रस्किन का एक कथन है — ‘वह विचार भी ईश्वर का कितना महान् था, जब उसने वृक्ष की कल्पना की।’ बिलकुल ठीक। कोई अतिशयोक्ति नहीं। लेकिन स्वयं रस्किन का वह विचार भी इससे कोई कम महान् नहीं था, जिस समय उसने इस वाक्य की रचना की। पर हम शहर के बाबू लोग, कुछ इधर-उधर की पढ़ाई-लिखाई करने के बाद, इन वृक्षों और हरियाली को देख कर उपेक्षा के साथ कह दिया करते हैं — ‘हुं, ये जीते नहीं, पनपते हैं। अपने आप उगते रहते हैं और नष्ट होते रहते हैं।’ अज्ञानी और मूर्ख बने रहने की विद्या में उन्मत्त बावले — यह हम उन लोगों का कहना है जो अपने प्रयत्न से ‘खाते-पीते हैं, सोते हैं, आलस के साथ काम करते हैं, समय बिताने के लिए पढ़ते हैं और अनजाने में बूढ़े होते रहते हैं। जिनको अपनी नाक के परे कुछ भी नहीं दिखता।’ किन्तु दरअसल सच्चाई यह है कि ‘छोटे से छोटा हरा पान भी, इस दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण और एक रहस्यात्मक रसायनशाला है। हर घड़ी और हर पल, सूरज की वह किरण, जो हरे पत्ते को छूती है — उसके स्पर्श में रसायन शास्त्री का एक बड़ा जबरदस्त सपना, अपने वास्तविक रूप में घटित हो जाता है। वह सपना है — ‘जीव का एक निर्जीव पदार्थ में से निर्माण। केवल हरे पौधे के लिए ही यह सम्भव है कि वह निर्जीव पदार्थ से जीव की सृष्टि कर सके।’ ‘सूर्य की अपार जीवन-शक्ति, हरियाली के माध्यम से ही इस पृथ्वी पर प्रवेश करती है। पृथ्वी पर प्राण का संचरण, सूर्य की शक्ति से ही होता है। यदि पृथ्वी पर हरियाली नहीं होती तो यह दुनिया ही नहीं बसती। यहाँ जीव ही पैदा नहीं होता।’ केवल इतना ही नहीं, ‘हरे जगत के इस अद्भुत और विशाल रसोई-घर ही से हम सभी प्राणियों को भोजन मिलता है। साँस के लिए ताजी हवा मिलती है।
मनुष्य की उस आदिम असहाय अवस्था में, हरियाली ने ठीक माँ के समान उसका पालन-पोषण किया था। मानव-समाज का वह आदिम-शैशव पूर्ण रूप से अपनी ‘धरती माँ’ पर ही निर्भर था। माँ हरियाली उसे खाने को फल-फूल देती थी। खराब मौसम से उसको बचाती थी। आदिम मानव को खाने योग्य पशुओं का शिकार, इस हरे जंगल ही से मिला करता था। बचपन के दिनों में पाल-पोस कर, माँ हरियाली ने मनुष्य को योग्य बनाया। उसे अपनी मेहनत द्वारा जीना सिखाया। यही कोई दस हजार साल पहिले, आदिम मानव ने माँ धरती की गोदी छोड़ कर, अपने बूते पर जीना आरम्भ किया था। प्रकृति के द्वारा उगी हरियाली के आसरे से ऊपर उठ कर, उसने अपने हाथों से, अपनी जरूरत के मुताविक हरियाली निपजाना सीख लिया था। यह कोई बहुत पुरानी कहानी नहीं है। सिर्फ दस हजार वर्ष पहिले ही की बात है। मनुष्य की अपनी मेहनत द्वारा निर्मित हरियाली के उस पहिले पौधे से बढ़ कर कोई दूसरी कला नहीं है। कोई दूसरा विज्ञान नहीं है। आश्रित का दर्जा त्याग कर, तब वह पहिले-पहिले स्वयं सृष्टिकर्ता बना था।
लोक-जीवन आज दिन भी माँ हरियाली के स्नेह और प्यार को भूला नहीं है। यह अब भी उसीका पूत है। माँ की ममता को पहिचानता है। पुत्र के कर्त्तव्य को पहिचानता है। गुठली की जगह हरे पौधे के उगते अंकुर को देख कर वह उसे दूध-मलाई से सींचने की लालसा प्रकट करता है। लोक-जीवन थोथे आडम्बर में सुख खोजने की व्यर्थ चेष्टा नहीं करता। हरियाली से बढ़ कर अन्य कोई भी भौतिक तत्व उसे सुख प्रदान नहीं कर सकता। उसके लिए न अपार धन सुख का प्रतीक है और न कोई ऊँचा पद ही उसे सुख पहुँचाने की क्षमता रखता है। वह तो निशंक भाव से कहता है — मेरे आँगन में और पिछवाड़े मरवा है। इससे अधिक मुझे सुख और क्या चाहिए? इस हरियाली के कारण मेरा घर सदा सुहावना है —
म्हारै आंगण आम, पिछोकड़ै मरवौ
औ घर सदा अे सुहावणौ!
आँगन में केवड़े की हरियाली है। इसी से घर की शोभा है। इसी से घर में सुख-शांति है। सौन्दर्य है। हरे केवड़े के अस्तित्व से घर का चौक शुभ हो गया है। घर की बरियाँ शुभ हो गई हैं। घर के दरवाजे शुभ हो गये हैं। उस केवड़े के पास बाल-गोपाल खेल रहा है। पृथ्वी के वैभव को देखने के लिए केवल दो ही तो आँखें हैं। एक आँख में बाल-गोपाल समा गया है। दूसरी आँख में केवड़े की हरियाली समा गई है। इनके अन्यथा कुछ और देखने के लिए न कोई तीसरी चीज है और न कोई तीसरी आँख ही है।
म्हारै चांनण चौक सुहावणौ
ज्यां में खेलै अै भतीजौ नन्दलाल आंगण ऊभौ केवड़ौ
म्हारै बाबोजी री पोळ सुपोळ
आंगण ऊभौ केवड़ौ
जिस प्रकार पानी में हरियाली और हरियाली में पानी है, उसी प्रकार अबोध शिशु में हरियाली के दर्शन होते हैं और हरियाली में शिशु की पवित्रता साफ दिखलाई पड़ती है। माँ की कोख में ही सारा मानव-परिवार बसता है, उसीसे उसकी सृष्टि है। प्रकृति की कोख में हरियाली बसती है और हरियाली ही सब प्रकार के जीवों की सृष्टि है। इस मर्म को लोक-जीवन ने ही सबसे अधिक समझा है। कोख की उपमा के लिए उसे हरियाली के अतिरिक्त कोई दूसरा उपमान सूझता ही नहीं। कोई जँचता ही नहीं —
हरी बहू रैणादे री कूंख
हरियाली में कोख अंतर्निहित है और कोख में हरियाली। हरियाली सृजन का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है। लेकिन लोक-रुचि इससे भी दो कदम आगे बढ़ गई। उसने सृजन के प्रतीक रूप में ही हरियाली को मान्यता नहीं दी, बल्कि उसने सृजन-सम्बन्धी अधिकांश भावनाओं को हरियाली ही का रूप दे दिया। वह केवल हरियाली की बात करता है — और उससे सृजन की समूची व्यापकता स्पष्ट हो जाती है। वह केवल वृक्षों की बात करता है — और उससे परिवार की सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। वह परिवार के स्थान पर आम, इमली, नींबू, नीम, पीपल, बड़, बबूल के ही फलने-फूलने और पसरने की बात करता है और इन वृक्षों में परिवार के सभी सगे-सम्बन्धी — माँ, बाप, भाई, भौजाई, देवर, बहू, जेठ, नणद इत्यादि — साकार हो उठते हैं। वह परिवार की बात करता है तो उसमें वृक्षों की हरियाली स्वयंमेव चित्रित हो जाती है।
मधुवन रौ अै आंबौ मोरियौ
थौ तौ पसर्यौ अे सारी मारवाड़
आज म्हांरी अमळी फळ रही जी
ऊगी नीमड़ली घहर—घुमेर, मारूजी
फैली सौ कोसां में, जी म्हांरा राज
ऊग्यौ नींबू पांन-दु-पांन, वारी धण वारी औ हंजा
ऊगतड़ै जुग मोयौ औ गोरी सायबौ, जी राज
मरवै री जड़ ऊंडी पाताळ में अे
है के भोळी, बारां रै कोसां में मरवौ झुक रह्यौ अे
नींबूड़ै री जड़ गयी रै पताळ, औ थां पर वारी रै सइयां
सौवां नै कोसां पर नींबू फैलियौ, ओ राज
बांवळिया, कितरा बीघा में थारौ पेड़? बांवलिया, कितरा बीघा में थारी छांवळी?
गोरी अे, बारै बीघा में म्हारौ पेड़
सौळै बीघा में म्हांरी छांवळी
उधर मधुबन का ग्राम बौरा गया है। हरा-भरा। फला-फूला। और वह फैला तो इतना फैला कि सारे मारवाड़ ही में पसर गया। इधर अमली फल रही है। फैल रही है। उधर घहर-घुमेर नीमड़ी झूम रही है। सौ-सौ कोसों में फैल गई है। इधर नन्हा-सा नींबू उग आया है। अभी तक सिर्फ पान-दो-पान ही अंकुरित हुए हैं। फिर भी उसने उगते ही सारे जुग को मोह डाला। देखते-देखते उसकी जड़ें पाताल तक गहरी चली गईं। वह सौ-सौ कोसों में फैल गया। उधर मरवै का छोटा-सा पौधा भी पाताल में ऊँडी अपनी जड़ें फैला रहा है। बारह-बारह कोसों तक उसकी डालियाँ झुक गई हैं। उधर बबूल का पेड़ भी बारह बीघों में छाया हुआ है। और छय्यां उसकी सौलह बीघों तक फैली हुई है। सब तरफ हरियाली ही हरियाली। सब तरफ जीवन ही जीवन। सब तरफ फलना ही फलना। फूलना ही फूलना। सर्वत्र आनन्द। सर्वत्र उत्साह और आाशा। लगता है, मानव-समाज के समस्त परिवार ही, वृक्षों की हरियाली में समाहित हो गये हैं। वृक्ष परिवार का प्रतीक न रह कर, स्वयं परिवार ही वृक्ष का प्रतीक बन गया है।
हे म्हांरै उत्तर-दिखण री अे, जच्चा पींपळी
हे म्हांरै पूरब नमी-नपी डाळ रे
हे म्हांनै घणी अे सुहावै, जच्चा पींपळी!
हे थारै गीगौ अे जलमियौ आधी रात अे
हे थारै गुळ वैंच्यौ परभात
हे म्हांनै घणी अे सुहावै जच्चा पींपळी!
‘जच्चा’ और ‘पींपळी’ इन दो के पारस्परिक संयोग ने, वस्तु-तथ्य में इसी सीमा तक गुणात्मक-परिवर्तन ला दिया है कि बस उसका अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता। ‘पींपळी’ के पहिले ‘जच्चा’ शब्द आने से ऐसा लगता है कि जैस स्वयं पीपल के वृक्ष ही ने ‘जच्चा रानी’ का रूप धारण कर लिया हो। और ‘जच्चा’ के बाद ‘पींपळी’ शब्द के जुड़ने में ऐसा लगता है कि मानो ‘जच्चा रानी’ एकदम से पीपल के वृक्ष ही में बदल गई हो! ‘आधी रात के समय गीगे को जन्म देने वाली ‘जच्चा-पींपळी’ हमें बहुत सुहाती है। परभात के समय गुड़ बँटेगा। बधाइयाँ मनाई जायेंगी।’ क्योंकि ‘जच्चा-पींपळी’ ने नये इन्सान को जन्म दिया है!
बांवळिया, कुण रै लगायौ थांरौ पेड़?
बांवळिया, कुण रै सपूती थांनै सींचियौ?
गोरी अे, सुसरैजी लगायौ म्हांरौ पेड़!
सासू सपूती म्हांनै सींचियौ, गोरी अे!
बांवळिया, कुण रै बैठैलो थारी छांव?
बांवलिया, कुण रै सपूतौ कातै कातणौ?
गोरी अे, सुसरोजी बैठैला म्हांरी छांव!
सासू सपूती कातै कातणौ, गोरी अे!
बांवळिया, कुण रै सरीसौ थारौ फूल?
बांवळिया, कुण रै सरीसी थारी पापड़ी?
गोरी अे, सोनै सरीसौ म्हांरौ फूल!
रूपै सरीसी म्हांरी पापड़ी, गोरी अे!
बांवळिया, कठै रै मेलूंली थारौ फूल?
बांवळिया, कठै रै मेलूंली थारी पापड़ी?
गोरी अे, पेयां में मेलौ म्हांरौ फूल!
डाबां में मेलौ म्हांरी पापड़ी, गोरी अे!
बबूल के पीले फूल, रेत में पड़े रह कर बिखर जाने के लिए नहीं हैं। उसकी हिलारियाँ (पपड़ियाँ] पाँवों के नीचे कुचली जाकर टूटने के लिए नहीं हैं। सोने सरीसे फूलों को घर में हिफाजत से संजो कर उन्हें पेटियों में सुरक्षित रखो। रूपै सरीसी हिलारियों को घर में हिफाजत से संजो कर डिबियों में सुरक्षित रखो। यदि इनकी उपेक्षा बरती गई तो समाज का विकास ही रुक जायेगा। समाज की प्रगति में अवरोध पैदा हो जायेगा। परिवार की कमजोरी सारे समाज को कमजोर बना डालेगी। लोक-दृष्टि, परिवार को बहुत ही पवित्र व सम्मानित रूप में ग्रहण करती है। वह परिवार के वृक्ष को दूध-मलाई से सींचने की कामना रखती है। और—
मांखणियां री पाळ बंधाद्यो, मारूजी!
नीमलड़ी सिंचाद्यौ काचा दूध सूं!
गुळ घी बंधावौ नींबूड़ा री पाळ!
दूधां सिंचावौ हरियै रूख नै!
मत कोई तोड़ै, नींबूड़ा रा पांन!
कोई मत ना सतावौ हरियै रूंख नै!
जो कोई नींबू के पान तोड़ेगा, वह सजा पायेगा। इस हरे रूंखको जो कोई भी सतायेगा, उसको किसी भी प्रकार क्षमा नहीं मिलेगी। जो कोई भी इसकी कच्ची डाल तोड़ेगा, वह अवश्य दंड पायेगा। ‘नणदल बाई पान तोड़ती है तो उसे भी सजा मिलेगी। ससुराल भेजदी जायेगी वह। नटखट देवर इसकी हरी कामणी (छड़ी) तोड़ता है तो उसे भी सजा मिलेगी। राजा की नौकरी पर बाहर भेज दिया जायेगा वह। समाज का भवन, परिवार की ईंट से निमित होता है। यदि उसमें कच्चाई रह जायेगी तो सारे मकान में ही कच्चाई रह जायेगी। परिवार के वृक्ष नींबू, बबूल, आम, मरवा, नीम — ये सब तो, सबके सहयोग से, हमेशा फलते रहने चाहियें। यदि इन्हीं से पान और डालियाँ तोड़नी शुरू करदी जाय तो फिर कैसे काम सरेगा?
लोक-जीवन के लिए हरियाली से बढ़ कर कोई अन्य सुख नहीं है। इसलिए किसी भी समय, किसी को भी आशीर्वाद देते समय, हरियाली के बाहर उसे कुछ और लक्षित ही नहीं होता। बहिन, भाई को आशीर्वाद देती है तो कहती है — मेरे लाडले भैय्या तुम कड़वे नीम की तरह बढ़ना। हरी दूब की तरह फलना-फूलना। बेलड़ियों की तरह फैलना।
बधज्यौ रै, वीरा, बड़-पीपळ ज्यूं
फळज्यौ रै, बीरा, कड़वै नीम ज्यूं
बधज्यौ कड़वा नीम ज्यूं
बीरा, बधज्यौ औ हरियाळी दूब
बधियौ रै, वीरा, बेलां ज्यूं
फळज्यै अे, भावज फळ-फूलां ज्यूं
बधज्यै अे, भावज, मांयली दूब ज्यूं
वीरा, फूलज्यौ रै फळज्यौ आम री डाळ ज्यूं
जिस व्यक्ति की जिन्दगी हरियाली के बीच सम्पन्न होती है, जो हरियाली के बीच खाता-पीता है, उठता-बैठता है, वह इन आशीर्वादों की सत्यता को ठीक से अनुभव कर सकता है कि सिवाय इन उपमानों के, किसी भी और वस्तु से भाई या भावज को आशीष नहीं दी जा सकती। चारों ओर की हरियाली को देख कर लोक-जीवन तो प्रसन्न होता ही है, साथ में वह यह भी चाहता है कि समस्त प्राणी-जगत भी उसके साथ आनन्दित हो, उल्लसित हो, वह मोर से भी आशा करता है कि बरसात के दिनों में, हरियाली की छवि को निहार कर, वह भी बार-बार बोले। वह कोयल से भी आशा करता है कि वह हरियाली का, अपने मीठे स्वरों से अभिनन्दन करे। वह पपीहे से फरमाइश करना चाहता है कि सुहावनी मौसम पर वह हरदम बोलता ही रहे — कभी रुके ही नहीं।
मोठ-बाजरी सूं खेत लहरकै, वण-वण हरियाळी छाई,
रुत आई रै, पपइया, थारै बोलण री, रुत आई!
हरियै हरियाळै डाळी काळी कोयल बोलै राज
बोलै, बोलावै, सैयां सबद सुणावै राज
मीठा सबद सुणावै राज!
लोक-जीवन के चारों ओर छाई हरियाली के प्रतिबिंव का आभास, उसे अपनी हर वस्तु में दिखलाई पड़ता है। उसे स्वयं अपना जीवन भी हरा-भरा ही दिखता है। अपने जीवन से सम्बन्धी प्रत्येक चीज में भी हरी प्रतिच्छवि उसे दिखलाई दे जाती है। सारा वातावरण ही हरियाली से मानो प्रतिबिंबित हो उठता है। जब दूल्हा घोड़े पर चढ़ कर तोरण की तरफ आता है तब खुशी के उस वातावरण में दूल्हा केवल दूल्हा ही नहीं दिखता, वह ‘हरियाळी बनड़ा’ दिखता है। ‘जद हरियाळी बनड़ौ तोरण आयौ अे।’ लोक गीतों में, लोक-जीवन की विशिष्ट स्थितियाँ, अपने इसी सम्पूर्ण रूप के साथ चित्रित होती हैं। एक-एक शब्द सार्थक और अर्थ पूर्ण होता है। उसमें जीवन की यथार्थ चेतना घुली-मिली रहती है। यही कारण है कि जिन्दगी की श्रेष्ठता, लोक गीतों में प्रयुक्त शब्दों को अपने संस्पर्श से, अपने ही समान श्रेष्ठ बना देती है। इसलिए लोक गीतों के शब्दों का अपना शाब्दिक अर्थ तो हो जाता है गौण और जीवन की अर्थ-पूर्ण व्यंजना प्रमुख हो जाती है। लोक-जिन्दगी से बिना परिचय पाये, इन गीतों का वास्तविक और पूरा परिचय पाया ही नहीं जा सकता।
परोपकार की भावना को स्पष्ट करने के लिए वृक्षों के सिवाय कोई दूसरी उपमा ही नहीं सूझती। उनका अस्तित्व ही दूसरों की भलाई के लिए है। पत्थर मारो और वे मीठे फल खाने को देते हैं। हारे-थके राही को अपनी छाया में आश्रय देते हैं। सुख-शांति देते हैं। आदिम-मानव, छोटे से बीज में से इतने बड़े वृक्ष के फलने, फैलने और बढ़ने को देख कर आश्चर्यचकित रह जाता है। और अपनी ही चेतना के अनुकूल बाह्य वातावरण को देखने की स्वाभाविक वृत्ति के कारण वह वृक्षों में आत्मा का अनुभव करता है। हरे वृक्षों को काटना उसके लिए पाप है। वृक्ष की आत्मा को सताना है। आदिम-मानव खेत, वृक्ष और हरियाली में अपनी कल्पना के अनुसार तरह-तरह की प्रेतात्माओं का विश्वास करता है। विश्वास के अनुकूल, वैसा ही उनके प्रति व्यवहार करता है। प्रकृति और अपने बाह्य वस्तु-जगत के साथ उसका व्यवहार ही उसका धर्म है। आदिम-समाज में धर्म एक सामूहिक कर्त्तव्य है, एक सामूहिक आवश्यकता है। वैयक्तिक दखल को वहाँ प्रश्रय नहीं मिलता। आखा-तीज के दिन, खेत और हल की पूजा व अन्य विधि-कर्म, कोई वैयक्तिक अधिकार तथा वैयक्तिक स्वतंत्रता तक कतई मर्यादित नहीं हैं। वह एक सामूहिक ज़िम्मेदारी है। कुछ वृक्ष — जैसे पीपल, तुलसी और बड़ आदि को पवित्र मानना और उनकी पूजा करना कोई वैयक्तिक-भावना का उद्रेक मात्र नहीं है। वे परम्परा और सामूहिक विश्वास और सामूहिक भावना के द्वारा ही दैनन्दिन जिन्दगी के प्रत्यक्ष व्यवहार के आवश्यक तत्व हैं। बबूल, आक और थोर आदि कुछ वृक्ष अशुभ समझे जाते हैं। ये घर में नहीं बोये जाते। आदिम-मानव का यह विश्वास है कि इनमें दुष्ट प्रेतात्माएँ निवास करती हैं। इनको वश में करने के लिए विभिन्न विधि-कर्म भी हैं। जैसे—बबूल के पेड़ को लगातार तेरह दिन तक सींचने से उसकी प्रेतात्मा को वश में किया जा सकता है। प्रकृति के प्रत्येक वस्तु-पदार्थ में अपनी चेतना का अनुभव करना उनके प्रति वैसा ही बर्ताव करना —
यही आदिम-मानव का व्यवहारिक जीवन है — यही उसका धर्म है — और यही उसका विज्ञान है।
अप्रैल 1953