा’ उसे बरसात की खुशखबरी सुनाती है। ‘उत्तर और पश्चिम दिशा में चमकने वाली बिजली’ को वह केवल बिजली मात्र ही नहीं समझता — जोर से पानी बरसने की संदेशवाहिका समझता है। किसान का विश्वाश है कि ‘ईशान कोण की बिजली’ जरूर पानी बरसायेगी। ‘बादल भी हों और गर्मी भी पड़े तो निश्चित पानी बरसता है’। ‘शाम को इन्द्र-धनुष दिखलाई पड़े और सवेरे मोर बोलें’ तो किसान को वर्षा की आशा बँधती है। जब किसान को यह मालूम हो जाय कि ‘गरमी से मिट्टी की हंडिया में घी पिघल गया है, वह देखता है कि चींटियाँ अंडे लेकर बाहर आ गई हैं और चिड़िया बालू रेत में नहा रही है तो उसे सोलह आने विश्वास हो जाता है कि इतना पानी बरसेगा कि उसे धरती भी न झेल सकेगी’। ‘सवेरे की गर्जन खाली नहीं जाती, पानी बरसा कर ही रहती है’। किसान का प्रकृति के साथ ऐसा ही वैज्ञानिक संबंध है। प्रकृति उसकी मौत और ज़िंदगी की एक समस्या है। प्रकृति के साथ उसका केवल व्यर्थ लगाव नहीं होता। प्रकृति उसे जिन्दा रखती है, प्यार करती है, दुलारती है, उस पर खीझती है। उसे नुक्सान पहुँचाती है। वह प्रकृति के आसरे ही जीता और मरता है।
लोक-जीवन का प्रकृति के प्रति वैयक्तिक नहीं, सामूहिक सम्बन्ध रहता है। इसलिए लोक गीतों में प्रकृति का चित्रण सामूहिक भावना का ही प्रतीक होता है। व्यक्ति की इच्छा, आकांक्षा और रुचि का प्रवेश वहाँ सम्भव नहीं। यही कारण है कि लोकगीतों में वैयक्तिक विकृतियों के लिए कोई मौका ही नहीं रहता। वैयक्तिक विकृति काले-घने बादलों में केवल अपनी प्रेयसि की अलकों को निहारती है, चन्द्रमा में केवल अपनी प्रियतमा का मुख खोजा करती है, उषा की लालिमा का अपनी प्रेयसि के अरुण नयनों से मिलाप करती है, बरसात को वियोगी अश्रु-बिन्दु समझती है, गरमी की उष्णता को वियोगिनी की आहों का परिणाम बतलाती है। लेकिन सामूहिक अनुभवों द्वारा व्यजित लोक गीतों में प्रकृति के प्रति ऐसा वैयक्तिक मखौल कहीं नहीं मिलता। उनमें समूह की औसत भावनाओं का सहज चित्रण होता है। समाज से विच्छिन्न व्यक्ति की कुंठित मनोवृत्तियाँ, प्राकृतिक उपकरणों को भी अपनी कुंठित विकृतियों से कलुषित कर देती हैं। लेकिन गाँव-वासियों के लिए प्रकृति उनकी सामूहिक अनुभूतियों को उभारती है। काम करने के लिए उन्हें सामूहिक रूप से प्रेरणा और उत्साह देती है। बरसाती बादलों को देख कर लोक-जीवन में समान ही सामूहिक प्रतिक्रिया होती है। क्योंकि बादल का पानी उनके खेतों को सींचता है, धान उगाता है। खेती ही उनके जीवन का आधार है। बादल उनकी कल्पना का साथी नहीं, बल्कि उनकी ज़िन्दगी का पोषण करने वाला है। इसलिए बादल की गर्जना, उन्हें खेती की तैयारी के खातिर, सामूहिक आह्वान सुनाती है। बादल की इस जीवनदायिनी गर्जना को सुन कर वे खुशी और उत्साह के साथ नाचते हैं, गाते हैं — ‘आया, आया, जेठ-आषाढ़ आया। आई, बरसात की भली ऋतु आई। इन्दर राजा अपनी गर्जना के बहाने चेतावनी दे रहे हैं। हल के साज तैयार करो! जेई के सींगे बँधाओ! कस्सी, गंडासी के धार दिलवाओ! खोडियों के डाँडे दिलवाओ! चऊ बनवाओ! हळवाणी तैयार करवाओ! बाजरी के लिए बीकानेर के बीज मँगवाओ! सौ बीघों में अरड़ बाजरी बोओ और सौ बीघों में कोड़याळी ज्वार। खूब मोठ-बाजरा पैदा हो और खूब ज्वार पैदा हो। बरसात की भली ऋतु आई है। इन्दर राजा गरज रहे हैं। अपने खेत तैयार करो! अपने हल तैयार करो! अपने बैल तैयार करो! गाँव के वासी बरसात का ऐसा ही मतलब लेते हैं। उनके लिए बरसात का यही अर्थ हुआ करता है।
बरसात आती है तो वे खेती के लिए अपने को तैयार करते हैं। काम में उत्साह और जोश दिखलाते हैं। नहीं आती है तो उसके लिए ‘इन्दर राजा’ की प्रार्थना करते हैं। विनती करते हैं। ‘मेघासिन रानी’ से पानी के लिए कामना करते हैं — ‘आज हमारे देश पर मेहर करो, इन्दर राजा! बरसो, जल्दी बरसो! चन्दन की चौकी बैठने को दूंगी, तुम्हें। पवित्र मन और पवित्र दूध से तुम्हारे पाँव पखारूँगी। उजले चावल राँधूंगी, तुम्हारे लिए। हरे मूंगों की धुली हुई दाल बनाऊँगी। ताँबे की कटोरी में घी गरम करूँगी। पापड़ सेकूँगी। तुम भोजन करोगे और मैं तुम्हारी अंगुलियों को निरखूँगी। तुम चलोगे तो मैं तुम्हारी मधरी चाल निहारूँगी। पोढ़ने के लिए पचरंगा पलंग दूंगी। झालरदार गलीचा दूँगी। नरम नरम बिछौना दूँगी। आज हमारे देश पर मेहर करो, इन्दर राजा! पवित्र दूध से तुम्हारे पाँव पखारूँगी।’ आदिम मानव प्रकृति को अपनी कल्पना के अनुसार देखता है। प्रकृति को वह अपनी मानवीय सौन्दर्य-भावना में ढाल देता है। प्रकृति में वह अपनी आत्मा के प्रकाश को निखारता है। वह प्रकृति को अपनी चेतना के रूप में ग्रहण करता है। इन्दर राजा जैसे उसीके बीच का एक साधारण मनुष्य हो। ठीक मनुष्य के समान ही उसका आकार है। वह मनुष्य के समान ही खाता-पीता है। रंग, रूप, व्यवहार, आहार, निद्रा, तृष्णा — सब मनुष्य के समान ही है। राजस्थान में अतिथि का जैसा प्रत्यक्ष स्वागत होता है — इन्दर राजा के लिए भी वही स्वागत और सम्मान-भावना पेश की गई है। मूँगों की दाल, उजले चावल, पापड़ आदि से उसे भोजन कराया जायेगा। सोने के लिए उसे सुन्दर बिछौना दिया जायेगा। दूध से पाँव पखारने की भावना में अतिशय सम्मान, श्रद्धा, प्यार और आत्मीयता का बोध होता है। प्रकृति के उपकरण (इन्दर) को मनुष्य रूप में दीक्षित कर लिया गया है। प्रकृति को अपनी चेतना ही का अंश मानने के कारण, आदिम मानव का यह विश्वास है कि वह उससे अपनी चाहना के अनुरूप कार्य सम्पन्न करवा लेगा।
इन्दर राजा को तो मेहर करने की केवल प्रार्थना-भर है। किंतु ‘मेघासिन रानी’ के स्त्रियोचित कोमल मन को द्रवित करने के लिए, उसके प्रति और भी आत्मीय सहजता प्रगट की गई है। ‘मेघासिन रानी ! तुम कहाँ चली गई? तुम्हारे बिना तो हमारे सब हाल ही बेहाल हो गये हैं। आओ, खूब जम कर गहरी वर्षा करो! बैठने के लिए, ऊँचे चौक पर तुम्हारा आसन है। निर्मल स्वच्छ दूध से तुम्हारे पाँव पखारूंगी। देखो तो, तुम्हारे कारण भाई ने अपनी प्यारी बहिन तक को छोड़ दिया। बेलों ने कँधों पर से जूआ उतार दिया। नारियों ने अपने पतियों ही को छोड़ दिया। गायों ने बछड़ों का त्याग कर दिया। भेंसियों के थन में दूध ही सूख गया। देखो तो जरा तुम, इन सबको। तुम्हारे बिना तो हमारे देश का हाल ही बिगड़ गया। आओ, मेघासिन रानी! जल्दी आओ। जम कर गहरी वर्षा करो! उजले दूध से तुम्हारे पाँव पखारूँगी।’ राजस्थान की सूखी धरती पर वास करने वाले किसान की सामूहिक वेदना का उत्कृष्ट उदाहरण इसके अन्यथा और क्या हो सकता है? सामूहिक अभाव, सामूहिक वेदना जैसे गीत के प्रत्येक आखर में सजीव हो उठी हो। वर्षा के अभाव में समस्त कृषक जाति की आंतरिक अनुभूति ही जैसे इन पंक्तियों में अपनी मानवीय चेतना लेकर घुल-मिल गई हो।
साँस लेने के लिए, जितनी हवा जरूरी है — राजस्थान के गाँवों में बरसात भी उतनी ही जरूरी है। वर्षा के बिना गाँवों की सामूहिक जिन्दगी तो जैसे चल ही नहीं सकती। लेकिन बादल यहाँ के गाँवों को अक्सर धोखा दे जाते हैं। काल पड़ता है। सूखा पड़ता है। जमीन का वासी किसान, आकाश की ओर टकटकी लगाये देखा करता है — कोई छोटी-सी बदली आये। कोई ‘भुर-जाळा’ बादल दिखलाई पड़े। उसकी ज़िंदगी तो बादलों में अटकी पड़ी है। राजस्थानी किसान के लिए बादलों से केवल पानी ही नहीं बरसता, उसकी ज़िंदगी बरसती है। पशुओं के लिए चारा बरसता है। खाने के लिए धान बरसता है। बच्चों के लिए दूध बरसता है। बरसाती हवाएँ उनकी ज़िंदगी का संदेशा लेकर आती है। ‘पुरवा’ उसकी बहिन है। ‘सूरया’ उसका भाई है।
पुरवा बहिन
छिनअेक चालौ परवा भांण!
मेहां री म्हांरै लग रही चाव,
छिनअेक चालौ परवा भांण!
दोय घड़ी जे रळकौ देद्यै — तौ
ताली भर ज्याय आंगण मांय,
छिनअेक चालौ परवा भांण!
दोय घड़ी जे रळकौ देद्यै — तौ
बंधिया पाडा पीवै ठांण,
छिनअेक चालौ परवा भांण!
दोय घड़ी जे रळको देद्यै — तौ
छिल-छिल भर ज्याय सरवर ताळ,
छिनअेक चालौ परवा भांण!
दोय घड़ी जे इकलग चालै — तौ
बोदी दुनियां फिर जी ज्याय,
छिनअेक चालौ परवा भांण!
सूरया भाई
सूरया वीर बदळी ल्याई रै!
झाला दे-दे तोय बुलाऊँ
थूं म्हांरै देश आई रै,
सूरया वीर बदळी ल्याई रै!
जेठ न आवै, साढ़ न आवै
सावण अलबत आई रै।
सूरया वीर...
पग पांणी पालर कर दे
तौ सिर बादळिया छाई रै।
सूरया वीर...
पिणियार्यां खुशियाळी करदे
घर में ताळ भराई रै।
सूरया वीर...
पिणियारयां तोय घरां उडीकै
हाळी खेतां मांई रै।
सूरया वीर...
बूढ़ा-ठेरा पून पिछाणै
थूं दोय झोला दे ज्याई रै,
सूरया वीर, बदळी ल्याई रै!
आदिम मानव, प्रकृति के उपकरणों को कभी मानव रूप में ग्रहण करता है, कभी उन्हें अपने पारिवारिक सम्बन्धी समझता है। धरती उसकी माँ है। आकाश उसका पिता है। पुरवा उसकी बहिन है। सूरया उसका भाई है। जैसे — भाई, बहिन, माता, पिता उसका कहा नहीं टालते उसी प्रकार वह प्रकृति से भी यही आशा करता है कि रिश्ते की आत्मीयता प्रकट करने पर वह भी उसका कहा नहीं टालेगी। जिस प्रकार कोई मनुष्य किसी को हाथ के इशारे से अपनी ओर बुलाता है, उसी प्रकार किसान की स्त्री, बादल को सम्बोधित करते हुए कहती है — ‘मेरे मारूजी तुझे झाला देकर बुला रहे हैं — खेतों पर बरसने के लिए आओ बदळी! बाँये मत जाना! दाहिने मत जाना! सीधे हमारे खेतों पर आना! खाली मत जाना! सूरया के साथ आना! भरी हुई आना! धीरे मत बरसना! दूध की झड़ी लगा कर, बड़े जोरों से बरसना! मेरे मारूजी (प्रियतम) हाथ का झाला (संकेत) देकर तुझे बुला रहे हैं। जल्दी से दौड़ी चली आओ, बदली!’ एक दूसरे गीत में है—‘मारूजी के खेतों पर जाकर बरसो, बदली! घोरों पर बरसो! मैदानों पर बरसो! मगरों पर बरसो! इतना बरसो की सारी नाडियाँ छिल जाँय। सारे तालाब छिल जाँय। जेठ बीत गया। आषाढ़ बीत गया। सावन भी सूखा जा रहा है। हर पल और हर घड़ी, हम तुम्हारे सुगन (शकुन) मानते हैं। तुम्हारी बाट निहारते हैं। भागी चली आओ! दौड़ी चली आओ! समुद्रों से खूब पानी भरती लाओ! बादलों का दल भी अपने साथ लेती आओ! दो-दो गेड़े करना। (दो-दो बार बरसना।) जाओ बदली! मारूजी के खेतों पर जाकर बरसो! खूब बरसो!’ गाँवों के जीवन को, बरसाती बादलों की सामूहिक आवश्यकता ही इन गीतों के विषय संवारती है — उनके रूप-तत्व का निर्माण करती है। सामूहिक ज़िंदगी ही इन गीतों की निर्माता है। इसलिए वैयक्तिक आलोचना कभी भी अपनी व्यक्तिवादी कसौटी पर इन गीतों को परख नहीं सकती। यह कसौटी स्वयं ही खोटी है। खरे और वास्तविक गीतों की परख के लिए कतई काबिल नहीं है। यदि मानव की अपनी ज़िंन्दगी सुन्दर है तो ये गीत भी निहायत सुन्दर हैं, क्योंकि इन गीतों के हर शब्द में मनुष्य की ज़िंन्दगी वास करती है।
‘झिर-मिर झिर-मिर मेहूड़ौ बरसै, बादळियौ घररावै अे’। और ‘मेरे जेठजी सूड़ कर रहे हैं। कँटीली झाड़ियाँ काट रहे हैं। पति मेरा हल चला रहा है। देवर खेत साफ कर रहा है। जेठाणी सबके लिए रोटी ला रही है। नन्हा भतीजा मेरा रेवड़ चरा रहा है। नणदल गायों को घेर रही है। ग्वालों को घी का चूरमा खिलाऊँगी। हाळियों को खीर और लापसी जिमाऊँगी। झिर-मिर झिर-मिर मेहूड़ौ बरसै, बादळियौ घररावै अे।’ यह गाँवों की ज़िंदगी है। गाँवों के गीतों में व्यक्त हुई है।
एक पत्नि अपने पति से गहनों की मांग करती है। पति उत्तर देता है — ‘गहनों के लिए इतनी क्या बिलख रही हो! तुम्हें तो अपने गहनों की ही लगी है और धरती सारी मेह के बिना तरस रही है। बस धरती पर बरसात होने दो, तुम्हे गहनों ही गहनों से लाद दूंगा। जरा पानी बरस जाने दे — फूँदों वाले बाजूचंद बनवा दूंगा, तेरे लिए। जगमगाता कीमती साळू खरीद दूंगा। हाथीदाँत का चुड़ला चिरवा दूँगा। पनड़ी वाला तेवटिया घड़वा दूँगा। मखमल की जूतियाँ ला दूंगा। गहनों के लिए क्या इतना बिलख रही है। जरा बरसात होने दे। तेरी सुन्दर देह को गहनों से लाद दूँगा।’ राजस्थान की सूखी धरती और बरसात का कितना गहरा सम्बन्ध है! राजस्थान के लोक-जीवन में बरसात की जितनी महत्ता है, उससे कम महत्ता लोकगीतों में भी चित्रित नहीं हुई है। बरसात है तो गहने हैं, बाजूबन्द है, साळ है, हाथीदांत का चुड़ला है, पनड़ी वाला सोने का तेवटिया है, मखमल की जूतियाँ हैं। और बरसात नहीं तो कुछ भी नहीं। जब बरसात ने अपने हाथों से धरती को शृंगार नहीं करवाया है तो फिर भला किसान-स्त्री भी अपने देह को कैसे सँवारे? किस तरह सँवारे?
‘बारहमासा’ गीत में, साल के बारह महीनों का वर्णन है। शहर के बारह महीने नहीं, गाँव के बारह महीने। हर महीने में ‘सांई’ की किसी कुदरत का बखान किया गया है। साल का आरम्भ भी बरसात की मौसम को माना गया है। ‘असाढ़ का महीना — बिरखा लगी। बाजरियाँ बोने का समय आ गया। माँ, खेत पर भाता (खाना) ला रही है। वाह रे सांई वाह! क्या ही उम्दा मौसम है। सावन का महीना — बाजरी उग आई। खेत में निदाँण हो रहा है। काचर-मतीरों की बेलों को चतुराई के साथ टाला जा रहा है। वाह रे सांई वाह! भादों का महीना — मीठे मतीरे। मीठी ककड़ियाँ। बाजरी के मीठे सोगरे। वाह रे सांई वाह! आसोज का महीना — धान पकने आया। आशा लगी। खेतों की रखवाली की जा रही है। हक्कालों का शोर सुनाई दे रहा है। रात को खेत में ही रहना होगा। वाह रे सांई वाह! काती का महीना-सिट्टों की भरमार। बेशुमार फूँक। जितना भावे, उतना खाओ।
धान मोती के दानों की तरह पक गया। वाह रे सांई वाह! मिंगसर का महीना —लटाई के दिन। महाजन अपने बही-खाते लेकर हिसाब चुकता कर जायेगा। ले-दे कर कर्जे से फारिक हो जायेंगे। वाह रे सांई वाह! पोष का महीना — खालड़ी को कँपाने वाली भयंकर सर्दी। माघ का महीना — पाला पड़ने लगा। पानी तक जम कर पत्थर हो गया। वाह रे सांई वाह! फागुन — गोपियों के साथ किसन भगवान फाग खेल रहे हैं। महूड़े के मद की चुस्कियाँ उड़ रही हैं। सर्वत्र उन्माद। सर्वत्र उत्साह। वाह रे सांई वाह! चैत्र — चम्पा महक उठा है। मोर चंचल हो रहे हैं। बरसात नहीं और वृक्षों से हरियाली फूट पड़ रही है। वाह रे सांई वाह! वैसाख — कड़ाके की गरमी। चमचमाती धूप। पड़वों में सोये रहेंगे। छाया में आराम करेंगे। वाह रे सांई वाह! जेठ की गरमी। और भी कड़ाके की धूप पड़ेगी। सारा शरीर तावड़े से झुलस उठेगा। खेजड़ी पर चढ़कर खोखे खायेंगे। मीठे और स्वादिष्ट खोखे। वाह रे सांई वाह!’ यह राजस्थान के किसानों का ‘बारहमासा’ है। साल समाप्त हुआ — फिर यही बारहमासा। दूसरा साल समाप्त हुआ फिर वही बारहमासा। लोक-जीवन, प्रकृति से कुछ दूर रह कर उसे देखने की कोशिश नहीं करता। प्रकृति स्वयं उसकी दिनचर्या के ही अन्तर्गत आती है। लोक-गीतों में सामूहिक दिनचर्या के ही बोल मुखरित होते हैं। गीतों के इस सामूहिक तत्त्व को समझे बिना, इनके मर्म को समझा ही नहीं जा सकता।
गाँवों में नन्हें-नन्हें बच्चे भी बरसात के समय नंग-धड़ंग होकर नाचते, उछलते और गाते हैं —‘मेह बाबा आजा, घी नै रोटी खाजा। आयौ बाबौ परदेसी, खेळी-कोठा भर देसी।’
वायु, बरसात, बादल, बिजली और गर्जन आदि के साथ ‘जीवन-आवश्यकता’ के अन्यथा लोकगीतों में कुछ रागात्मक सम्बन्ध भी व्यक्त हुए हैं, जिनमें मानवीय प्रेम की विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाया गया है। सावन के महीने में तीज के अवसर पर, सद्य-विवाहिता को अपने पीहर की याद आती है। भाई की याद आती है। बरसात के उपमान उसकी स्मृति को उत्तेजित करते हैं। सावन की झड़ देख कर, भाई को अपनी बहिन की याद आती है। लेकिन लोकगीतों में दाम्पत्य-प्रेम की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण अन्य रागात्मक सम्बन्धों की अपेक्षा अधिक हुआ है। बरसात के उपमान — बादल, काळी कळायण, कांठळ, बिजली आदि को देखने से कालिदास की अमर कल्पना ‘मेघदूत’— सभी मानव-हृदयों में साकार हो उठती है। पुरुष के भीतर सोया हुआ यक्ष, अपनी प्रियतमा की याद में विकल हो उठता है। और नारी के भीतर सोई हुई यक्षिणी, अपने प्रियतम की याद में अकुला उठती है। ये उपमान, प्रेम-भावना को सहज ही उद्दीप्त कर देते हैं। फिर भी लोकगीतों में, व्यक्ति के विकृत मनोविकारों को तनिक भी प्रश्रय नहीं मिला है। उनमें सामूहिक प्रेम-भावना के औसत उद्वेगों को ही स्वाभाविक व्यंजना मिली है।
पति परदेश गया हुआ है। सामने पर्वत पर बिजलियाँ एक के बाद एक चमक रही हैं। काली घटाओं के भीतर, झिलमलाती हुई बिजलियों ने पत्नि की आँखों से उसके अन्तर्मन में प्रवेश करके, प्रियतम की याद को जगा दिया। इस विवश अवस्था में भी प्यार की मधुर आशा, एक समाधान खोजती है —‘प्रियतम! मैं इस डूंगर पर ही अपना घर बनालें। बादल मेरे इस घर के किवाड़ होंगे। बिजली के झरोखों से मैं तुम्हारे आने की राह देखेंगी।’ व्यक्ति से समूह अधिक ताकतवर है। इसलिए सामूहिक उद्भावना में वैयवितक कल्पना से बहुत अधिक शक्ति होती है। सामूहिक उद्गारों की सहज व्यंजना भी जिस काव्यात्मक ऊँचाई तक पहुँच जाती है — उस तक पहुँच जाना, व्यक्ति की कल्पना के वश का रोग नहीं है।
दाम्पत्य-जीवन का अतुलनीय संवाद देखिए — पत्नि, नौकरी के लिए परदेश जाते हुए पति को कहती है —‘न रुकना चाहते हो तो न रुको। खुशी-खुशी जाओ, पर एक काम तो मेरा भी कर दो। आभे में चमकती हुई इन बिजलियों को जरा समझा दो कि वियोग की अवधि में ये न चमकें। पति उत्तर देता है कि यह उसके वश की बात नहीं। सावन-भादों में चमकना तो बिजलियों का स्वभाव है। वे तो जरूर चमकेंगी। पत्नि कहती है — तो फिर वन के इन दुष्ट मोरियों को मना करते जाओ कि तुम्हारे जाने पर वे मुझे बोल-बोल कर न सतायें। पति फिर विवशता प्रकट करता है कि बोलने की ऋतु आने पर ये तो बोलेंगे। इन पर किसी का हुक्म नहीं चल सकता। ऋतु आने पर कोयल बोलेगी। मोर बोलेगा। पत्नि और हठ करती है — भले आदमी! पड़ोसिन को तो मना कर दो कि वह अपनी मेड़ी में दिया न संजोये। पति इस बात के लिए भी लाचार है। उसका कहना है कि पड़ोसिन का पति घर पर है — वह तो दिया जलाएगी ही। अन्त में पत्नि अपने हृदयहीन पति से अंतिम प्रार्थना करती है कि दूर जाने से पहिले वह उसे एक जहर का प्याला ही देता जाय। बस! पति इसका भी जवाब देता है कि जहर तो दुश्मन को दिया जाता है। तुम मेरी प्रियतमा हो, तुम्हें तो कच्चे दूध का प्याला भर कर दूँगा।’ मानव-जीवन का समूचा यथार्थ, जैसे इन पंक्तियों में आकर सिमट गया हो। ज़िन्दगी के संघर्ष को, जहर पीकर समाप्त नहीं करना। ताजे दूध के प्याले पीकर, उसका सामना करने की शक्ति एकत्रित करनी है। पति नौकरी (कर्त्तव्य) पर जायेगा। काली घटाएँ उमड़ेंगी। बिजलियाँ चमकेंगी। मोर बोलेंगे। कोयल बोलेगी। और पत्नि को इन सबके बीच अपने पति का विछोह का सामना करते हुए ज़िन्दगी के यथार्थ को ग्रहण करना होगा। मानव-समाज को लोकगीतों का यही संदेश है कि प्रेम का अन्त मौत नहीं, ज़िंदगी है। जीवन से बढ़ कर इस दुनिया में और कुछ भी सुन्दर नहीं है।
अप्रेल, १६५६