दृश्य जगत की प्रत्येक वस्तु का कुछ न कुछ आकार-प्रकार है और उसका कुछ न कुछ रंग है। किसी भी वस्तु से उसकी आकृति व उसके रंग को तत्वतः भिन्न नहीं किया जा सकता। वस्तु या पदार्थ को अन्यथा करके रंग और आकृति का कोई अमूर्त रूप नहीं होता। शिल्प-कला में आकृति मुख्य है और रंग गौण। वस्तु की निसर्ग-आकृति को परिवर्तित करके मानवीय भावना या कल्पना द्वारा उसमें नई आकृति (सार्थक) उत्पन्न करना, शिल्प कला के अंतर्गत आता है। आजकल ‘शिल्प’ एक भ्रामक शब्द बन गया है। कई अर्थों में उसका प्रयोग होता है। यह कला का भी पर्यायवाची है। शिल्पी और कलाकार एक ही तथ्य के बोधक हैं। किन्तु विशेष प्रासंगिक स्थलों में इसका विशेष अर्थ ग्रहण करना चाहिए। हमने कुछ व्यापक अर्थ में इसका प्रयोग किया है। किसी भी वस्तु या पदार्थ को मानवीय कौशल द्वारा नई आकृति प्रदान करने वाली सभी कलाओं को इसके अंतर्गत माना है - क्या वास्तुकला, क्या मूर्तिकला, क्या स्थापत्य कला।
वस्तु को नई आकृति प्रदान करने की क्रिया में दो बातें मुख्य रूप से अभिनिहित हैं। एक - स्वयं वस्तु की जानकारी, दो -औजारों की सहायता से वस्तु को प्रयोग में लाने की विधि। वस्तु के गुणों की प्रारम्भिक जानकारी औजारों के निर्माण की आधार-भूमि है और औजारों के प्रयोग से वस्तु के नये गुण निरन्तर प्रकाश में आते रहते हैं। अग्नि का आविष्कार होने से पहिले धातुओं का इस कदर सफल प्रयोग सम्भव नहीं था। अग्नि का एक विशेष गुण है — किसी गीली या नम वस्तु को पका कर उसे ठोस व मजबूत बना देना और ठोस या कठोर धातु को पिघला कर उसे तरल बना देना। अग्नि के पहिले से ही मनुष्य मिट्टी को अपने हित में बरतने लग गया था, किन्तु उसका पूर्ण उपयोग अग्नि के बाद ही संभव हुआ। अग्नि ने मिट्टी की काया बदल दी। धातुओं की उपयोगिता भी सहस्र गुना बढ़ गई। अग्नि की सहायता से उन्हें भिन्न आवश्यकताओं के खातिर भिन्न रूपों में बरता जाने लगा। कहने का आशय यह है कि समय के दौरान में इन्सान को विभिन्न वस्तुओं की जानकारी होती गई — और ओजारों की सहायता से वह उनको विभिन्न प्रयोगों में बरतना सीखता गया। पत्थर, मिट्टी, लकड़ी, अस्थि, हाथी-दाँत, सींग, शंख, सीप, लोहा, पीतल, सोना, चाँदी, काँसी, अष्टधातु, कथीर, शीशा, बीड़, कागज का कूटा, मोम, लाख, काँच, रत्न, उपरत्न, गंधक आदि कई प्राकृतिक तथा कृत्रिम पदार्थ — शिल्प कला के वस्तु-साधन हैं। वस्तुओं के विभिन्न गुणों की वजह से उन्हें खोदकर, उभारकर, कोरकर, गढ़कर, डोलिया कर, ढालकर, कूटकर, या उन पर ठप्पा या छापा करके विभिन्न कलात्मक आकृतियों का रूप प्रदान किया जाता है। शिल्पकला में विषय-वस्तु, रूप और प्रतीक-शैली की समवेत व्यंजना में स्वयं वस्तु का भी जबरदस्त महत्व है। वस्तु की अपनी भावात्मक अभिव्यक्ति है जो रसिक के मन को प्रभावित करने में कला के अलावा भी अपना असर रखती है। इसलिए शिल्पकला में संवेदानुभूति के लिए वस्तु स्वयं भी भाषा का काम करती है। वस्तु की अपनी प्रभाव-शक्ति होती है। दूसरी कलाओं से शिल्प का अपना यह अतिरिक्त चरित्र है।
प्राकृतिक वस्तुएँ मानवीय उपयोगिता के लिए प्राचीनतम उपकरण हैं। उनका अस्तित्व मनुष्य से भी पहले का है। पत्थर, लकड़ी, हड्डी, पहाड़ की चट्टानें इत्यादि के निर्माण में मनुष्य के श्रम की कोई दखल नहीं है। उनको अपने हित में बरतने की समझ उसकी अपनी है। अपनी आत्मरक्षा के लिए हथियार और अकृत्रिम औजारों के रूप में उसने इनका प्रयोग सबसे पहिले किया था। यह प्रयोग ही उसकी प्राथमिक सभ्यता थी; विज्ञान की आदिवर्ण-माला थी । आरम्भ में बिलकुल सीधा और सहज प्रयोग और तत्पश्चात् विकास के दौरान में दो प्राकृतिक वस्तुओं की सहायता से तराशना, घिसना अथवा काट-छाँट कर तीखा बनाना यही उसकी कला थी, यही उसकी जीवन-समस्या थी। अतएव शिल्प कला मनुष्य की प्राचीनतम कला है, प्राचीनतम संस्कृति और प्राचीनतम विज्ञान है, जिसकी सहायता से ही स्वयं मनुष्य का अपना निर्माण हुआ है। प्राकृतिक वस्तुओं के प्रयोग ने मनुष्य के हाथ का कार्य ही बदल दिया, उसकी शक्ति ही मोड़ दी। अंगुलियों की पकड़, लचक, नये सिरे से उनका हिलना-डुलना, वस्तु को थामने की शक्ति, रोक, उठाना, फेंकना इत्यादि क्रियाओं ने मनुष्य के जीवन को ही परिवर्तित कर दिया। चलने-फिरने की क्रिया से स्वतन्त्र, हाथों के नये कौशल ने ही मनुष्य को मनुष्य बनाया है। प्रारम्भ के पत्थर, लकड़ी आदि प्राकृतिक वस्तुओं के प्रयोग ने मनुष्य के हाथ की शक्ति बदली तो उसके बाद में उस बदली हुई शक्ति ने प्राकृतिक वस्तुओं की काया ही बदल दी। हाथ के कौशल द्वारा मानवीय भावना को व्यंजित करके मनुष्य ने जड़-वस्तुओं को सजीव बना दिया। हाथों के जादूभरे श्रम ने जड़-वस्तुओं में प्राण फूंक दिये। शिल्पकला में प्रकृति के गौरव और मानवीय कला का अद्भुत समन्वय है।
तो स्पष्ट है कि शिल्पकला का उद्भव प्रस्तर-युग के हथियारों व औजारों से ही हुआ है। भाषा के प्रारम्भिक अर्थ-संकेत भी इन प्राकृतिक वस्तुओं से बने थे। चित्रकला का उद्भव भी इन प्राकृतिक वस्तुओं के प्रयोग से हुआ है। इसलिए प्रारम्भिक अवस्था में शिल्पकला और चित्रकला को जुदा भी नहीं किया जा सकता। कागज जैसी वस्तु के अभाव में प्राकृतिक वस्तुओं पर ही चित्र अंकित किये जाते थे। वस्तुओं की कुराई, खुदाई और अंकन आदि क्रियाओं से ही चित्रकला का विकास हुआ है। प्रारम्भ में उन शिल्प-कृतियों के स्वयं अपने प्रतीक नहीं होते थे। उपयोगिता की अनगढ़ कारीगरी ही तब की कला थी। उन शिल्प-कृतियों का अस्तित्व किसी आवश्यकता का सहज और अविच्छिन्न परिणाम होता था — भले ही तब की उन आवश्यकताओं ने आज हमारे लिए कला का रूप धारण कर लिया हो। मनुष्य की अचेतन क्रिया की यंत्रवत कारीगरी और यांत्रिक साधन ही आगे चल कर स्वतंत्र कलाओं में परिणित होते गये। अनुकरण, पुनरावृत्ति, परम्परा और अभ्यास ने उन प्राकृतिक वस्तुओं पर अंकित कुराई, खुदाई को कला के भावनात्मक प्रतीकों का रूप प्रदान किया है।
भाषा व गणित के प्रतीकों को कान या आँख द्वारा सुना या पढ़ा जाने पर भी इनका सीधा सम्बन्ध इंद्रियों से नहीं है। इसकी बोधग्राह्यता के लिए इंद्रियाँ तो साधन-मात्र हैं। कला के प्रतीकों का इन्द्रियों से सीधा सम्बन्ध है। बोधग्राह्यता के साथ-साथ इन्द्रियों का अपना आनन्द भी है। अंधे या बहरे व्यक्ति को भाषा, विज्ञान व गणित के प्रतीकों से स्पर्श-शक्ति द्वारा अवगत कराया जा सकता है, किन्तु शिल्प, चित्र व संगीत का आभास सम्बन्धित इन्द्रियों के अभाव में नहीं हो सकता। गणित व भाषा के प्रतीकों का विषय-वस्तु के अलावा भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। विषय-वस्तु से परे उनकी शिक्षा दी जा सकती है, किन्तु शिल्प इत्यादि कलाओं के प्रतीकों को विषय से जुदा नहीं किया जा सकता। विषय-वस्तु से विच्छिन्न प्रतीकों का अपना अस्तित्व नहीं है। गणित व भाषा में प्रतीक पहिले हैं और विषय-वस्तु बाद में, किन्तु शिल्प या चित्र आदि कलाओं में कला पहिले है और प्रतीक बाद में। कलात्मक व्यंजना के साथ-साथ ही प्रतीकों का निर्माण होता है। भाषा के इतने सारे शब्दकोश उपलब्ध हैं, गणित के शब्दकोश की तो आवश्यकता ही नहीं, किन्तु शिल्प या चित्र के शब्दकोश की कल्पना भी असम्भव है। भाषा के शब्दों का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होने के कारण दूसरी भाषा में उनका अनुवाद हो सकता है, गणित के उल्थे में तो कोई दिक्कत ही नहीं, किन्तु कला में विषय-वस्तु और प्रतीकों का अविभाज्य सम्बन्ध होने के कारण उनके अनुवाद का प्रश्न ही नहीं उठता। कलाकृतियों की नकल हो सकती है, प्रतिकृति या अनुकृति हो सकती है। कला के प्रतीकों का अपना स्वतंत्र और स्पष्ट रूप नहीं होने के कारण कलाकृति का प्रभाव रसिक के मन पर कभी एकसा नहीं पड़ता। समझ, संस्कार, शिक्षा, मानसिक अवस्था, अभ्यास व मर्मज्ञता के विभिन्न स्तरों के कारण एक ही कलाकृति विभिन्न दृष्टाओं के लिए विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। गणित और वाणी के प्रतीकों की शक्ति जहाँ समाप्त होती है — वहीं से कला के प्रतीकों का अंतहीन प्रारम्भ होता है। कला के प्रतीक अपूर्ण हैं इसीलिए इनकी व्यंजना-शक्ति असीम है। मनुष्य के अंतर्मन की सीमा हो तो कला के प्रतीकों की सीमा हो। मनुष्य के अंतर्मन का अगूढ़ रहस्य पूर्ण और स्पष्ट हो तो कला के प्रतीक भी पूर्ण एवं स्पष्ट हों।
कुराई, खुदाई, गहराई, उभार, अंकन आदि ये शिल्पकला के प्रतीक हैं, किन्तु कला-कृति से इन्हें विलग नहीं किया जा सकता। शिल्पकला के प्रतीकों का प्रभाव सदैव त्रिविभात्मक होता है। गहराई और उभार की वास्तविकता के कारण शिल्पकला चित्रकला के बनिस्पत सच्चाई व यथार्थता के अधिक निकट है, फिर भी चित्र के रंग व रेखाओं जितना उनका व्यापक क्षेत्र नहीं है। चित्रकला से अपेक्षाकृत अधिक मूर्त्त होने के कारण अमूर्त भावनाओं को व्यक्त करने में शिल्प कला अपनी सीमाओं में बँध जाती है। चित्र की भाँति समुद्र, पहाड़, हरियाली, वृक्ष, नदी, नाले, धोरे, बादल इत्यादि शिल्प कला के अपेक्षाकृत मूर्त्त प्रतीकों में नहीं ढाले जा सकते। गहराई और उभार की वास्तविकता व्यंजना को सीमित बना देती है। फिर भी शिल्प कला का अपना महत्व है जो किसी भी अंश में चित्रकला द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता। किसी भी कला का मूलभूत कार्य दूसरी कला से नहीं सारा जा सकता।