पेड़-पौधे
पृथ्वी के मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों में पेड़-पौधों का महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी देश के आर्थिक विकास में इनकी अहम भूमिका होती है। इतिहास साक्षी है कि उत्तर-मध्यकाल तक भारत के सभी भूभागों में पर्याप्त वन-संपदा थी।
उत्तर-मध्यकाल समाप्त होते-होते देश के अधिकांश भागों पर अंग्रेजी शासन स्थापित हो चुका था और उनकी औपनिवेशिक नीति के चलते देश के तमाम प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से दोहन किया जाने लगा। वन-संपदा भी उनकी लोलुपता की शिकार बनी और कीमती पेड़ों का कटान करके उन्हें बाहरी देशों में भेजा जाने लगा।
देश के आजाद होने के बाद भी हालात नहीं बदले और वन-संपदा का क्षरण बड़े पैमाने पर जारी रहा। जनसंख्या बढ़ने से इमारती लकड़ी की जरूरत बढ़ती गई और पेड़-पौधे कटते गये। पुराने समय में वनों का लोकजीवन के साथ बड़ा तारतम्य था। अनेक लोकाचारों में मनुष्य के साथ पेड़-पौधों का साहचर्य जरूरी मानकर उन्हें देवतुल्य स्तर दिया गया था। कुछेक स्थानों पर पेड़ आदि काटने पर कठोर दंड दिया जाता था। अनेक पौराणिक ग्रंथों की रचना इन्हीं वनों के पेड़ों के नीचे बैठकर किए जाने का उल्लेख मिलता है।
राजस्थान प्रदेश में अरावली क्षेत्र पहले वनों से आच्छादित था पर विगत वर्षों में यह स्थिति नहीं रह गई है। सरकारी प्रयासों के चलते कुछेक वर्षों में हालत में कुछ सुधार जरूर हुआ है जिससे प्रदेश के वन-क्षेत्र का प्रतिशत थोड़ा सुधरा है।
राजस्थान में चिरकाल से ही वन और वन्य-जीवों के संरक्षण की परंपरा रही है। रियासती काल में खेजड़ी को बचाने के लिए अमृता देवी ने अनेक लोगों के साथ अपना बलिदान दिया था। राजस्थानी लोग कई पेड़-पौधों को अपना सहचर मानते हैं और उनका संरक्षण करते हैं। प्रतिकूल भौगोलिक एवं प्राकृतिक परिस्थियां के कारण देश के परिपेक्ष्य में राजस्थान में वन-भूमि का अनुपात तुलनात्मक रूप से कम है। वर्षा की कमी और अधिकांश भाग मरुस्थलीय होने के कारण पेड़-पौधे अधिक विकसित नहीं हो पाते।
राजस्थान की धरातलीय विविधता, असमान जलवायु और मृदा की भिन्नता के अनुसार ही यहां प्राकृतिक वनस्पति का विकास हुआ है। यहां किसी क्षेत्र में केवल कंटीली झाड़ियां और खास किस्म का घास पाया जाता है तो कहीं सागवान एवं बांस आदि के घने जंगल हैं। राजस्थान को भौगोलिक आधार पर दो प्रकार के वन भागों में बांटा जा सकता है – पूर्वी एवं दक्षिणी-पूर्वी प्रदेश के वन और पश्चिमी प्रदेश के वन।
राजस्थान के पूर्वी एवं दक्षिणी-पूर्वी भूभाग में शेष भागों से अधिक वर्षा होती है जिसके कारण यह भूभाग पेड़-पौधों की दृष्टि से समृद्ध है। इस भूभाग में बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर और चित्तौड़गढ़ जिले शामिल हैं। यहां सागवान, बांस, धोकड़ा आदि के साथ-साथ कुमट, कंकेड़ा, सोजना, महुआ, आम, जामुन, गूलर, सालर, बरगद, तेंदू और सरेस के वृक्ष मिलते हैं।
राज्य के पश्चिमी भाग में वर्षा का अनुपात तुलनात्मक रूप से कम है जिसके कारण यहां वनस्पतियां कम हैं। इस भूभाग में जोधपुर, नागौर, जैसलमेर, बाड़मेर, पाली, बीकानेर, चुरू, सीकर, झुंझुनूं आदि जिले शामिल किए जाते हैं। इस क्षेत्र में छोटी पत्तियों वाले कांटेदार पेड़-पौधे मिलते हैं जिनकी जड़ें गहराई तक जाती हैं। इन वृक्षों में रोहिड़ा, खेजड़ी, कूमट, जाल और नीम आदि प्रमुख हैं। यहां कुछ विशेष प्रकार की घास भी उगती हैं जिसमें सेवण, मूरण तथा धामण प्रमुख हैं। इनका पशु-चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है।
राजस्थान में पेड़-पौधों के आच्छादन को भौगोलिक और उगाव के तकनीकी आधार पर कुछेक शीर्षकों में विभाजन करना समझने की दृष्टि से सरल रहेगा –
शुष्क सागवान के पेड़-पौधे
इस प्रकार के पेड़-पौधे राजस्थान के दक्षिणी भाग में वर्षा की अधिकता वाले डूंगरपुर, बांसवाड़ा, कोटा, बारां और झालावाड़ जिलों में आच्छादित हैं। यहां बरगद, आम, तेंदू, झाल, सालर, गूलर, महुआ, सरेस, खैर आदि के वृक्ष मिलते हैं। यह भूभाग पेड़-पौधों की दृष्टि से सम्पन्न है। इस भूभाग को मानसूनी वन क्षेत्र माना जाता है।
मिश्रित पतझड़ वाले वन
राजस्थान के पांच सौ से आठ सौ मिलीमीटर औसत वर्षा वाले भूभागों में इस श्रेणी के पेड़-पौधे पाए जाते हैं। इस प्रकार की वनस्पति वाले जिलों में सवाई माधोपुर, बूंदी, चित्तौड़गढ़, भरतपुर, अलवर, जयपुर और टोंक शामिल हैं। इन्हें शुष्क मानसूनी वन भी कहा जाता है। इनमें मार्च-अप्रैल के महिने में पतझड़ ऋतु आती है। इन वृक्षों में धोंक, खैर, ढाक, साल, बांस, कीकर, हरड़, बहेड़ा, आंवला, करजड़ी, अमलतास, झाल, करूंदा, आम, बड़, पीपल, सालर, महुआ, खिरनी, गूलर, सेंमल, तेंदू, रोहिड़ा, अशोक आदि शामिल हैं। मिश्रित पतझड़ वाले कुछेक पेड़-पौधों का व्यवसायिक महत्व है। इनकी राज्य की वन-संपदा में तकरीबन 27 प्रतिशत हिस्सेदारी है।
अर्द्ध-उष्ण सदाबहार वन
ये पेड़-पौधे राज्य के अर्द्ध गर्म भूभागों में पाए जाते हैं। सदैव हरे-भरे रहने के कारण इन्हें सदाबहार वन भी कहा जाता है। यह वन-संपदा राज्य के आबू पर्वतीय क्षेत्र के छोटे से भूभाग में आच्छादित है। इनमें आम, बांस और सागवान के वृक्ष शामिल किए जाते हैं।
नदी तटीय पेड़-पौधे
राजस्थान में नदियों की संख्या और जल-संपदा बेहद कम है। यहां की चम्बल और बनास नदी को छोड़कर शेष नदियां बरसाती हैं। इन नदियों में वर्षा के समय जल प्रवाहित होता है जो कई बार तट को पार कर जाता है। इसके चलते नदियों के किनारे मानसूनी व कांटेदार वृक्ष और झाड़ियां उग आती हैं।
अरावली पर्वतमाला के पूर्वी भाग में आम, नीम, पीपल, बड़, शीशम, ढाक, पलास, खेर, बबूल, महुआ, रोहिड़ा, हर्ड़, बहड़, आंवला, सेमल, गूलर, अमलतास आदि के वृक्ष मिलते हैं। पश्चिमी राजस्थान में लूनी नदी के बेसिन में अलग प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। यहां उगने वाले पेड़-पौधों में रोहिड़ा, बबूल, खेर, खेजड़ी, झाला, करजड़ी, कैर, आंवला, धूहर और अन्य प्रकार की झाड़ियां शामिल हैं।
उष्ण कटिबंधीय कांटेदार झाड़ी वाले वन
राज्य के रेतीले, शुष्क और 250 से 500 मिलीमीटर के मध्य औसत वर्षा वाले भूभाग में इस प्रकार की वनस्पति मिलती है। ये पेड़-पौधे सूखे और कांटेदार होते हैं। इनमें खेजड़ी, रोहिड़ा, बेर, जाल, कंटीले, कैर आदि वृक्ष मुख्य हैं।
इन पेड़-पौधों की जड़ें गहराई तक जाती हैं ताकि वे भूगर्भ से जल ग्रहण कर सकें। इनकी छाल भी मोटी होती है जिससे इनके जल का वाष्पीकरण कम होता है। इन पेड़ों में खेजड़ी बेहद उपयोगी है। इस श्रेणी के वन-क्षेत्र में जोधपुर, बीकानेर, सीकर, अजमेर, जयपुर, दौसा, झुंझुनूं आदि जिले गिने जा सकते हैं।
शुष्क वन
इस श्रेणी के पेड़-पौधे 250 मिलीमीटर से कम वर्षा वाले भूभाग में पाए जाते हैं। राज्य में इनका विस्तार मुख्यत: बीकानेर, चुरू, जैसलमेर, बाड़मेर और पश्चिमी जोधपुर जिलों में पाया जाता है। ये पेड़-पौधे आकार की दृष्टि से काफी छोटे और छितराए हुए होते हैं। इस प्रकार के वृक्षों में खेजड़ी, रोहिड़ा, बेर, कैर, थोर आदि प्रमुख हैं। इन सभी वनस्पतियों का शुष्क क्षेत्र में काफी महत्व है। खेजड़ी से पशुओं का चारा मिलता है तो कैर से सब्जी योग्य छोटे फल मिलते हैं, वहीं बेर की झाड़ी के पत्तों से बना पाला (चारा) भी पशुओं का आहार है।
संक्षेप में कहा जाए तो राजस्थान प्रदेश में प्रतिकूल भौगोलिक परिस्थितियां होने के उपरांत भी पेड़-पौधों के आच्छादन की दृष्टि से विविधता मिलती है। इस राज्य की कृषि और पशुपालन पर आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था में इन पेड़-पौधों का खास महत्व है। अनेक पेड़-पौधों से जलाऊ और इमारती लकड़ी प्राप्त होती है। इसके साथ ही कुछेक वनस्पतियों का औषधीय महत्व भी है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभ पहुंचाने वाली यह प्राकृतिक संपदा लोकजीवन के लिए बेहद उपयोगी है।