लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं में लोकनाट्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लोकनाट्य मानव सभ्यता के आरंभ से ही मानव सृष्टि के चिर सहचर रहे हैं। प्रत्येक कालखंड में सामान्य जनता को मनोरंजन की जरूरत रही है और इसके चलते ही विविध लोकानुरंजन विधाओं का जन्म हुआ। लोकानुरंजन की विविध विधाओं में लोकनाट्य सदैव से ही सर्वप्रिय व सर्वप्रमुख साधन रहा है। लोकनाट्यों को प्राचीन भारतीय नाट्य कलाओं का परंपरागत प्रतिनिधि माना जाता है। साधारणतया लोक साहित्य का वह प्रकार जिसे रंगमंच पर अभिनीत किया जा सके, लोकनाट्य कहलाता है।

लोक साहित्य दीर्घकाल से चली आ रही लोकहृदय की वह सरस भाव सलिला है जो लोकजीवन में चिरकाल से प्रवाहित होती रही है। लोक साहित्य की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी कि मानव जाति। अनादि काल से ही लोकगीत, लोकगाथा, लोकनाट्य, लोकोक्तियों आदि की परंपरा चली आ रही है।

लोकनाट्य लोक साहित्य की एक लोकप्रिय विधा है। यह रंगमंचीय विधा है जो अपनी कई विशेषताओं के कारण बेहद लोकप्रिय रही है। इसमें गीत, संगीत, कथा और अभिनय आदि चार  तत्त्व सम्मिलित रहते हैं। इसके साथ ही इसमें लोक साहित्य के विविध अंगों जैसे गीत, कथा, लोकगाथा, वार्ता, लोकोक्तियां, नृत्य-नाट्य आदि का समावेश होने से यह विधा लोक साहित्य का खास अंग बन गई है। नाट्यों को लोक साहित्य रूपी फुलवारी में एक फला-फूला और मनभावन दृश्य कहा जा सकता है।

लोकनाट्य का क्षेत्र विविधतापूर्ण है। इसमें जितनी शैलीगत विधाएं हैं, उतनी तो आधुनिक नाट्य साहित्य में भी नहीं हैं। इसका खास कारण सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही समृद्ध परंपरा है। वस्तुत: लोकनाट्यों का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब मनुष्य ने आंगिक चेष्टाओं से भावाभिव्यक्ति करना सीख लिया था। असल में लोकनाट्य लोक-संस्कारों के स्त्रोत से निकला हुआ है जो अपनी परंपरा के साथ लोकजीवन से जुड़कर सदैव आलोकित रहा। लोकनाट्य लोक-मानस के उल्लासमय क्षणों की स्वाभाविक भावाभिव्यक्ति है, जिसमें गीत-संगीत, नृत्य और अभिनय के साथ लोक-प्रचलित कथावस्तु का लोकभाषा में अभिनीत प्रस्तुतीकरण सम्मिलित है। यह दृश्य-श्रव्य स्वरूप लोक-मानस को हर्षित करता रहता है।

राजस्थान की लोकधर्मी कलाओं में लोकनाट्यों की समृद्ध परंपरा रही है। राजस्थानी लोकनाट्यों में विविधता और प्रस्तुतिकरण की खास शैलियां प्रचलित रही हैं। इतनी विविधताएं दूसरी भाषाओं के लोकनाट्यों में देखने को नहीं मिलती। भारतीय लोकनाट्यों में राजस्थानी लोकनाट्य अपनी मंचीय प्रस्तुति की खास शैली के कारण बेहद लोकप्रिय रहे हैं। इन्हें शैलीगत आधार पर ख्याल, स्वांग, लीला आदि लोकनाट्य विधाओं में बांटा जा सकता है। इनमें से ख्याल नाट्यों का क्षेत्र विस्तृत है क्योंकि उनके अनेक प्रकार लोकजीवन में प्रचलन में हैं। जैसे – शेखावाटी ख्याल, कुचामणी ख्याल, अलीबख्शी ख्याल, तुर्रा-कलंगी, मारवाड़ी ख्याल, रम्मत आदि। लीला नाट्यों में रासधारी व रामलीला प्रमुख है।

इनके अलावा भी राजस्थान में लोकनाट्य के विविध रूप मिलते हैं। सामुदायिक लोकनाट्यों में भील समुदाय का “गवरी” लोकनाट्य बेहद लोकप्रिय है। जयपुर क्षेत्र में गीति नाट्य “तमाशा” प्रचलित है जिसमें ख्याल और ध्रुपद गायकी का मेल होता है। भरतपुर, अलवर, करौली, सवाई माधोपुर और धौलपुर जिलों में “नौटंकी” लोकनाट्य काफी लोकप्रिय है जिसमें नृत्य भी शामिल रहता है। कठपुतली के खेल भी लोकनाट्यों में गिने जाते हैं।

इस प्रकार सिद्ध होता है कि राजस्थानी लोकनाट्य क्षेत्र में कथानकीय और मंचन शैली में  विविधता होने के साथ-साथ प्रस्तुति में रोचकता भी होती है। ये लोकनाट्य वर्ण्य-विषय की दृष्टि से भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं। राजस्थानी लोकनाट्यों की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि आज भी इन्हें देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग एकत्र होते हैं। इन नाट्यों के कलेवर से राजस्थानी लोकजीवन का उदात्त स्वरूप उभरकर सामने आता है। इसके साथ ही राजस्थानी संस्कृति का तात्विक दर्शन भी इन लोकनाट्यों के माध्यम से किया जा सकता है।

लोकनाट्य में लोकधर्मिता होना उसका सबसे बड़ा गुण है। लोकजीवन से उसका अंग-प्रत्यंग का नाता होता है। लोकनाट्य का अनगढ़ मंचन लोक के मनोभावों और प्रतिक्रियाओं के रूप में होता है। मंचन के दौरान पात्रों की वेशभूषा और प्रस्तुति का तरीका यहां की संस्कृति को उजागर करता है।

लोकनाट्यों की मंचीय प्रस्तुति में मूल विषय से जुड़े कथानकों के बंधन को नहीं माना जाता है। प्रस्तुत करने वाले लोग कथानकों में मामूली हेरफेर करते रहते हैं। कथा के प्रवाह को लोक-भावनाओं के अनुरूप मोड़ दिया जाता है। मंचीय प्रस्तुति के दौरान दर्शकों में हास्य बोध पैदा करने के लिए कुछेक प्रहसननुमा बातें भी जोड़ दी जाती हैं।

लोकनाट्यों के पात्र सामाजिक प्रवृति-विशेष के प्रतिनिधि होते हैं जिनके माध्यम से किसी व्यक्ति-विशेष का चरित्रांकन नहीं होता, अपितु ये पात्र समूचे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके अलावा इन पात्रों से स्थानीय रंगत के भी चित्राम उभरकर सामने आते हैं।

राजस्थानी लोकनाट्य का सरंचनात्मक ढांचा तीन कुशलताओं यानि अभिनय-कौशल, नृत्य-कौशल और गीत-संगीत कौशल पर आधारित होता है। इन सभी के मेल के कारण ही लोकनाट्य दर्शकों के बीच सबसे अधिक लोकप्रिय विधा माना जाता है। ज्यादातर लोकनाट्य व्यक्तित्व की छाप से परे होते हैं। लोक इनके असल रचनाकार के बारे में अनभिज्ञ होते हुए भी इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी से जीवित रखे हुए है।

लोकनाट्यों का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना ही नहीं है अपितु इनमें सामाजिक सरोकार भी समाहित रहते हैं। सर्वसाधारण का नैतिक उत्थान करना और लोक की ज्ञान-पिपासा को शांत करना भी इन लोकनाट्यों का खास लक्ष्य है।

सार रूप में लोकनाट्यों को लोक की सामूहिक निधि कहा जा सकता है। इनके कथानकों में समाहित विषयगत विविधताएं मंचन के समय लोक के समक्ष कई रंग-बिरंगी दृश्यावली प्रस्तुत करती हैं। मनोरंजन के आधुनिक साधनों के चलते लोकनाट्य रूपी अमूल्य निधि के समक्ष संकट गहराता  जा रहा है। अधिकांश लोकनाट्य अलिखित स्वरूप में हैं जिन्हें सरंक्षित करना जरूरी है। इसके अलावा इन लोकनाट्यों के मंचन के दौरान आधुनिक माध्यमों के सहारे रिकॉर्ड आदि करने से भी इनका सरंक्षण किया जा सकता है। वस्तुत: ये लोकनाट्य राजस्थानी समाज का पूर्ण-रूपेण सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें लोकानुरंजन करने की क्षमता के साथ-साथ आदर्श और यथार्थ का अनूठा मेल देखा जा सकता है।
जुड़्योड़ा विसै