अलवर के मेव मुसलमानों का एक उपसमुदाय मुस्लिम जोगियों का है। ये घुमंतू जोगी नाथ संप्रदाय से संबंधित हैं, और अपने को इस्माइल नाथ का वंशज मानते हैं, जो गोरखनाथ के शिष्य थे। कहा जाता है कि ये पहले हिंदू थे और बाद में धर्मांतरण करके मुसलमान हुए। संगीत इनकी आजीविका का साधन रहा है और ये कृष्ण, राम और शिव की महिमा का गुणगान करके या गोरखनाथ के शिष्यों के चमत्कारी कार्यों का वर्णन करके अपना जीवन चलाते थे। इसी जोगी समुदाय में ज़हूर खान का जन्म 1941 ई. में हुआ। इनका पैतृक गाँव हरियाणा के नूंह जिले (पहले पुन्हाना तहसील) का जेठाना गाँव था और इनका ननिहाल अलवर जिले के लापला गाँव में था। इनका जन्म अपने ननिहाल में हुआ। ज़हूर के पिता कंवरनाथ भपंग के बेहतरीन वादक थे। उनकी संगीत-शिक्षा की बुनियाद परिवार में ही रखी गई थी। वे भपंग बजाने और फ़िल्में देखने के शौकीन थे। न्यू तेज टॉकीज़ अलवर के आसपास 1950 के दशक में ज़हूर खान ने मजबूरी में बीड़ी बेचने का काम शुरू किया। बीड़ी जल्दी बिके, इसके लिए राहगीरों को लुभाने के लिए वे भपंग बजाते थे, और जो भी कमाई होती, उससे वे फ़िल्में देखने जाया करते थे।

कहते हैं कि एक दिन दिलीप कुमार और निरूपा रॉय एक शूटिंग के सिलसिले में अलवर के कंपनी बाग़ आए हुए थे, उसी दिन उनके ड्राईवर ने ज़हूर खान को भपंग बजाते हुए देखा। ड्राइवर ज़हूर खान को अपने साथ कंपनी बाग़ ले गया जहाँ दिलीप कुमार ने ज़हूर खान का भपंग सुना, तो वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ज़हूर खान को मुंबई आने का न्योता दे दिया। ज़हूर खान मुंबई चले गए। वहाँ कॉमेडियन महमूद ने उनकी मदद की, जो उनके भपंग वादन से बहुत प्रभावित थे। 1950 के दशक से 1970 तक ज़हूर खान ने कई मशहूर फ़िल्मों में भपंग बजाया, जिनमें ‘गंगा जमुना’, ‘नया दौर’, ‘आँखें’, ‘न्यू दिल्ली’, ‘सन ऑफ इंडिया’, ‘तीसरी कसम’ आदि का नाम लिया जा सकता है। फ़िल्मी गानों में ‘तुझको रखे राम तुझको अल्लाह रखे’, ‘ये देश है वीर जवानों का’, ‘छलिया रे छलिया’ जैसे बेहतरीन गीत शामिल हैं। बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री तक भपंग को ज़हूर खान ही लेकर गए। बाद में ज़हूर खान ने मशहूर क़व्वालों यूसुफ़ आज़ाद, राशिदा खातून, प्रभा भारती, भजन गायक नरेंद्र चंचल और पंजाबी गायक गुरदास मान जैसे लोकप्रिय कलाकारों के साथ भी भपंग बजाया। फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिशियन (पृष्ठभूमि संगीतकार) को श्रेय देने की परंपरा नहीं है, इसलिए ये इस काम से ऊबने लगे और वापस अलवर आ गए। वापस आकर इन्होंने अपने बड़े भाई शकूर खान से फिर से सीखना शुरू किया और मेवात के मुस्लिम जोगियों द्वारा गाए जाने वाले महाकाव्यात्मक गीतों की समृद्ध परंपरा को और समृद्ध किया। इनमें ‘पांडुन का कड़ा’ (पांडवों की कथा) और ‘शिव का ब्यावला’ (शिव-विवाह की गाथा) शामिल थे।

1980 के दशक की शुरुआत में, कोमल कोठारी ने लक्ष्मणगढ़ में एक लोक उत्सव के दौरान, ज़हूर खान को भपंग बजाते हुए सुना और उनसे प्रभावित होकर उनसे ‘पांडुन का कड़ा’ को रिकॉर्ड करवाया। ‘रूपायन संस्थान’ के माध्यम से ही ज़हूर खान को अंतरराष्ट्रीय संगीत उत्सवों में जाने का अवसर मिला। इसके साथ ही इनकी मेवात में भी लोकप्रियता बढ़ाने लगी। फिल्मों में वे भपंग का इस्तेमाल हास्य के लिए कर चुके थे, हलके-फुल्के व्यंग्य के गीत लिखने और प्रस्तुत करने लगे। जिनमें ‘जमीलो, तेरो दुनियाँ सूं सुख न्यारो’ (भौतिक सुख-सुविधाओं पर व्यंग्य), ‘फैशन ने मेरे देश की बिगाड़ी कैसी चाल’ (फैशन के दुष्प्रभावों पर तंज) ‘दुनिया में हो रही टर्र-टर्र’ (उपभोक्तावादी चमक-दमक पर व्यंग्य) है।

बहुआयामी प्रतिभा के धनी ज़हूर खान का साल 2007 में निधन हो गया। ज़हूर खान ने भपंग वाद्य को नया जीवन दिया। आज यह वाद्य अपनी पारंपरिक सीमाओं से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक पहुँच चुका है। अब उनकी विरासत को उनके भाई मोहम्मद खान, भतीजे जुम्मे खान और उनके पोते यूसुफ़ खान आगे बढ़ा रहे हैं। उनकी स्मृति में उनके परिवार द्वारा अलवर में हर साल ‘मेवाती लोक कला उत्सव’ का आयोजन किया जाता  है। उनके पोते और भपंग के उस्ताद यूसुफ़ खान मेवाती ने उनकी स्मृति में ‘ज़हूर खान मेवाती भपंग कला और शिक्षा समिति’ की स्थापना भी अलवर में की है।

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