लोक मांडणां रो तात्त्विक अध्ययन कर्‌यां सूं ठाह लाग्यो कै आं रो सनमन लोक देवतावां री रिछ्या करणवाळी सगती सूं है। भींतां माथै चितराम मांड आ कामना करी जावै कै आखै कड़ूंबै रा मांगळिक अर दूजा अेढ़ा बिना किणी खोरसल रै सलटै अर रोजीनां घर मांय सुख-सौमती बणी रैवै। परिवार-कड़ूंबै हेत-हिंवळास अर मिनखां रा डील सपोसा रैवै।

ओ मान्यो गयो है कै देवता सोहळ कला औतारी होवैस बां री सगती सोळह कलावां मांय बंट्योड़ी होवै। जिण देवता मांय आखी सोळह कलावां मांय सूं कीं कलावां होवै बै ‘पूरण कला मूरती’ बाजै अर जिकां मांय सोळह कलावां मांय सूं कीं कलावां खंडत होवै बै ‘अंश मूरती’ अर बां सूं ई कीं कम कला सगती होवै बै ‘अंशाश मूरती’ कैवाइजै। इण ऊपरली धारणा रो अरथाव ओ होवै कै देवता री कला बां री सगती ई है। देवतावां री मूरतां अर बां रा चितराम-मांडणा भी सगती संबळित होवै – अैड़ो विसवास लोक मांय मान्यो जावै।

लोक मांडणा कोरणवाळी लुगायां पण इण पतियारै सागै मांडै कै बां री आ कला दैवीय गुणां सूं भरी-पूरी है। आं नैं कोर्‌यां देवी-देवता राजी होवै – बै म्हैर करै, तूठमान होवै। देवतावां री संकळाई करड़ी होवै। मन मांय अेड़ा भाव होवण सूं मांडणियो उछाव सूं मांडै। लोक मांडणां मांडणियै री मन इंछावां ठीक वैड़ी ई होवै जैड़ी मिंदर मांय बोलवा कै धोक देवणियै मिनख री होवै।

माड़ी-मुरदी बुद्धि सूं लोक मांडणा री कला नैं समझी नीं जा सकै। दीखण मांय तो मांडणा लोक चित्रशैली रो अेक सामान्य-सी रूप लखावै। थोड़ा-सा रंगा मांय कोर्‌योड़ा अै मांडणा, सहज ई देखणियै नैं लुभावणा, नैण मोवणा लागै पण आं री लीकट्यां मांय कोरणियै रै अंतस रा भाव लुक्योड़ा रैवै।

कोई ओ समझै कै आंगणै कै भींतां माथै मंडयोड़ा मांडणा फगत घर री सोभा अर सिणगार है तो उणरी समझ मोटी है। हरेक चितराम कीं न कीं बात कैवै जणां मांडणा कोई फालतू री आडी तिरछी लीकट्यां किण भांत होय सकै?

मांडणा आदू समाज सूं अबार तांई रै जुग री सब सूं लांबी चितराम जातरा रा सागड़ी है। आदू मिनख रै मन मांय कला नैं परगट करण रा विचार आया तो भांत-भांत रा कला रूप साम्है आया। पण अेक संका आ बण्योड़ी है कै पैली लेखण-कला जामी कै चितराम-कला? इण पेटै हरेक उथळो उणमान रै उणियार ई दिन्हो जाय सकै। चितराम लिपि सूं आखर लिपि बणी, ओ कैयो जावै, पण जापान-चीन जियांकला कितरा ई मुलकां री भासावां चित्रलिपि मांय मांडी जावै।

भारत रा, खास कर राजस्थान अर हिमाचल रो लोक मांडणा जोवां तो बां माथै किणी चितराम लिपि रो असर-सो लखावै। गोबर सूं बणायोड़ा गोगाजी, घोड़ा, खेजड़ी रो रूंख, सूरज-चांद जियांकला आखा लोक चितराम आडी-तिरछी कै सीधी लीकट्यां रै जरियै बणाया जावै। जदकै चितराम-कला री बाकी सैंग विधावां मांय गोळ घुमाव होवै।

चितराम मांडण री हटोटी हरेक मिनख मांय नीं होवै, इण वास्तै हरेक मिनख चित्रकार नीं होवै, पण लोक मांडणा जिका कै लुगायां माडै, बै इण विधा मांय अदक्ष होवतां थकां अेकर देख’र मांडणा सीख जावै। पैली हरेक कच्चै घर रै आंगणै, भींतळ्यां, दरूंजां माथै, घर मांय रैवणवाळी लुगायां री रुचि मुजब मांडणा कोर्‌या जावता। ज्यूं-ज्यूं पक्का घर अर घर मांय ऐश्वर्य आवतो जावै, इण विधा रो लोप होवतो जावै। इण रो कारण ओ होवै कै पक्का घरां मांय नूंवां सिंथेटिक रंग कर्‌या जावै, उण में गोबर, गैरूं अर धोळी रा मांडणा कोई मांडणा नीं चावै। आखै संसार मांय मांडणा रै रूप मांय आ लोक चित्रशैली घणकरी आदू प्रभाववाळा समाजां मांय ई जीवती रैयी है। इण जुग अटावरी जीवण शैली मांय जूण बितावणवाळा लोग इण सूं कटता जाय रैया है।

राजस्थान रै लगैटगै आखा अंचलां मांय, रंगोळी, चौक, मांडणा मांडण रो रिवाज रैयो है। न्यारा-न्यारा हल्कां मांय थोड़ो शैलीगत फरक अवस भाळ्यो जा सकै। इण रो कारण ओ रैयो कै स्थानीय वनापाती, जीव-जंत अर देव स्तुति रो प्रभाव आं लोक मांडणा माथै गैरो पड़्यो। मेवाड़ रै पहाड़ी हलकै मांय खेजड़ी रो रूंख नांव मात्र रो होवै, इण वास्तै अठै रा लोक मांडणा मांय खेजड़ी रो रूंख नीं कोर्‌यो जावै। जद कै शेखावाटी, बीकानेर, जोधपुर, नागौर मांय जूझारजी, भोमियाजी आद देवतावां नै धोकण रो रिवाज रैयो है। आं सगळां रा मांडणा मांड’र धोक्या-पूज्या जावै। बारली भींतळ्या, बूहा माथै आं लोकदेवतावां रा घणकरा मांडणा गाय रै गोबर सूं मांडण री परंपरा रैयी है। आं सगळां देवतावां पेटै आ मानता रैयी है कै अै सांपां सूं रिछ्या करै। इण खातर आं मांडणां मांय लोकदेवतावां नैं घोड़ै माथै असवार, हाथ मांय भालो, ऊपर सूरज री साखी, साम्है खेजड़ी रो रूंख अर डावै-जीवणै सांपां नै कोर्‌या जावै। अै देवता भलां ई न्यारा-न्यारा है, पण मांडणां री रूपवस्तु लगैटगै अेक जैड़ी होवै। बारली भींतळ्यां रा मांडणा गोबर सूं होवै, जदकै मांयली भींता रा मांडणा धोळक (धोळी माटी), राती माटी अर मेंहदी सूं बणाया जावै। कूंकूं अर मेंहदी रा मांडणा कमरां रै मांय बणाया जावै। आं बरसां मांय कागद कै प्लास्टिक माथै छप्योड़ा मांडणा ई मिलै, जिकां नै चावै जठै चिपकाया जावै। कच्चा घरां मांय तो आज ई पैली री ज्यूं गोबर, धोळी, राती माटी सूं मांडणा मांड्या जावै।

मांडणा घणकरा किणी परब, उछब कै मंगळ टाणै ऊपरां ई कोर्‌या जावै। धारमिक उछब उपरां मांड्या कोरणा नैं ई अेक धारमिक क्रिया ई मानी जावै। इण मानता रै कारण ई मांडणा माड़ै-मुरदै रूप मांय जींवता रैया है। मांडणा मांड्यां पछै बिना किणी कारण बां नैं मिटाया जावणो चोखो सुगन नीं मान्यो जावै। बै जद ई भजाण्या कै पछै घर री भींता नैं लूखी राख्यां देवता दोस कर देवै। घर मांय देवता रो वासो नीं रैवै।

जिका घरां मांय ब्याव-अेढो होवै, बां घरां रै अेक कमरै मांय ‘माया’ री थापना करी जावै आ ‘माया’ ई मांडणां रै जरियै ई अभिव्यक्त होवै। ‘माया’ असल मांय सुभ करणवाळी देवी है, जिकी बन्ना-बन्नी नैं सौभाग बगसै। बन्ना-बन्नी रै हाथां रा छापा ई इण ‘माया’ रै नेड़ै ई लागै। ब्याव सुख-सौमती सागै निवड़ै जणा बींद-बींदणी माया आगै बैठ’र धोक देवै।

टाबर जामै जणा जापा ओबरी मांय ई बै’माता मांडणा रोळी सूं मांडण री रीत रैयी है। आ बै’माता ई नवजात रो भाग मांडै। अै मांडणा छठी रै दिन मांड्या जावण री परिपाटी रैयी है। इण भांत मान्यो जावै कै छठी री रात बै’माता आय’र सुलेख लिखै, जिणनैं भाग री ओळ्यां कैयो जावै। इण भांत मान्यो जावै कै छठी री रात बै’माता आय’र सुलेख लिखै, जिणनैं भाग री ओळ्यां कैयो जावै। इण रात बै’माता मांडणै आगै अेक पाटै माथै अष्टगंध री स्याही, अनार रो डोको (कलम) धर दी जावै। आजकालै स्याही-कलम री ठौड़ सामान्य पेन धर दियो जावै, पण अस्पतालां मांय जलमणवाळै टाबरां सारू आ क्रिया नीं होय सकै। नांवकरण संस्कारवाळै दिन जच्चा टाबर नैं खोळ्यां मांय लेय, नांव सूं पैली न्हाय-धोय पैली बै’माता रै सैमुंडै बैठ’र टाबर रै मंगळमय जीवण री कामना करै।

गणगौर रा मांडणा धोळी (धोळक), गोबर अर छाछ सूं बणाया जावण रो रिवाज है। गणगौर रो पूजण करणवाळी सवासणियां अर बीनण्यां ई घणकरी होवै। बडेरी लुगायां तो आं रो सैयोग करै। मानता है कै गणगौर रै पखवाड़ै मांय गवरजा पूजण कुंआरी डावड़ियां आछै घर-वर री इंछा सूं करै। खुद तक जनक लाडली सीताजी ई इयां कर्‌यो हो। डावड़ियां चेत री अेकम (प्रतिपदा) सूं गवरजा पूजण सरू करै। गवर पूजण मांय ‘फुलड़ां’ रो खास मैतब है। फुलड़ा चुगण वास्तै बै बागां कै बन मांय दिनुगै मुंअंधारै जावै अर फुलड़ां रा गीत गावती जावणो-आवणो करै। फुलां अर छाछ रै छांटां सागै उण ठौड़ पूजन कर्‌यो जावै जठै गवरजा अर ईसरदासजी रा मांडणां मंड्‌योड़ा होवै। अठै जिका फुलड़ा भेळा होय जावै बां नै गवरजा बोहळावण रै दिन उठाया जावै। गवरजा अर ईसरदास रै मांडणां आगै आखै पखवाड़ै सिंझ्या रा ‘धूपा’ दिया जावै अर इणी बगत गवरजा री पुजारणियां न्यारै-न्यारै दिन ‘गौर बनोरो’ निकाळै, जिणमें मिठाई रो भोग लागै। ओ परसाद पछै गौर पूजणवाळी डावड़ियां मांय बांट दिन्हो जावै। इण भांत दिनुगै-सिंझ्या री गवरजा पूजण री आखी क्रियावां आं मांडणा आगै करीजै अर खूब गीत गाइजै। गवरजा, गणगौर, गौर– ओ मां दुरगा रो रूप है, पण गणगौर रा मांडणां मांय सगती रो प्रतीक त्रिशूळ कै सिंघ री सवारी रो रूप कदैई चित्रित कोनी कर्‌यो जावै जदकै नवरात्रा थापना रै मांडणां मांय सैंगां सूं पैली देवी रै त्रिशूळ रूप नै ई कोर्‌यो जावै।

दीवाळी रै मौकै आंगणां मांय राती-धौळी रा चौक पूर्‌या जावै अर उणरै आगै कूंकूं रा पगलिया ई मांड्‌या जावै जिका लिछमी मात रै पधारण रा प्रतीक होवै। जद लिछमी पूजण रो बगत होवै, ठीक बीं बगत घर री बडेरी लुगाई आपरै हाथां सूं सुभ साखियो बणायां पछै पूजन रै कमरै मांय कूंकूं-रोळी सूं लिछमीजी कोरै अर उणरै नेड़ै बजार सूं मंगायोड़ो लिछमी पानो चेपै। न्यारा-न्यारा हलकां मांय कीं और पानां चेपण री ई परंपरा रैयी है अर कीं और मांडणा ई मांड्‌या जावै। लिछमीजी रो मांडणों कूंकूं सूं बणायां पछै बां रै पगां हेटै चांदी रै रिपियां री सात छापां लगावै। लिछमी पूजन री ठौड़ माथै ई मांडणा मांड्‌या जावै, पण घणकरी ठौड़ तो गोबर नैं परबत रूप थापना कर झांझरकै गोरधन पूजा करी जावै।

सीतळा सात्यूं रै दिन परींडै मांय सीतळा मांडी जावै। सीतळा माता रो रूप होवै। सीतळा रा मांडणा गोबर सूं मांडण रो रिवाज हो, पण अबै मेंहदी अर रोळी सूं मांड्‌या जावै। चूल्है री राख सूं पींडिया बणाय आं मांडणां रै साम्है राख्या जावै अर उण मांय बूर रा तिणकला ई रुप्योड़ा होवै। मांडणां रै हेटै राख री सात बिंदियां लगाई जावै। जिका ठंडा बासणां मांय पाणी कै भोजन राख्यो जावै, वां ऊपरां ई बिंदियां लगावण री परापरी रैयी है। सीतळा रै मांडणां मांय बां री असवारी रासभियै नैं ई मांड्‌यो जावै।

गोगानम्यूं रै मांडणा मांय सबसूं पैली अेक खेजड़ै रो अंकन भींत माथै कर्‌यो जावै, उणरै साम्है घोडै असवार गोगाजी मांड्या जावै। बगल मांय अेक सांप कोर्‌यो जावै। इणी भांत दूजोड़ा जूझार लोकदेवता बिग्गाजी, तेजाजी अर केसरा कंवर रै मांडणा री सूरतां ई लगैटगै अेक जैड़ी ई होवै। मानता है के आं सैंग लोकहित मांय आपरै प्राणां री बलि दिन्ही। आ पण मानता है कै अै देवता अैरु कांटै (सांप) सूं रिछ्या करै। भोमियाजी री जद कड़ाही करी जावै तो बां नै घोड़ै माथै सवार जोधा रै रूप मांड्या जावै अर बां रै ऊपर सूरज-चांद साखी रै रूप मांड्या जावै। सूरज-चांद बांरै तेज रो प्रमाण है। नाग पांच्यूं माथै गोबर अर धोळक सूं नाग रा चितराम बणाया जावै, उण माथै दूध रो परसाद चढायो जावै। गोगा नम्यूं रै भांत इण दिन ई खीर-चूरमै रो परसाद चढायो जावै।

पुत्र इंछा रै सागै लुगायां आस माता रो व्रत करै। आथूणै राजस्थान मांय आसमाता री कथा किणी खेजड़ै रै हेटै भेळी बैठ लुगायां सुणै। खेजड़ै माथै चितराम कोरणो संभव कोनी होवै, इण वास्तै साखियो कोर्‌यो जावै अर कूंकू-काजळ बिंदियां (टीक्यां) मांडी जावै। खेजड़ै रै मौळी बांधी जावै। सूरज रोटियै रो व्रत ई इणी विधि सूं कर्‌यो जावै। सकरायंत, भाईदूज, होळी, करवाचौथ जियांकला त्यूहारां माथै ई मांडणा मांडण री परापरी राजस्थान मांय रैयी है।

मांडणा कला नै कायम राखण खातर इणनैं धारमिक परब-उछब, त्यूंहारां अर लोकविस्वासां सूं जोड़ दिन्ही। मांडणां माथै कोई पग नीं धरै, क्यूकै इण सुं कुसूण होवण रो भै रैवै। मांडणा सुभाग रा प्रतीक होवै, ओ विस्वास लुगायां मांय आज ई जड़ां जमायोड़ो है। ओ ई कारण है कै चतर अर संस्कारी लुगायां सदा आपरै आंगण मांय रूपाळा चौक बणायां राखै अर भींतां नैं मांडणां सूं सजावै। शेखावाटी मांय आखी हवेल्यां नैं चितरामां सूं कोरण रो रिवाज हो। इण चितराम कला मांय ई लोक मांडणा शैली नैं जोयी जा सकै। हरेक धनवान मिनख आपरी हेली नैं चितरामां सूं सजातो। आं चितरामां रै बारलो बॉर्डर (सांकळी) तो मांडणां सूं ई बणायो जावतो। खंभां माथै ई मांडणा मांड्या जावता।

मांडणां मांय सैंगां सूं बेसी मांडणां आंगण मांय बणाया जावणवाळै चौक रा होवता। चौक मांडण मांय भरपूर विविधता होवती। आजकालै तो अै चौक प्लास्टिक कै कागज माथै न्यारै-न्यारै रंगा मांय छप्ययोड़ा मिलण लाग्या है, पण आपरै हाथ सूं जिका चौक पर्‌या जावै, उणरी होड़ कोई नीं कर सकै। लुगायां आळां, गोखां, दरवाजां माथै ई मांडणा मांडै। मांडणां री बंदणवार बणावै, साखिया, थाळी, चांद, सूरज, पगल्या बणावै। हाथां मांय सजाई जावणवाळी मेंहदी नैं पण मांडणा ई कैया जावै, क्यूंकै रेखांकन री शैली मांडणा री है।

मांडणां मांय कला रा उळझाव नीं होय’र सरल अभिव्यक्ति होवै, फेरूं ई मन रै उछाव नैं परगटावै। सब नैं लुभावै। मांडणां रो चलस तद सूं ई सरू होयग्यो हो जद जिग सरू होया। रिखवरां री डावड़ियां जिगवेदियां रै नेड़ै मांडणा बणावती। उल्लेख लाधै कै ब्रह्मसूत्र रा टीकाकार वाचस्पति मिश्र री धणियाणी भामती ई उणरै कन्नै आवणवाळी मैथिल डावड़ियां सूं अल्पनावां अर मांडणां मांडणा सीखती। मांडणा मांड्यां सूं मन राजी होवै। इण खातर कैयो पण गयो है कै कला रो आणंद ग्यान रै आणंद सूं सिरै होवै। मांडणां कला माथै अध्ययन तो करीज्यो है पण उणनै पूरसल नीं कैयो जा सकै, क्यूंकै आ विद्या लोक जितरी ई व्यापक अर विस्तारवाळी है। लोककलाविद् डॉ. महेंद्र भानावत रो मत है कै ‘गैरै अध्ययन री ललक होवै, बगत होवै, साधन-सुविधा होवै, लोक नजरियो होवै, लोक मांय खुदोखुद नैं खपा देवण री मरजी होवै तो इण अध्ययन रो आखो आणंद उठायो जा सकै।’
स्रोत
  • पोथी : इंदरधनख ,
  • सिरजक : चेतन स्वामी ,
  • प्रकाशक : बालाजी प्रकाशन, फतेहपुर शेखावाटी ,
  • संस्करण : प्रथम
जुड़्योड़ा विसै