लोकनाट्य रासलीला में श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अभिनय किया जाता है। साधारणतया उसे रासलीला कहा जाता है जिसमें कृष्ण और गोपियों की लीला का वर्णन हो। यह नाट्य भागवत के दसवें स्कंध पर आधारित है। रासलीला के उद्भव के संबंध में श्रीमदभागवत में एक कथा है जिसके अनुसार राधा और दूसरी गोपियों में गर्व भाव पैदा होने के बाद कृष्ण ओझल हो जाते हैं। उसके बाद वियोग में गोपियां कृष्ण को याद करके उनकी लीलाओं की नकल करने लगीं। उनकी विरह-व्याकुल देखकर कृष्ण प्रकट हो जाते हैं और उन्हें संयोग सुख देते हैं।
कृष्ण-लीला या रासलीला प्रमुख रूप से मथुरा, वृंदावन, करौली, धौलपुर, भरतपुर आदि बृजभाषी क्षेत्रों में प्रचलित है। रासलीलाओं में बृज लीला, चंद्रावल, माखन लीला, पनघट लीला, बाल लीला आदि के आख्यान मंचित किये जाते हैं।
राजस्थान में यह लीला दो रूपों में विकसित हुई – पहली मंदिरों में और दूसरी लोकजीवन में। मंदिरों में इसे सर्वप्रथम वल्लभाचार्य ने गीतिनाट्य के रूप में विकसित किया। वहीं लोकजीवन में रासलीला आरंभ करने का श्रेय कुमावतों को दिया जाता है। लगभग सौ वर्षों पहले शिवलाल कुमावत ने इसे खास स्वरूप प्रदान किया। वे उगरिया गांव का निवासी थे। उनकी संगीत पर भी खूब पकड़ थी। शिवलाल ने रासलीला को संगीत और ताल के साथ विविध राग-रागिनियों में ढाला और नृत्यों को शास्त्रीय रूप दिया। वे बेहतरीन ख्याल रचनाकार भी थे। उनकी लिखी रासलीला ‘उदयलीला’ काफी लोकप्रिय रचना रही थी। उनके बाद ईसरराम और उनके पुत्र मोतीलाल भी रासलीला के प्रसिद्ध कलाकार हुये।
रासलीला में प्रमुखतया कृष्ण की विविध लीलाएं दिखाई जाती हैं। इसके दो भाग माने जाते हैं – 1. मूल रास और 2. अंश रास। मूल रास में कृष्ण और राधा की झांकियां दिखाई जाती है। राधा की सखियां उन दोनों की आरती करती हैं। इसके बाद कृष्ण राधिका से रास मंडल चलने को कहते हैं। धमार (फाल्गुन का विशेष राग) पर कृष्ण और गोपियां नृत्य करती हैं। अंश रास में अनेक झांकियां दिखाई जाती है। यहां रासलीला का एक प्रसिद्ध अंश प्रस्तुत है –
रास कुंजन में ठहरायो, रास कुंजन में ठहरायो।
श्याम म्हारो अब तक नहीं आयो॥
राधा सोच करे अति मन में किण ने बिलमायो रे
कन्हैया किण बिलमायो?
नाजुक कित गयो सांवरो म्हारो अब तक नहीं आयो॥
इतने में जब बजी बांसुरी कूंजन धरणायो रे
कन्हैया कूंजन धरणायो।
डाल-डाल और पात-पात पे श्याम नजर आयो॥
कोई ताल भ्रन्दगी ल्यायो कोई डफ ल्याओ
कन्हैया कांई डफ ल्याओ?
दे दे ताली नाचे श्याम म्हारो कैसा रंग छायो
बैठ वेवाण देव सब देखे गोपियां मन भायो॥
कन्हैया गोपियां मन भायो
तारा मंडल उग्यो चंद्रमा वो भी शरमायो॥
रासलीला में भाग लेने वाले अभिनेताओं को ‘स्वरूप’ कहा जाता है। ये सभी रास की परंपरागत शैली पर पांवों के टुकड़े निकालते हुए उठक-बैठक लगाते हैं। कृष्ण उड़िया खाते हैं, सिर के बल जमीन छूते हैं और घुटनों की सहायता से चकरियां भरते हैं। रास समाप्ति के उपरांत राधा-कृष्ण के भावपूर्ण नृत्य दिखलाये जाते हैं। रास में मुख-सज्जा के लिए मुरदासिंगी, हल्दी, चंदन और परेवा का उपयोग किया जाता है। रासलीला को कृष्ण के बृज-प्रवास के समय की सरस कथा कहा जा सकता है। यह शृंगारिक क्रीड़ाओं का ऐसा भावपूर्ण मंचन है जो लोकजीवन में उल्लास का संचार कर देता है।