खेजड़ी को राजस्थानी वानिकी का प्रतीक वृक्ष माना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस सिनेरिया है। संस्कृत में इसे ‘शमी’ कहते हैं। राजस्थान की आंचलिक भाषा में ‘जांटी’ नाम से जाना जाता है। खेजड़ी के पेड़ की लंबाई 3 से लेकर 7 मीटर तक होती है। यह शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों, मुख्यतः थार रेगिस्तान के पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। खेजड़ी पाले और सूखे की प्रतिरोधी है और गर्मियों में 40-45 डिग्री तापमान से लेकर सर्दियों में 10 डिग्री सेल्सियस से भी कम तापमान को सहन कर सकती है। इसका पेड़  अल्पतम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी फल-फूल जाता है। खेजड़ी की जड़ें प्रभावी मृदा-बंधक के रूप में रेतीली मिट्टी को थामकर अपरदन से रोकती हैं।

खेजड़ी की जड़ें लंबी और सुविकसित होती है जो जमीन में गहरे तक जाकर भूमिगत जल को ग्रहण करती हैं। इस पेड़ की बढ़वार धीमे-धीमे होती है। पतझड़ के बाद खेजड़ी पर गर्मियां शुरू होने से पहले नई पत्तियां आती हैं जिनकी लंबाई 3-4 सेमी तक होती है। इसकी टहनियों पर पत्तों के साथ छोटे-छोटे शंकुकार कांटे भी लगते हैं। खेजड़ी पर मार्च-अप्रैल माह में पीले और सफेद मलाईदार रंगत के फूल खिलते हैं। ये परिपक्व होने के बाद बेलनाकार आकृति के फल में बदलते हैं। इन फलों की शुरुआती हरी अवस्था ‘सांगरी’ और पकने के बाद ‘खोखा’ कहलाती हैं। ये फलियां 20 सेमी तक लंबी होती हैं। ‘सांगरी’ से सब्जी बनती है जो खाने में बेहद लजीज होती है। सांगरियां पकने के बाद पीली हो जाती हैं जिन्हें खोखा कहा जाता है। इनका स्वाद मीठा होता है और इसे बड़े चाव से खाया जाता है।

लोकजीवन और खेजड़ी

खेजड़ी जड़ से लेकर फली तक किसी न किसी रूप में उपयोगी है। इसे राजस्थान का 'राज्य वृक्ष' घोषित किया गया है। अनेक उपयोगिताओं के कारण खेजड़ी को ‘रेगिस्तान का कल्पवृक्ष’ भी कहा जाता है। यह ‘रेगिस्तान का राजा’ और ‘अद्भुत वृक्ष’ भी कहलाता है।
खेजड़ी राजस्थानी लोकजीवन में विविध लोकाचारों और क्रियाकलापों से जुड़ा हुआ पवित्र पेड़ माना जाता रहा है। यहां के लोकजीवन में खेजड़ी जन्म से लेकर सभी जीवन-संस्कारों में भूमिका निभाती है। यथा : पुत्र जन्म और विवाह का लग्न तय होने के बाद बधाई देने के लिए भेजा जाने वाला बधाईदार अपने साथ खेजड़ी की छोटी हरी टहनी ले जाता है। वहीं विवाह के अवसर पर दूल्हा वधू के घर के मुख्य द्वार पर पहुंचने के बाद तौरण मारने की रस्म अदायगी खेजड़ी की छोटी टहनी से ही करता है।   
अपने विविध उपयोगों के कारण खेजड़ी सदियों से कृषि वानिकी में खास रही है। यह वृक्ष पौष्टिक, अत्यंत स्वादिष्ट हरा और सूखा चारा ‘लूंग’ प्रदान करता है जिसे ऊंट, मवेशी और भेड़-बकरियां चाव से खाते हैं। काले हिरण, चिंकारा, नीलगाय और खरगोश जैसे शाकाहारी जंगली जानवर भी इस चारे को बहुत पसंद करते हैं। खेजड़ी के पेड़ पर चींटियों और भृंगों की कई प्रजातियां रहती देखी जा सकती हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि से खेजड़ी नाइट्रोजन-स्थिरीकरण करने वाला पेड़ है जो मिट्टी की उर्वरा क्षमता बढ़ाती है। इसके नीचे और आसपास उगी हुई फसल का उत्पादन अधिक होता है। वहीं खेत की सीमा पर बाड़ के रूप में खेजड़ी प्रभावी वायु अवरोधक के रूप में काम करती है।

खेजड़ी का जिक्र राजस्थानी लोकजीवन की अनेक किवदंतियों में मिलता है। सन 1899 और 1939 के भीषण अकालों के दौरान यहां के लोगों ने इसकी छाल और खोखे खाकर उदरपूर्ति की थी। खेजड़ी को यहां के जनजीवन में सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। यहां के लोकदेवी-देवताओं के छोटे मंदिर (थान) और देवरे इसी पेड़ के नीचे बने होते हैं। राजस्थानी लोग इस वृक्ष की रक्षा करना और इसे संरक्षित रखना अपना धर्म समझते  हैं।

खेजड़ली हत्याकांड : पहला रक्तरंजित पर्यावरण संरक्षण आंदोलन

आज की युवा पीढ़ी को इस घटना पर भरोसा नहीं होगा कि अतीत में खेजड़ी को बचाने के लिए राजस्थान के खेजड़ली गांव के 363 (69 महिलाएं और 294 पुरुष) लोगों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। यह ऐतिहासिक और रक्तरंजित घटना खेजड़ली आंदोलन के नाम से जानी जाती है। सितंबर, सन 1730 में मारवाड़ के महाराजा अभयसिंह ने महलों में काम में लेने के लिए खेजड़ियों को काटकर लाने का आदेश दिया। महाराजा का मंत्री सैनिकों और अन्य लोगों के साथ खेजड़ियां काटने के लिए खेजड़ली गांव पहुंचा। वहां के लोगों ने अमृता देवी के नेतृत्व में इसका विरोध किया पर मंत्री और उसके लोगों ने खेजड़ियों को जबरन काटना शुरू कर दिया। इस पर ग्रामीण खेजड़ी के पेड़ों से लिपट गए। इसके बाद मौत का भीषण तांडव नृत्य शुरू हुआ और खेजड़ी के तनों से लिपटे हुए लोगों को तलवारों से निर्ममतापूर्वक काट दिया गया। इस बर्बर घटना में 69 महिलाएं और 294 पुरुष मारे गए। अनेक बच्चे भी इस जनसंहार में काल-कवलित हुए। इस भयावह घटना की जानकारी मिलते ही जोधपुर महाराजा ने खेजड़ियां काटने का आदेश रद्द कर दिया। यह घटना भारतीय इतिहास में पर्यावरण संरक्षण के लिए आम जन के प्राणोत्सर्ग और समर्पण का पहला ज्ञात उदाहरण है और इसे 20 वीं सदी के चिपको आंदोलन का  प्रेरणास्त्रोत भी माना जाता है।

खेजड़ी के औषधीय उपयोग

आयुर्वेद और अन्य पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में खेजड़ी का उपयोग कई रोगों के इलाज में किया जाता रहा है। बिच्छू और सांप के काटने का घरेलू उपचार करने में इसकी छाल के अर्क का प्रयोग किया जाता है। इससे जुड़े अन्य उपचारों में त्वचा संबंधी बीमारियों की रोकथाम और गर्भपात रोकने तथा प्रसव को आसान करने जैसे उपचार शामिल हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि खेजड़ी थार के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रकृति की अद्भुत देन है।

खेजड़ी से जुड़े लोकविश्वास 

सांस्कृतिक रूप से इस वृक्ष को समाज में एक प्रतिष्ठित दर्जा प्राप्त है। जन्माष्टमी के दिन घरों में खेजड़ी की हरी टहनियों की पूजा की जाती है। राजस्थान के कुछ जिलों में इसे कृष्ण का प्रतीक माना जाता है। बिश्नोई समुदाय इस वृक्ष की पूजा और सम्मान करता है। हिंदू महाकाव्यों रामायण और महाभारत में इस वृक्ष का उल्लेख मिलता है। राम ने रावण को मारने से पहले खेजड़ी को शक्ति स्वरूप मानकर उसका पूजन किया था। पांडवों ने भी इस वृक्ष को पवित्र माना था और अज्ञातवास के दौरान इसकी खोह में अपने हथियार छिपाकर रखे थे। वैदिक काल में इसकी लकड़ी का उपयोग पवित्र यज्ञों की ज्वाला को प्रज्वलित करने के लिए किया जाता था। थार क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र में खेजड़ी के योगदान को देखते हुए इस वृक्ष को संरक्षित करने की बेहद जरूरत है। राजस्थान में खेजड़ी की संख्या घटती जा रही है जो चिंताजनक है।

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