राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र वागड़ (डूंगरपुर-बांसवाड़ा) में संत मावजी की स्मृति में साद (बुनकर) लोग रास मंडल रचाते हैं। आदिवासी भील समुदाय संत मावजी को कृष्ण के अवतार के रूप में पूजते हैं। मावजी ने कृष्ण की लीला मंचित करने के लिए साद (बुनकर) लोगों को मुकुट और घाघरा भेंट किया था। इस रास में श्रीकृष्ण की भूमिका निभाने वाला पात्र घाघरा  पहनता है एवं अन्य पात्र अपने पांवों में घुंघरु बांधते हैं। मंचन के समय दोहे और साखियां गाई जाती हैं। आदिवासियों का कुम्भ कहे जाने वाले बेणेश्वर मेले में आने वाले हजारों लोग इस रास का मंचन देखकर खुद को भाग्यशाली समझते हैं। कुछेक लोग अपनी मन्नत पूरी होने पर भी इस रास का मंचन कराते हैं। लोकमान्यता है कि यह रास करवाने से सभी प्रकार का दुख एवं संकट दूर हो जाता है।

इस रास के समस्त संवाद राजस्थानी की वागड़ी (भीली) बोली में हैं। संत मावजी बड़े चमत्कारी पुरुष थे। अपने समय में वे खुद कृष्ण की भूमिका निभाते, घाघरा पहनते और मुकुट धारण करते थे। रासमंडल के आयोजन के पीछे धार्मिक आस्था, मनोकामना की पूर्ति और संतान प्राप्ति की इच्छा शामिल होती है। इस लीला में कृष्ण के अलावा राधा, नारद, विश्वामित्र और रुक्मणी प्रमुख पात्र होते हैं। वाद्यों में मृदंग और झांझ बजाए जाते हैं। संत मावजी ने अपने समय में बड़े सामाजिक सुधार किए और आदिवासी समुदाय में नैतिक एवं धार्मिक सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया। उनकी साधना-स्थली बेणेश्वर था। यह चारों तरफ से नदियों के पानी और सरोवरों से युक्त रमणीक स्थान है। यहां बेण वृक्षों की बहुतायत थी जिसके आधार पर इस स्थान का नाम बेणसर (बेणेश्वर) पड़ा। इस निर्जन और चिंतन लायक स्थान पर मावजी ने कृष्ण से साक्षात्कार किया।

संत मावजी ने अपने हृदय के भावों को लिखने का अनूठा तरीका अपनाया। किवदंती है कि उन्होंने आंखों की भौंहों से काफी महीन अक्षर लिखे और वहीं अंगुलियों की सहायता से बड़े अक्षर भी लिखे थे। ऐसा भी कहा जाता है कि मावजी ने अपने हाथ और पांव के अंगूठे से भी लेखन किया था एवं बालों की चोटी के सहारे इस लीला के चितराम उकेरे थे। हालांकि मावजी का लिखा यह मूल ग्रंथ देखने को नहीं मिलता। उनके शिष्यों ने उनके लिखे के आधार पर ‘मावजी के चोपड़े’ की रचना की। मावजी ने लगभग सात सौ ग्रंथों का सृजन किया था। उनके रचे भविष्यवाणियों पर आधारित ग्रंथ को ‘मावजी की भाखणी’ कहा जाता है।

कहा जाता है कि मावजी ने अपनी वाणी केवल तीन दिनों में लिखी थी। इसके चार भाग अभी भी उपलब्ध हैं। ये चोपड़े ‘सागर’ कहलाते हैं। इन्हें पवित्र ग्रंथ की भांति पूजा जाता है। मावजी के भक्त इन चोपड़ों का वाचन करवाने के लिए मंदिर के मठाधीश को आमंत्रित करते हैं। इस परंपरा को ‘पधरावण’ कहा जाता है।

लोकमान्यता है कि वृंदावन में जो रासलीला अधूरी रह गई थी, उसे गोपिकाओं के निवेदन पर पूरा करने के लिए कृष्ण ने मावजी के रूप में अवतार लिया। मावजी के चोपड़ों की भांति बारहमासा काव्य में कृष्ण ने मावजी का रूप धारण करके गोकुल-मथुरा के रास को बेणेश्वर में पूरा किया। मावजी के बारे में ऐसी अनेक किवदंतियां लोकप्रचलित हैं।

मावजी ने रासलीला के प्रदर्शन का अधिकार साद लोगों को दिया था जिसे आज भी ये लोग धार्मिक अनुष्ठान की भांति निभा रहे हैं। मावजी के भक्त मनोकामना पूरी होने पर साद लोगों को बुलाकर रात्रि जागरण करवाते हैं।

मावजी के चोपड़ों में रासलीला के बड़े रंगीन और मनमोहक चित्र मिलते हैं। इसमें कृष्ण यानि मावजी लाल वस्त्र का लंबा चोगा पहने हुए होते हैं। उनके सिर पर शोभायमान लाल पगड़ी और आभूषणों से सज्जित छवि दर्शकों का मन मोह लेती है। उनके साथ राधा, गोपिकाएं और कुब्जा आदि पात्र भी रंग-बिरंगी छींट के मनभावन चटकीले वस्त्र एवं आभूषणों से सजे नजर आते हैं। माव लीला के सभी चित्र प्राकृतिक वातावरण को प्रकट करते हैं। इनकी पृष्ठभूमि में पशु-पक्षियों का विचरण, चहक-महक, पेड़-पौधों और फूल-लताओं की हरियाली, बेणेश्वर मंदिर, कल-कल करते नदी-नाले आदि के चितराम प्रत्येक दर्शक को मंगलकारी प्रतीत होता है।

माव लीला का मंचन करने वाली जाति साद मूलत: मथुरा की रहने वाली थी। आजकल ये डूंगरपुर, कनवा, साबला और थाणा में बसे हुए हैं। यहां यह उल्लेखयोग्य है कि सभी प्रकार की लीलाएं प्रदर्शित करने का अधिकार केवल ऊंची जातियों के अभिनेताओं को ही था। संत मावजी ने इस एकाधिकार को खत्म करने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाया और लीलाओं के मंचन का अधिकार बुनकर जाति के लोगों को दिया एवं उनसे कृष्ण-लीला का मंचन करवाया। ये आरंभिक अभिनेता ‘साद’ नाम से जाने गए। इस लीला में कृष्ण के जीवन से जुड़े विविध प्रसंग मंचित किए जाते हैं पर अधिकतर नाट्यों में मावजी को कृष्ण स्वरूप में दिखाया जाता है। माव लीला आदिवासी क्षेत्र में एक धार्मिक अनुष्ठान की भांति मान्यता रखती है जो राजस्थान के साथ-साथ गुजरात और मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में भी काफी लोकप्रिय है।

जुड़्योड़ा विसै