राजस्थानी लोकनाट्यों में सनकादिकों की लीलाओं का खास स्थान रहा है। इनका वर्ण्य-विषय पौराणिक कथाओं पर आधारित होता है। राजस्थान में सनकादिकों की लीलाओं के मंचन के लिए अखाड़े बने हुए हैं जिनमें से घोसुंडा और बस्सी के अखाड़े बड़े प्रसिद्ध हैं। इन दोनों लीलाओं का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है –
 
घोसुंडा की सनकादिक लीला
घोसुंडा में लगभग तीन सौ वर्षों पहले गोवर्द्धनदास नाम के नामी भक्त हुए थे। वे स्वभाव से बड़े सरल, दयालु, धार्मिक और सेवाभावी थे। किवदंती है कि उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उनकी पत्नी को कृष्ण ने बाल रूप में दर्शन दिए थे। गोवर्द्धनदास को प्रसन्नता तो हुई पर हरी के दर्शन से खुद वंचित रह जाने के कारण वे दुखी भी हुए। उन्होंने अन्न त्याग कर मौन धारण कर लिया। उनकी प्रार्थना को भगवान ने सुना और चतुर्भुज के रूप में दर्शन देकर शालिग्राम भेंट किया।
 
गोवर्द्धनदास के हरीदास नाम का ज्येष्ठ पुत्र था। उसका रिश्ता घोसुंडा से छह मील दूर सावा गांव में कोठारियों के यहां किया गया पर लंबे समय उनका विवाह नहीं हुआ। इसके बाद हरीदास की पत्नी के स्थान पर तुलसी और हरीदास के स्थान पर शालिग्राम का विवाह करवा दिया गया। एक रात भगवान ने भक्तजी को दर्शन दिए और कहा – ‘इस विवाह में कन्यादान के समय स्वर्णदान का संकल्प मत लेना।’ विवाह के समय जब कन्यादान का समय आया तो वे यह बात भूल गये। बाद में उन्हें याद आया तो वे काफी पछताए और अपनी देह त्यागने तक को तैयार हो गये। किवदंती है कि इसके बाद पीतांबरधारी चतुर्भुज ने उन्हें दर्शन दिए और उन्हें अपना मुकुट भेंट करते हुए कहा कि तुम मेरे मुकुट के दर्शन करते रहना। आज के बाद से मैं तुम्हारे गांव में वर्ष में तीन दिन किसी न किसी रूप में दर्शन दिया करूंगा। तुम आश्विन शुक्ल त्रयोदशी से पूर्णिमा तक तीन दिनों तक मेरे युगल स्वरूप व रास आदि लीलाओं का उत्सव आयोजित किया करना। जब तक यह मुकुट तुम्हारे वंशजों के पास रहेगा, तब तक मैं इसी प्रकार किसी न किसी रूप में यहां आकर दर्शन दिया करूंगा।
 
इसके बाद घोसुंडा में आश्विन माह के इन्हीं तीन दिनों में सनकादिकों की लीलाओं का मंचन किया जाता है। इस अवसर पर बड़ा मेला भी भरता है। पहले दिन मुख्यत: भजन-भाव किए जाते हैं और घोसुंडा की सीमाओं पर परिक्रमा की जाती है। यह परिक्रमा अगले दो दिन भी जारी रहती है। चतुर्दशी को कान्हा के झूले की झांकी निकलती है। यह झांकी यहां के तालाब में मटकों पर बांस की टाटी बांधकर दिखाई जाती है। इसी दिन रात के समय सनकादिकों की लीलाएं आरंभ होती हैं। सबसे पहले गणपति का दृश्य मंचित होता है। उसके बाद सनक, सनंदन, सनातन और सनतकुमार आते हैं। इन सभी के अंबाड़ी (सण घास) की दाढ़ी और जटाएं होती हैं और शरीर पर चंदन का लेप होता है। ये सभी अपने हाथों में भाला और कमंडल लिए हुए प्रवेश करते हैं। वाद्य के रूप में नगाड़ा बजाया जाता है। नृसिंहावतार हिरण्याकश्यप को मार भगाते हैं। लीला के अंत में वराहवतार आते हैं जिनके हाथों हिरण्याकश्यप का वध होता है।

इन पौराणिक लीला-दृश्यों को देखकर दर्शक साक्षात भगवान के दर्शन होने जैसा सुख अनुभूत करते हैं। लीला में भाग लेने वाले सभी अभिनेताओं को मुख्य भगत की तरफ से ‘सण का गूंथड्या’ (सण घास की पूली) दी जाती है। अवतारों को भूमिका निभाने वाले पात्रों के मुख पर मुखौटा लगा होता है। इन मुखौटों को भगतजी के मंदिर में सुरक्षित रखा जाता है। अंतिम दिन पूर्णिमा को रासलीला खेली जाती है।

सनकादिक लीला के आयोजन के तीनों दिन बड़ा जनसमूह उमड़ता है। इन दिनों कुछ अविवाहित युवा भी कन्याओं से जानकारी करके अपने विवाह का प्रयास भी करते हैं। इस प्रकार यह लीला धार्मिक महत्त्व रखने के साथ-साथ लोकानुरंजन करने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।
 
बसी की सनकादिक लीला
बसी में सनकादिकों की लीलाओं का मंचन किया जाता है जो शैली की दृष्टि से घोसुंडा की लीलाओं से कुछ अलग हैं। बसी की लीला का आयोजन कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को किया जाता है। इसमें गणेश, ब्रह्म, कालिका, गोरा, काला, हिरण्यकश्यप, नृसिंहावतार आदि की झांकियां निकाली जाती हैं जो विशेष आकर्षण का केंद्र होता है। इन झांकियों में अवतारों का अभिनय करने वाले पात्रों के मुख पर मुखौटा लगा होता है।

आजकल आठ-दस व्यक्ति बाबा का वेश धारण करके मंदिर से बाहर निकलते हैं और पूरे गांव की परिक्रमा करते हैं। इन सभी के तन पर खड़िया मिट्टी का लेप किया होता है। इन सभी की दाढ़ियां और जटाएं सण घास से बनी होती हैं। इन्हीं में से एक अभिनेता ‘बुढ़िया’ के रूप में होता है जो काले वस्त्र धारण किए होता है। उसके हाथ में तंबाकू सूंघने की डिबिया होती है जिसमें गधे की लीद भरी होती है। ये सभी पात्र गांव में घूमते हैं और रास्ते में मिलने वाली स्त्रियों को वह बुढ़िया गधे की लीद सुंघाती जाती है। यही नहीं, पूरे मार्ग में प्रसाद के रूप में भी इसे ही बांटा जाता है। सभी अभिनेताओं के मुख पर खड़िया मिट्टी का लेप होता है। बसी की लीला का नूरिया-बादरिया खेल भी बड़ा लोकप्रिय है। इसमें नूरिया नाई और बादरिया बादशाह की भूमिका निभाकर लोगों को आल्हादित कर देते हैं। ये दोनों पात्र एक दूसरे की टोपी पर मंत्र मारने, अपना स्वार्थ साधने और वाहवाही लूटने में अपना हुनर प्रदर्शित करते हैं। वस्तुत: सनकादिक लीलाएं लोकजीवन में धार्मिक आस्थाओं को संबल देने के साथ-साथ उनके मनोरंजन में भी खास भूमिका निभाती हैं।
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