भौतिक-जगत के विभिन्न स्वरूप चाहे वनस्पति के रूप में हों, चाहे पशु-पक्षी के रूप में, चाहे किसी पदार्थ के रूप में हों आज जितने विभिन्न दिखलाई पड़ते हैं, अपने अस्तित्व की प्रारम्भिक अवस्था में सभी का उद्गम-स्त्रोत एक ही था। एक ही अनेक का जन्मदाता है। विज्ञान की मान्यताओं ने इस सिद्धांत को पूर्णतया प्रतिपादित कर दिया है कि निर्जीव ही से जीव की सृष्टि हुई है। वस्तु-जगत की असंख्य विभिन्नताओं का बीज-रूप एक ही था। किन्तु बीज-रूप की अभिन्नता के सिद्धान्त पर हम आज की अनेकानेक विभिन्नताओं को अस्वीकार नहीं कर सकते। इन विभिन्नताओं की गतिमयता और विकास के अपने सिद्धान्त हैं, अपनी निजी क्रियाएँ हैं। आज इन विभिन्नताओं को जादू की डंडी से एक किया जा सकता है और इन्हें एक ही समझा जा सकता है। यह विभिन्नता ही आज हमारी एकमात्र वास्तविकता है। इसीकी आधार-भूमि पर हमें अपनी प्रगति और अपना विकास करना है। उद्भव की एकता और विकासजन्य विभिन्नता दोनों की सम्यक दृष्टि से सम्यक विवेचना करने पर ही विज्ञान-सम्मत निर्णयों पर पहुँचा जा सकता है।

वस्तु-जगत की तरह मानवीय जगत में भी क्या भाषा, क्या कला, क्या विज्ञान, क्या उत्पादन के साधन, क्या धर्म, क्या वेश भूषा, क्या अस्त्र-शस्त्र इन सभी क्षेत्रों में आज जो अगणित विभिन्नताएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे भी विकास-क्रम ही के परिणाम हैं। मानवीय जगत का आदि-रूप भी एक ही था। संसार भर की भाषाओं के जो मौजूदा विभिन्न रूप प्रचलित हैं उनका उद्गम भी एक था। लेकिन आज सभी भाषाओं का अपना साहित्य है, अपनी भिन्न व्याकरण है, अपना विभिन्न शब्द-भंडार है, और उच्चारण के अपने भिन्न तरीके हैं। विभिन्न देशों की बात तो दूर, एक ही समुदाय विशेष की एक ही भाषा के अर्थ संकेत, अभिव्यक्तियों के विभिन्न प्रयोगों की वजह से विभिन्न अर्थ-शक्ति का परिचय देते हैं। बोलचाल की भाषा, साहित्य की भाषा, कविता की भाषा, नाटक की भाषा, विज्ञान की भाषा, धर्म की भाषा इन सभी उपांगों का मूल शब्द-भंडार एक होने पर भी वे अपने प्रासंगिक स्थलों में भिन्न व्यंजना-शक्ति का आभास देते हैं। एक ही शब्द का प्रासंगिक उपयोग के कारण अनेक व्यंजना-शक्तियों में तदनुरूप परिवर्तन हो जाता है।

व्यंजना-शक्ति के इन विविध रूपों का सद्याश्रित कारण मानवीय आवश्यकताओं का वैविध्य है। मानव जाति की प्रारम्भिक अवस्था में अवैविध्य जीवन के कारण, उसके रहन-सहन उसके कार्य-व्यापारों में, व्यंजित विषय-वस्तु अभिव्यक्ति के साधनों में भी विविधता नहीं थी। सभी प्रकार की अभिव्यक्तियों का स्वरूप काव्यमय था। कविता नाम की स्वतन्त्र कला के अस्तित्व की तब कल्पना भी संभव नहीं थी। लिपि की प्रारम्भिक अवस्था में चित्र और शब्द में कोई अन्तर नहीं था। चित्र ही शब्द का लिपिवद्ध रूप था। मानव जाति के विकास-क्रम में एक स्थिति ऐसी भी थी जब उसके सामूहिक गान में कविता, नृत्य, संगीत तीनों सम्मिश्रित थे। संगीत और वाणी का अभिन्न स्वरूप था। संगीत ही मनुष्य की वाणी थी। धर्म, कला, विज्ञान और साहित्य, इन सबका एक ही रूप था।

भाषा के माध्यम से मनुष्य पशुओं की अपेक्षा बाह्य जगत के साथ सम्पर्क स्थापित करने में अधिक समर्थ होता है। यह अतिरिक्त सामर्थ्य मनुष्य को और भी अधिक समर्थ बनाती है। भाषा, समाज और परम्परा के जरिये मनुष्य के ज्ञान में विकास होता है; उस नये ज्ञान से भौतिक जगत के नये तत्वों का अनुसंधान होता है। नये तत्वों का सम्पर्क फिर मनुष्य के मानस में नये ज्ञान का सर्जन करता है। और वह नया ज्ञान नये तत्वों की खोज के लिए नई शक्ति प्रदान करता है। समय के दौरान में मनुष्य को ज्यों-ज्यों बाह्य-जगत की तात्विक जानकारी अधिक होती गई वह स्वयं आंतरिक रूप से अधिक विकसित और शक्तिशाली होता गया; और अधिक शक्तिशाली होने पर उसे भौतिक जगत की अभिजता के लिए अधिक क्षमता प्राप्त होती गई।

इस पारस्परिक निर्भरता का क्रम कभी सम्पूर्ण हुआ है और कभी सम्पूर्ण होगा। ज्यों-ज्यों बाह्य जगत के नये तत्वों की अधिकतम जानकारी होगी त्यों-त्यों मनुष्य के अंतर्जगत में नई क्षमता, नये तत्व और नये रहस्यों का उद्घाटन होता रहेगा। बाह्य-जगत का अधिकतम सम्पर्क ही मनुष्य की आंतरिक सम्पदा है। उसके बाह्य जगत की जानकारी कभी समाप्त होगी और उसके आंतरिक जगत का वैभव ही कभी निःशेष होगा।

बाह्य-जगत की अभिज्ञता का वैभव विज्ञान का वैभव है। आंतरिक-जगत के रहस्य का वैभव कला का वैभव है। मनुष्य अपनी आंतरिक शक्ति के जरिये बाह्य-जगत का जो भी नया परिचय प्राप्त करता है, उसे एक वैज्ञानिक-शैली में व्यवस्थित ढंग से संजोकर उसे नये विषय का रूप प्रदान करता है ताकि उसकी सामाजिक उपयोगिता सुगम और सुलभ हो सके। इस तरह विज्ञान के विषयों की संख्या बढ़ती रहती है। विज्ञान के उस नये यथार्थ का बोध कराने वाले शब्दों का चयन उसीके अनुरूप हो जाता है।

विज्ञान और कला में प्रयुक्त होने वाले शब्दों की कोई भिन्न तालिका नहीं होती। कोई भी शब्द किसी भी क्षेत्र में काम दे सकता है। विज्ञान और कला के गद्य की व्याकरण ही जुदा होती है और इसकी वाक्य-रचना ही। प्रासंगिक प्रयोग के बीच ही शब्द अपनी व्यंजना-शक्ति का परिचय देता है।

जहाँ तक कर्त्ता (सब्जेक्ट और वस्तु ,ऑब्जेक्ट) का प्रश्न है, सभी व्यंजित विषयों में ये दोनों ही समान रूप में उपलब्ध हैं। कला और विज्ञान के दायरे में जो कुछ भी सृजित होता है उस सबका सृष्टा केवल मनुष्य ही है। और वस्तु के रूप में बाह्य-जगत भी एक ही है। फिर इन विभिन्न शैलियों में विभिन्नता का प्रवेश कैसे सम्भव होता है? इन विभिन्नताओं का कारण है कर्त्ता और विषय का सम्बन्ध इनके पारस्परिक सम्बन्धों की विभिन्नता ही अभिव्यक्तियों की विभिन्नता का मुख्य आधार है।

मनुष्य का वस्तु जगत से जो सम्बन्ध है उसकी अभिव्यक्ति होती है विज्ञान में। और वस्तु-जगत का मनुष्य से जो सम्बन्ध है उसकी अभिव्यक्ति होती है कला में। यों तो बाह्य-जगत का सम्यक रूप एक ही है, किन्तु उसके तत्व भिन्न हैं। भौतिक जगत की यह तात्विक भिन्नता विज्ञान के विषयों की भिन्नता है। विषयों के अनुरूप उस ‘यथार्थ-विशेष’ का सम्यक बोध कराने वाले शब्दों का सम्यक प्रयोग तो भिन्न अवश्य होता है; किन्तु उसकी व्यंजना में कोई भाषागत रूपगत विभिन्नता नहीं होती। मनुष्य का विज्ञान के तत्वों से सम्बन्ध रहता है वस्तुपरक। इसलिए मानवीय विभिन्नता विज्ञान में लक्षित नहीं होती। विज्ञान का सृष्टा स्वयं मनुष्य होने पर भी मनुष्य की आत्मा उसमें नहीं रमती। उसका मूर्त्त रूप उसमें नहीं होता। लेकिन मनुष्य के हृदय पर वस्तु-जगत की प्रतिक्रिया नाना रूपों में उद्वेलित होती है, इसलिए कलात्मक अभिव्यक्तियों में भाषागत और रूपगत इतनी विभिन्नताएँ संभव बनती हैं। क्योंकि वस्तु-जगत की प्रतिक्रिया का केन्द्रस्थल कोई अमूर्त्त मानव, अमूर्त काल या अमूर्त स्थान नहीं होता। सभी प्रतिक्रियाओं का स्थान, समय, समाज और वातावरण के बीच एक मूर्त्त स्वरूप होता है। और इसी मूर्त्त भिन्नता पर यथार्थ की सदैव भिन्न प्रतिक्रिया होती है। मनुष्य के अंत-जंगत की ये विभिन्न प्रतिक्रियाएँ समय के दौरान में कई कलात्मक शैलियों के माध्यम से नाना रूपों में प्रकट होती हैं।

भौतिक जगत की उत्तरोत्तर अधिक जानकारी के कारण अंतर्जगत की कई गुप्त निधियाँ प्रकट होती हैं। उन निधियों की प्रभाव-प्रक्रिया भी भिन्न होती है। वस्तु-जगत से उसका सम्बन्ध भी नया होता है फलस्वरूप एक नई कला का उद्गम होता है। नई कला अपने नये सम्बन्धों के अनुरूप नई व्यंजना, नये प्रतीक, नई शैली और नई भाषा को जन्म देती है।

स्रोत
  • पोथी : साहित्य और समाज ,
  • सिरजक : विजयदान देथा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी शोध-संस्थान चोपासनी, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
जुड़्योड़ा विसै