राजस्थानी लोकगीत गाळियां/गाळ्यां

 

राजस्थानी लोकजीवन में वैवाहिक अवसरों पर वर पक्ष के कुछेक प्रमुख लोगों को भोजन करवाते समय प्रहसननुमा लोकगीत ‘गाळियां’ वधू पक्ष की स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। इनमें ‘सगां री गाळियां’ बेहद लोकप्रिय है। इन गीतों में वर के पिता यानि समधी के भोजन करते समय काफी प्रहसन किए जाते हैं। इसके अलावा वधू पक्ष की नवयुवतियां नये दूल्हे के बारे में उसके भोजन करते समय इसी प्रकार के प्रहसननुमा गीत गाती हैं। इन लोकगीतों में प्रहसन के साथ-साथ ग्रहस्थ जीवन की कठिनाइयों का भी क्षणिक वर्णन मिलता है। यहां कतिपय इसी प्रकार के ‘गाळी लोकगीतों के अंश प्रस्तुत हैं। इनमें से सबसे पहले वधू पक्ष की औरतें वधू पक्ष के समधी-समधन पर ‘गाळनुमा’ प्रहसन इस प्रकार गाती हैं—

 

‘नवा नगर सूं गाडी आई
व्है नगारां री ठोर ठोर
मांय ब्याईजी वाळी बैठी आई
ताळां दीधी ठोर ठोर
मरजौ टोपी वाळौ रे
हाथ पकड़ घर में लेगौ
ताळौ दीधौ ठोर ठोर
अे छै र मीना घर में राखी
ओ नवे मीनै पेट पेट
मरजौ टोपी वाळो रे।’ 

 

वधूपक्ष की औरतें वरपक्ष के अविवाहित लोगों के लिए भी प्रहसननुमा ‘गाळियां गाती हैं। इसी प्रकार का एक उदाहरण इस प्रकार है—

 

‘सगा जी नै काळी कुत्ती परवाणौ जी नारायण जी परमेसर जी
हथळेवो कींकर जोड़ै जी नारायण जी परमेसर जी
सगौ जी हाथ कुत्ती जी रौ पंजौ इऊ हथळेवौ जोड़ै जी
अै फेरा किण विध खासी नारायण जी परमेसर जी
आगै सगा जी नै लारै कुत्ती जी लप लप फेरा खासी जी॥’

 

नववधू के साथ आए उसके भाई के साथ वरपक्ष की औरतें प्रहसन करते हुए यह ‘गाळी’ गीत समवेत स्वर में सुनाती हैं—

 

‘भाटै ऊपर भरी तळाई, हां क हां रे लाल।
सगैजी नै कूटै घर री लुगाई, हां क हां रे लाल।
रोवत कूकत म्हारै आया, हां क हां रे लाल।
म्हारै कांनजी ले बुचकार्‌या, हां क हां रे लाल।
आऔ म्हांरा निमळा सगां, हां क हां रे लाल।
कण थांनै मार्‌या, थण थांनै कूट्या, हां क हां रे लाल।
मांगू रोटी, तांणै चोटी, हां क हां रे लाल।
मांगूं पापड़, दे पड़ापड़, हां क हां रे लाल।
मांगूं सीरौ, धामै खीरी, हां क हां रे लाल।
राबड़ी नै रात्यूं रोयौ, हां क हां रे लाल।
छाछ खातर छींकै चढ़ग्यौ, हां क हां रे लाल॥’

 

इसी प्रकार का एक अन्य लोकगीत इस प्रकार है—

 

‘ईसर चाल्यौ ये म्हारी गाया को गुवाळ
आंतण आयौ ये म्हारी कबरी गाय गुमाय
म्है तौ रेगी ये म्हारी बाबोसा की कांण
नीं तौ देती म्हैं तौ घैम घैसळां की च्यार
ईसर चाल्यौ ये म्हारी सांड्यां को गुवाळ
आंतण आयौ ये म्हारी भूरी सां’ड गुमाय
म्है तौ रैगी ये म्हारी काकौसा की कांण
नीतर देती यै घैम घैसळा की च्यार
ईसर चाल्यौ ये म्हारी लरड़ियां को गुवाळ
आंतण आयौ ये म्हारी घटौरी गुमाय
म्है तो रैगी ये म्हारै बीरौसा की कांण
नींतर देती घैम घैसळां की च्यार
ईसर राबड़ी सबौड़।’

 

दूल्हे के भोजन करते समय वधू की बहनें तथा अन्य सखियां उसके भोजन करने, बोलने और बैठने आदि के तरीके का प्रहसन करते हुए ‘गाळियों का गायन करती हैं जिनमें से एक का अंश इस प्रकार है—

 

‘जीजा ओ थारी जीमण री चतराई
जाणैं भैंस चाट पर आई ओ जीजा जी!
जीजा ओ थानै बोलण री चतराई
जाणैं कागां राड़ मचाई ओ जीजा जी! 
जीजा थारै बैठण री चतराई
जाणैं ऊंठ रा आसण सजाई ओ जीजा जी!

 

जीजा को लक्षित करके कुछेक अन्य गीत भी गाए जाते हैं जिनमें उसकी माता के दूसरे के साथ भाग जाने, उसे अनेक पिताओं का पुत्र बताना, उसे बालक बताना तो कहीं वृद्ध बताकर नवयौवना वधू के लिए उसे अयोग्य बताना आदि प्रहसन किए जाते हैं।

 

वस्तुतः ‘गालियां लोकगीत वैवाहिक अवसर का एक महत्त्वपूर्ण मनोरंजक अंग होता है जिसके माध्यम से इस मांगलिक आयोजन के आनंद में अभिवृद्धि होती है। इसके साथ ही परम्परागत वातावरण की बंदिशों में बंधी हुई औरतों को जीवन में यदा-कदा मिलने वाले भावाभिव्यक्ति के अवसर प्राप्त होते हैं। 

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