राजस्थान के मेवाड़ अंचल में आदिवासी भील समुदाय द्वारा मंचित किया जाने वाला गवरी लोकनाट्य बेहद लोकप्रिय है। यह नाट्य भीलों की पारंपरिक आस्थाओं को उद्धघाटित करता है। यह समुदाय अपने आराध्य शिव-पार्वती को गवरी के माध्यम से याद करता है। भारतीय लोकनाट्यों में ऐसा व्यवस्थित अन्य लोकनाट्य देखने को नहीं मिलता जो चालीस दिनों की लंबी अवधि तक इतने बड़े पात्र समूह के साथ मंचित किया जाता हो। गवरी एक सामान्य रंगमंचीय नाटक नहीं है अपितु यह सांस्कृतिक झलक, कलात्मकता और अभिनय तीनों दृष्टियों से बेहद समृद्ध लोकनाट्य शैली है। वस्तुत: गवरी भील समुदाय की उस ऐतिहासिक परंपरा को उजागर करता है जो सामुदायिक सीमाओं से परे जाकर लोकजीवन की अमूल्य निधि बन गई है।
‘गवरी’ नाट्य का कथानक पौराणिक है। लोकमान्यता है कि एक बार भस्मासुर ने शिव को तपस्या से प्रसन्न करके उनसे भस्मी कड़ा प्राप्त कर लिया। कड़ा हासिल करते ही उसने सबसे पहले शिव को ही भस्म करना चाहा तो विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण करके भस्मासुर को स्वाहा कर दिया। भस्म होते समय भस्मासुर ने विष्णु से अमरता का वर मांग लिया। इसी कथा के आधार पर गवरी नाट्य का मंचन किया जाता है। भस्मासुर के प्रतीक रूप में गवरी का नायक बुड़िया अपने मुंह पर उसका मुखौटा पहनकर अपनी भूमिका निभाता है। वहीं पार्वती की भूमिका में स्त्री के वेश में दो पुरुष पात्र होते हैं। भस्मासुर और शिव की कथा पुराणों और भगवद गाथा में भी मिलती है। इसके अलावा लोक में भी इसी प्रसंग से जुड़ी अनेक कथाएं प्रचलित हैं।
गवरी के पात्र ‘खेल्ये’ कहलाते हैं। गवरी के दृश्य खेल, भाव या सांग के नाम से जाने जाते हैं। कुटकुड़िया इस नाट्य का सूत्रधार होता है जो गवरी के प्रत्येक खेल से पूर्व उसकी संक्षिप्त कथा सुनाता हुआ ‘कुटकुड़ाई’ करता है। उसके सहयोगी पात्र के रूप में ‘झामट्या’ होता है जो प्रहसन करते हुए दर्शकों का मनोरंजन करता है। गवरी नाट्य में पात्रों की संख्या पचास से लेकर सौ तक होती है। इन्हें छ: पात्र वर्ग देव पात्र, मानव पात्र, दानव पात्र, पशु पात्र, जलीय पात्र और आकाशीय पात्र में बांटा जा सकता है। देव पात्र तमाम विकारों से रहित आदर्श के प्रतीक और कालजयी होते हैं। गवरी में कालका तथा शिव-पार्वती देव पात्रों में गिने जाते हैं। मानव पात्रों में बुड़िया, राई, कुटकड़िया, कंजर-कंजरी, मीणा, नट, खेतुड़ी, शंकरिया, कालबेलिया, पाईता, बाणिया, जोगी, गरड़ा, कानगुजरी, कालू कीर, बणजारा, शकलीगर, भोपा, बनवारी, गोमा, बांझड़ी, फत्ता- फत्ती, बगली और देवर-भोजाई आदि उल्लेखनीय हैं। दानव पात्रों में भंवरा, खड़ल्या भूत, हठीया तथा भियांवल प्रमुख हैं। गवरी के पशु पात्रों में सूअर, रींछड़ी और शेर मुख्य हैं। जलीय पात्र के रूप में रोई माछला अपनी भूमिका निभाता है। आकाशीय पात्रों में भंवरा होता है।
इसमें शिव तथा भस्मासुर के रूप में उनके प्रतीक पात्र राई-बुड़िया, मोहिनी और पार्वती के रूप में दो राइयां एवं पाट भोपा, ये पांचों गवरी के मुख्य पात्र होते हैं। इनके अतिरिक्त नौ पंथ के पात्र भी गवरी में भाग लेते हैं। इनमें से दो राइबुड़िया के, दो दोनों राइयों के, एक गौरज्या का भोपा, एक मामादेव का भोपा, एक बड़ा खेला, एक छोटा खेला और एक मांदल बजाने वाला वारता होता है। ये सभी पात्र लंबे झोगे पहने रहते हैं। इनमें गवरी के मंचन के दौरान शिव का भाव समाया रहता है।
रक्षाबंधन के दूसरे दिन भील और भोपा जाति के लोग किसी मंदिर के आगे एकत्र होकर देवी गवरी का आह्वान करके उनसे आतिथ्य ग्रहण करने की प्रार्थना करते हैं। इसी क्रम में मंदिर में स्थित प्रतिमा पर धान के दाने चढ़ावे के रूप में फेंके जाते हैं। यदि ये दाने प्रतिमा के दाहिनी तरफ गिरते हैं तो इसे माता गवरी की स्वीकृति माना जाता है लेकिन दानों के बायीं ओर गिरने को देवी की मनाही माना जाता है।
देवी द्वारा स्वीकृति दिए जाने के बाद व्यापक स्तर पर गवरी समारोह की तैयारियां शुरू कर दी जाती हैं। गवरी के मंचन के लिए लकड़ी के मुखौटों, आदिम मेकअप का साजो-सामान, जवाहरात, वेशभूषा और रंगमंच की तमाम सामग्री इकट्ठी की जाती है। गवरी के पात्रों की वेशभूषा बड़ी कलात्मक होती है। पात्र की भूमिका के अनुरूप इन पर सूर्य, चांद, तारा, मोर, पपीहा जैसे मांगलिक अंकन किए जाते हैं। इसके अलावा पात्रों के मुख को रंगों से सजाया जाता है जिनमें विभिन्न रंगों का मिश्रण होता है। रंग संयोजन से पात्र की भूमिका का संकेत भी मिलता है। यथा – राक्षस और दैत्यों के लिए गहरा नीला, चोरों के लिए काला, देवी-देवताओं के लिए लाल और जोगी-साधुओं के लिए पीला रंग सज्जा में प्रयोग किया जाता है।
मंदिर के सामने गवरी समारोह के आयोजन स्थल पर बांस गाड़कर मंचन आरंभ किया जाता है। इसके बाद लगातार कई प्रकार के परंपरागत लोकनाट्य दर्शकों के सामने प्रस्तुत किए जाते हैं। नाट्य स्थल पर गाड़ा गया बांस इस आयोजन के केंद्र में रहता है। इसे सांसारिक लोगों और देवताओं के बीच संपर्क सूत्र का माध्यम माना जाता है। जब देवी की आत्मा इस बांस के नीचे आती है तो न केवल खिलाड़ी अपितु दर्शकगण भी अभिभूत हो जाते हैं। गवरी नाट्य अमूमन रक्षाबंधन के अगले दिन से शुरू होकर आश्विन कृष्णा चतुर्थी के आसपास तक चलता है। समापन समारोह दो दिन का होता है जिसे ‘घड़ावण’ और ‘वलावण’ नाम से जाना जाता है। गवरी में पार्वती के पीहर जाने का वर्णन है जिसके बाद सवा महीने की अवधि तक शिव के गण नृत्य करके उनका मन बहलाते हैं।
गवरी में नृत्य की प्रमुखता होती है। इसी कारण गवरी को ‘गवरी का नाच’ भी कहा जाता है। लगभग सवा महीने तक चलने वाला यह लोकनाट्य सुबह से लेकर शाम तक मंचित होता है। यह केवल लोकनाट्य ही नहीं है अपितु एक ऐसा अनुष्ठान है जिसमें भील समुदाय पूरी आस्था के साथ सम्मिलित होता है।
गवरी के मंचन में कथानक या सहकथानक क्रमबद्ध नहीं होते लेकिन इसका मूल गाथा से संबंध अवश्य होता है। ये बिखरे हुए कथानक, युद्ध, पराजय, मृत्यु एवं अंतत: जीवात्मा के पुनर्जीवित हो उठने से संबंधित होते हैं, यह पुनर्जीवन देवी की ही कृपा माना जाता है।
गवरी लोकनाट्य के पात्रों का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना नहीं है और न ही उनमें धन हासिल करने की लालसा होती है। इसका मुख्य उद्देश्य धार्मिक होता है। भील अपनी आराध्य देवी गौरज्या (पार्वती) और भैरवनाथ को रिझाकर गांव की खुशहाली, जाति की सुरक्षा तथा रोग-शोक, दुख-दरिद्र आदि से मुक्ति की कामना करते हैं। गवरी नाट्य ऐसी सांस्कृतिक निधि है जिसमें भील समुदाय की परंपरागत रूढ़ियां, श्रुतियों, विश्वासों, मान्यताओं तथा चेतना का प्रतिबिंब देखा जा सकता है। इससे सामाजिक एकता, पारस्परिक प्रेम और मानवीय सद्वृत्तियों में अभिवृद्धि होती है। देव, दानव, पशु और मानवीय जीवन के लोकानुरंजन को एक समानधर्मी मंच पर मंचित करके गवरी ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श को साकार किया है। गवरी लोकनाट्य लोकजीवन के निर्मल स्वरूप को प्रतिबिंबित करता है, वहीं इस नाट्य के माध्यम से लोकसंगीत, नृत्य-कला और अभिनय क्षमता भी सामने आती हैं। गवरी लोकनाट्य आदिवासी भील समुदाय की पुरातन परंपराओं और आस्थाओं के प्रस्तुतीकरण का सुंदर उदाहरण कहा जा सकता है।