मनुष्य का इतिहास — उसको अपनी संस्कृति, उसकी अपनी परम्परा, प्रकृति तथा समाज के साथ उसके विकसित सम्बन्ध एवं संघर्षों की कहानी है। इस इतिहास का निर्माणकर्त्ता वह स्वयं है। अपने इतिहास, अपने समाज और अपने विकास का निर्माण उसने प्रकृति के बावजूद, उससे संघर्ष करते हुए, उसे अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल काम में लाते हुए, स्वयं अपनी मेहनत से, अपने ज्ञान तथा अपनी समझ-बूझ से किया है। अपने विकास का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व स्वयं मनुष्य के अपने कन्धों पर है। मनुष्य का प्रत्यक्ष सम्बन्ध रहता है — दो जगह से। एक — प्रकृति और दूसरा — समाज। नई परिस्थितियों, नये संघर्षों और नये अनुभवों के दौरान में इनके साथ उसके सम्बन्धों में परिवर्तन होता रहता है। प्रकृति और समाज के साथ उसके ये परिर्वार्तत सम्बन्ध ही, उसके विकास तथा उसकी प्रगति को लक्षित करते हैं। परिवर्तन के इस विकास-क्रम से यह स्पष्ट हो जाता है कि न प्रकृति के साथ मनुष्य का सम्बन्ध कभी एक-सा रहा है और न समाज के साथ ही। आधुनिक युग के सभ्य मनुष्य का प्रकृति के साथ आज जो सम्बन्ध है, उसके प्रति उसकी जो मान्यताएँ तथा जो धारणाएँ हैं, इनसे सर्वथा विभिन्न रूप ही आदिम मानव के व्यवहार-जगत से प्रकट होता है।
प्रकृति के साथ आदिम-मानव का जो सम्बन्ध है, उसीसे उसकी चेतना, उसकी कला, उसके चिंतन, उसके धर्म, उसकी पुराण-कथाओं और उसके देवी-देवताओं के मूलभूत सत्यों की जानकारी प्राप्त हो सकती है। आदिम-मानव — प्रकृति से अपने भिन्न अस्तित्व की चेतना का अनुभव तो कर लेता है, परन्तु उसकी अपनी चेतना से, वस्तु-जगत या वातावरण के भिन्न अस्तित्व की आत्मानुभूति उसे नहीं हो पाती। वह स्वयं को प्रकृति के अंश-रूप में स्वीकार न करके, प्रकृति ही को अपनी चेतना का अंश समझता है। इसलिए उसका विश्वास है कि प्रकृति के कार्यव्यापारों पर अपनी कामना के अनुसार वह नियंत्रण रख सकता है। प्रार्थना के रूप में इच्छा या चाह प्रकट करने से उसका विश्वास है कि प्रकृति उसका कहा मानेगी। प्रकृति के साथ आदिम-मानव का यह सम्बन्ध- मंत्र, जादू, टोना, इंद्रजाल, धार्मिक अनुष्ठान तथा विधि-कर्म, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रेतात्मा आदि की भावनाओं के रूप में व्यक्त होता है। आदिम वर्गहीन समाज में यह जादू-टोने की भावना ही आदिम-मानव का व्यावहारिक धर्म है, उसका विज्ञान है; क्योंकि वह वस्तु-जगत को इसी रूप में ग्रहण करता है। इसके अन्यथा प्रकृति के प्रति उसकी कोई वैज्ञानिक धारणा नहीं होती। आधुनिक विज्ञान का विकास भी इसी जादू-टोने की भावना से ही हुआ है। प्रकृति के स्वभाव और उसके नियमों को ठीक से समझ नहीं पाने के कारण, जहाँ आदिम-मानव का वश नहीं चलता वहाँ जादू-टोने की यह आदिम-भावना ही उसे यथार्थ बल प्रदान करती है। जहाँ उसका प्रत्यक्ष सामर्थ्य, उसकी शारीरिक शक्ति समाप्त होती है, वहीं से आदिम-मानव की ऐन्द्रजालिक भावना का आरम्भ होता है। आदिम-मानव की धार्मिक भावना का यही वास्तविक आधार है। अपने वश के परे ही, प्रकृति को अपनी चेतना का अंश समझने के कारण वह हर आवश्यकता पर देवी-देवताओं से प्रार्थना करता है। सामूहिक रूप से उन्हें प्रसन्न करने के लिए उत्सव मनाता है। नाचता है। गाता है। आदिम-मानव की इस धार्मिक-वृत्ति में, वैयक्तिक इच्छा-उपासना के स्थान पर, सामूहिक आवश्यकता ही महत्वपूर्ण है। प्रकृति या वातावरण के साथ समूह का जो सम्बन्ध है— वह जरूरत पड़ने पर कभी व्यक्ति के माध्यम से, कभी परिवार के माध्यम से, कभी सामूहिक आयोजन के माध्यम से — अपनी अभिव्यक्ति पाता है।
भैरूंजी, काठै रै गवां री चाढूं लापसी,
मांय तो गायां रौ देसी घीव,
कासी रा वासी, अेक अरज म्हारी सांभळो!
भैरूंजी, कदैय न भीजी म्हारी दूधां कांचळी,
भैरूंजी, कदैय न भीज्यौ म्हारौ कांधौ लाळ सूं,
कासी रा वासी, अेक पुत्तर बिन कुळ में बांझड़ी!
पुत्र के लिए भैरूंजी से प्रार्थना की गई है। भैरूंजी के रूप में इस देवता का, समूह की आंतरिक चेतना या उसकी मानसिक कल्पना के अन्यथा कोई भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। समूह के अन्तर्जगत ही ने इसको, अपनी चेतना के द्वारा किसी बाह्य आवश्यकता को महसूस करने के पश्चात्, एक निश्चित रूप और आकार प्रदान किया है और तत्पश्चात् अपनी ही चेतना द्वारा स्थापित किये हुए स्वरूप की स्वतंत्र सत्ता के बाह्य-रूप को ही वह पूर्ण मान्यता प्रदान कर देता है। इस तरह काल्पनिक होते हुए भी वह समूह के लिए एक ‘यथार्थ’ बन जाता है। तब उस देवता-विशेष को समूह के आचार-व्यवहार, उसके रहन-सहन के अनुसार, अपने सदस्य ही की भाँति दीक्षित कर लिया जाता है। उसके लिए देवता समूह के साथ ठीक उन्हीं की तरह सामूहिक जीवन व्यतीत करता है। वह समूह का एक अंग बन जाता है। भैरूंजी के साथ समूह एक जीवित मनुष्य ही की तरह बर्ताव करता है। ‘काठे गेहुँओं की लापसी बनाई जायेगी — उनके लिये। गायों का देशी घी डाल कर उन्हें वह लापसी परोसी जायगी।’ वन्द्या की ओर से भैरूंजी को कैसी मर्मान्तिक प्रार्थना की गई है। कितनी सच्चाई व विश्वास के साथ प्रार्थना की गई है कि बस एक ही क्षण में वे द्रवित होकर उसकी कामना को पूरा कर डालेंगे। नारी की जिन्दगी पाकर कभी उसकी काँचळी दूध से न भीगी तो फिर इस जिन्दगी की सार्थकता ही क्या? इस जीवन का सार ही क्या? कासी के वासी को उसकी यह एक छोटी-सी अर्ज है कि वह उसके बाँझपन को मिटा दे। ‘वह अपने पीहर में उनके लिए थान बनवायेगी। हर समय, पास से गुजरते हुए वह उन्हें घोक देगी।’ आदिम-मानव का यथार्थ जगत उसकी कल्पना का पुट पाकर काल्पनिक रूप धारण कर लेता है और उसका काल्पनिक जगत उसके यथार्थ का पुट पाकर वास्तविक बन जाता है। इस कारण यह भेद करना मुश्किल हो जाता है कि उसके यथार्थ और काल्पनिक जगत में कहाँ भिन्नता है?
बड़ीजी तो आया जी, लोड़ी के प्यारा पांवणा।
चोकी तो चावळां, जी बड़ी जी थांनै बैसांणां, दूध पखाळां पांव,
चावळ तो रांधां, जी बड़ी जी थांनै ऊजळा, हरियै मूंगां री दाळ,
घेवर तळां, जी बड़ी जी थांनै टोकणां, पापड़ तळां ओ पचास।
आदिम-मानव के लिए मरा हुआ व्यक्ति भी किसी न किसी रूप में समूह के बीच जिन्दा रहता है। उसको मरने पर समूह के बीच से एकदम मार दिया नहीं जाता। उसकी आत्मा, समूह के हर सुख-दुख के समय जीवित रहती है। वह मर कर भी सामूहिक आयोजनों में भाग लेता है। समूह के लिए वह जिन्दे के समान ही रहता है। दूसरा विवाह होने पर भी, पहिले की मृत स्त्री को पूर्णतया मरा नहीं माना जाता। पितरांणी के रूप में उसकी पूजा होती है। ‘लोड़ी के लिए आज खुशी का पार नहीं है। क्योंकि बड़ीजी उसकी पाहुनी बन कर आई हैं। उनको सम्मानपूर्वक चावलों की चौकी पर बिठाया जायेगा। दूध से उनके पाँव पखारे जायेंगे। उजले चावल राँधे जायेगे। हरे मूंगों की दाल बनाई जायेगी। घी से गळगच बाटिये बनाये जायेगे। तीस-बत्तीस प्रकार के साग, बड़े-बड़े घेवर और पचासों पापड़ तळे जायेंगे। बीजापुर के पंखे से उन्हें बयार की जायेगी। उनकी अंगुलियाँ, मूँगफलियों के समान लम्बी और पतली हैं। उनके दाँत, दाड़म के बीजों के समान सुन्दर हैं। भोजन कराते समय उनकी अंगुलियों की सुन्दरता को लोड़ी निरखती रहेगी। दाड़म के बीजों के समान सुन्दर उनके दाँतों की स्मित मुस्कराहट को वह एकटक निहारती रहेगी।’ इतना सब कुछ होगा — फिर कैसे मान लिया जाय कि पितरांणी का समूह के बीच कोई अस्तित्व नहीं है। आदिम-मानव — मृत व्यक्ति की प्रेतात्मा के प्रति, जीवित मनुष्य के समान ही व्यवहार करता है। बाह्य-जगत उसकी चेतना का स्पर्श पाकर प्राणयन्त हो उठता है। बीमारियों के सम्बन्ध में भी ‘आदिम-वृत्ति’— अपनी चेतना के अनुसार विशेष बीमारी के विशेष देवी-देवता से पूजा प्रार्थना करती है और अपने आदिम-स्वभाव के अनुसार उसका उसी रूप में उपचार खोजती है। शीतला माई के अनेकों गीत, इकांतरा के बुखार की कथा, खुलखुलिये का रातीजगा, निकाळै का जागरण आदि कई बीमारियों का उपचार गीतों के रूप में देवियों की प्रार्थना के जरिये किया जाता है। ऐसी ही है आदिम-मानव की वृत्ति। वह बाह्य-जगत को अपनी चेतना में समेट कर उसका मानवीयकरण कर लेता है।
हालौ विनायक, आपां जोसी रै हालां
चोखा-सा लगन लिखासां हे, म्हारौ बिड़द विनायक
चालौ विनायक, आपां बजाज रै हालां
चोखा-सा साळूड़ा मोलावसां, म्हारौ विड़द विनायक
गणेश, गणपति या विनायक — शुभ और मंगलकारी देवता है। हर कार्य के प्रारम्भ में उसकी अपेक्षा रहती है। विवाह-शादी के अवसर पर तो विनायक के गीतों की जैसे झड़ी-सी लग जाती है। हर गीत में लगता है कि विनायक बारातियों की तरह एक साधारण मनुष्य है और उससे काम लिया जा रहा है। चलो विनायक जोशी के यहाँ चलें और एक अच्छा-सा लगन लिखवा कर ले आयें। चलो विनायक, महाजन की दुकान पर चलें और बढ़िया रेशमी वस्त्र खरीद लायें। चलो विनायक, सोनार के घर चलें और सुन्दर-सुन्दर गहने घड़वा कर ले आयें। पंसारी के चलो, गाँधी के चलो, हलवाई के चलो, तमोली के चलो। यह विवाह का अवसर है। न जाने कितनी जगह से कितनी-कितनी चीजें लानी हैं। आदिम मानव का धर्म उसकी जिंदगी से कोई अलग वस्तु नहीं है। उसकी जिंदगी में उसका धर्म समाया हुआ है और उसके धर्म में उसकी जिंदगी अंतनिहित है। हर शुभ अवसर पर—विवाह के समय, जन्मोत्सव पर, खेत अवेरने पर, खेती करने पर, अच्छी वर्षा होने पर या कोई भी अन्य खुशी होने पर — देवी-देवताओं के गीत गाये जाते हैं।
आदिम-मानव — अपने जीवन में हर कार्य के लिए अच्छे-बुरे के शकुन विचारता है। यात्रा के समय दिशा-शूल का ख्याल रखता है। ये मान्यताएँ भी उसके जीवन में इतनी गहरी समा गई हैं कि वह उनकी उपेक्षा किसी भी तरह नहीं कर सकता। वह बुधवार को यात्रा के लिए घर से प्रस्थान नहीं करता। मंगल या शनि को दाढ़ी या बाल नहीं कटवाता। शनिवार को नया जूता नहीं पहनता। शनि को नये कपड़े नहीं पहनता। यात्रा के समय दूध नहीं पीता। गुड़ और दही को यात्रा के समय मांगलिक समझता है। यात्रा पर जाते हुए, घर से बाहर निकलते समय सुहागिन स्त्री, जल से भरा हुआ घड़ा, जाट और मेहतर — मंगलकारी शकुन माने जाते हैं। और खाली घड़ा, नंगा सर, लकड़ियों की भारी, कान फड़फड़ाता हुआ कुत्ता, बिल्ली का रास्ता लाँघना, सामने की तरफ छींक होना — अशुभ माना जाता है।
म्हनै बायों तीतर बोलियौ
अेक द्यांणी बोली कोचरी
बाईं तरफ तीतर और दाहिनी तरफ कोचरी का बोलना शुभ माना जाता है। राह में गधा मिल जाय तो उसे बाईं ओर टाला जाता है और जहरीले जन्तुओं को दाहिनी ओर।
आदिम वर्ग-हीन समाज में, जादू-टोने के रूप में, इन धार्मिक मान्यताओं की उपज एक आवश्यकता थी। ‘प्रकृति’ के अस्पष्ट सम्बन्ध ने ही इस जादू-टोने की भावना को जन्म दिया था। और धर्म का यह आधुनिक रूप ‘समाज’ के अस्पष्ट सम्बन्धों के कारण उत्पन्न हुआ है। कला और विज्ञान के विकास ने आदिम-मान्यताओं को वैज्ञानिक और स्पष्ट रूप प्रदान कर दिया है; लेकिन वर्ग-समाज की अस्पष्टता के भीतर मनुष्य एक बार फिर खो गया है। धर्म का अन्धकार उसे सही राह खोजने में बाधा पहुंचा रहा है। धर्म के नशे में मनुष्य अपना सही रूप पहिचान नहीं पा रहा है। वह समाज के सम्बन्धों को स्पष्ट रूप से समझ नहीं पा रहा है। इसलिए वर्ग-समाज में धर्म की आलोचना — समाज की आलोचना ही है। धर्म को चुनौती देना — वर्ग-सत्ता को चुनौती देना है।
अप्रेल १६५६