प्राचीन समय में जयपुर और इसके आस-पास का क्षेत्र ढूँढ़ाड़ कहलाता था। जयपुर, शेखावाटी, अलवर के अधिकतर भाग ढूँढ़ाड़ प्रदेश के नाम से आज भी जाने जाते हैं। विद्वानों का मत है कि ढूँढ नामक राक्षस के कारण इस प्रदेश का नाम ढूँढ़ाड़ पड़ा। कुछ का कथन है कि उजड़े हुए और मरु के टीलों से युक्त होने के कारण यह प्रदेश ढूँढ़ाड़ कहलाया। ढूँढ नदी भी इसी के नामकरण का प्रमुख आधार मानी जा सकती है।

चित्रकला के विकास की दृष्टि से इस प्रदेश की सीमा रेखाएँ और विस्तृत हो जाती हैं। ढूँढ़ाड़ स्कूल में हम आमेर शैली, जयपुर शैली, अलवर शैली, शेखावाटी शैली, उणियारा उपशैली आदि का विस्तृत अध्ययन कर सकते हैं। ढूँढ़ाड़ प्रदेश की अपनी निजी विशेषता एवं भौगोलिक सीमाएँ है जिनके कारण चित्रकला में आदान-प्रदान स्थापित रहा है। शासन के केन्द्रबिन्दु दिल्ली एवं संस्कृति के केन्द्र ब्रज के सम्पर्क में होने के कारण ढूँढ़ाड़ की चित्रकला शैली समय-समय पर नये रंगरूप में विकसित होती रही है।


आमेर-शैली
आमेर-शैली, कछावा-शैली कुशवाह वंश के राजाओं की धरोहर है। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में ग्वालियर के पास नरवर में इनका वृहद् साम्राज्य रहा। ग्यारहवीं शताब्दी में सोढ़देव अपने पुत्र दूलहराय के साथ ढूँढ़ाड़ प्रदेश में आये और धीरे-धीरे उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। इनके वंशजों ने दौसा, देवती, खोह आदि के बाद आमेर को अपनी राजधानी बनाया, जो सात सौ वर्षों तक राजधानी रही। इस प्रकार ढूँढ़ाड़ प्रदेश में कुशवाहों का वृहद् साम्राज्य स्थापित हो गया। इन सात सौ वर्षों में आमेर कला और संस्कृति का केन्द्र रहा।

शिलालेखों एवं साहित्य में इस स्थान का उल्लेख 'अम्बावती नगरी के रूप में उपलब्ध है जिसकी उत्पत्ति अम्बिकेश्वर महादेव के स्वरूप से आँकी जाती है। पुरातात्त्विक दृष्टि से भी यह स्थान कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। 7वीं शताब्दी का सूर्य मंदिर तथा प्रतिहारकालीन कल्याणराय का मंदिर कुशवाहों की इस नगरी की पूर्वगाथा संजोये हुए है। आमेर का सर्वाधिक प्रमुख कलात्मक स्मारक यहाँ का राजप्रासाद है, जो आमेर के महलों के नाम से जगत-विख्यात है। इसका निर्माण प्रारम्भिक कछवाह नरेशों द्वारा किया गया, किन्तु इसका विस्तार महाराजा मानसिंह द्वारा किया गया और बाद में तो कलात्मक श्रृंखलाएँ जुड़ती चली गयीं। इस समयावधि में इन महलों में गणेश-पोल, दीवाने-आम, दीवाने खास, जस-मंदिर, सोहाग-मंदिर, भोजनशाला आदि कक्षों का कलात्मक निर्माण हुआ।

कुशवाहों की समृद्ध-परम्परा होने के कारण आमेर की चित्रकला कला के विकास की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। प्राचीनतम उदाहरण तो अनुपलब्ध हैं, किन्तु 16वीं शती उत्तरार्द्ध के ग्रंथों एवं भित्ति-चित्रों के आधार पर आमेर शैली का निर्धारण सहज ही किया जा सकता है। सन् 1540 का पालम का सचिव आदि पुराण तथा सिटी पैलेस म्यूजियम का रज्मनामा और महाराजा मानसिंह के ही शासनकाल का (1590) तिथियुक्त सचित्र ग्रंथ यशोधर-चरित्र इस दृष्टि से कछवाह कला के प्रारम्भिक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य हैं।

पालम (योगिनीपुर) में पुष्पदत्त का सन् 1540 का आदि पुराण राजस्थानी चित्रकला के उद्भव और विकास की श्रृंखलाओं को ही नहीं जोड़ता, वरन् आमेर शैली के प्रारम्भिक स्वरूप को भी उजागर करता है। 344 पृष्ठ का लगभग साढ़े पाँच सौ चित्रों से सुसज्जित यह ग्रंथ राजस्थानी चित्रकला के लिए दीप-स्तम्भ के समान है। जैन कला से राजस्थानी चित्रकला पर लोक-संस्कृति एवं तकनीक का जो प्रभाव धीरे-धीरे संतरित हुआ है, उसे इस ग्रंथ में पढ़ा जा सकता है। इसी क्रम में जयपुर के प्रसिद्ध ईसरदा ठिकाणे का सचित्र भागवत (1550-80) आमेर कला के नये आयाम प्रस्तुत करता है। मुगल प्रभाव से परे ठेठ प्रारम्भिक राजस्थानी कला की विशिष्टताएँ लिए यह ग्रंथ आमेर शैली की प्रमुख कड़ी जोड़ता है।

जयपुर के पोथीखाने में सुरक्षित रज्जबनामा अकबर के लिए तैयार किया गया जिसमें आमेर के अड़तालीस चित्रकारों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने इसके सुलेखन और 169 चित्रों को तैयार करने में सहयोग दिया। मुगल और आमेर शैली का मिलाजुला प्रभाव इस ग्रंथ की विशेषता है। अकबर के दरबारी प्रमुख सामंत होने के कारण राजा मानसिंह कला-प्रेमी और कला-संरक्षक थे। उनके शासनकाल में ‘यशोधर चरित’ की पाण्डुलिपि सन् 1590 में आमेर के नेमिनाथ जिन चैत्यालय में चित्रित की गयी, जो 47 उत्कृष्ट चित्रों से सुसज्जित है। इसी प्रकार महाराजा मानसिंह की जन्मस्थली, मोजमाबाद में सन् 1606 में चित्रित आदिपुराण, आमेर एवं अपभ्रंश शैली का एक महत्त्वपूर्ण सचित्र ग्रंथ है, जिसके आधार पर आमेर शैली के उद्भव और विकास की समृद्ध परम्परा का सहज ही ज्ञान होता है। अजन्ता और एलोरा की इस परम्परा का वहन करने वाली राजस्थानी चित्रकला के सही हालत में भित्ति चित्रण के साक्ष्य आमेर शैली में उपलब्ध हैं, जिनमें मानसिंह की छतरी, मुगल गार्डन, बैराठ राजप्रासाद, आमेर, भाऊपुरा की छतरी, मौजमाबाद के महल आदि पुरासाक्ष्य के आधार हैं।

सन् 1600-1614 के आसपास के आमेर की छतरियों के भित्ति-चित्रण इस शैली के प्राचीन उपलब्ध उदाहरण हैं, इनमें मानसिंह की छतरी में उपलब्ध भित्तिचित्र चित्रकला के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। छतरी के अन्दर इन चालीस चित्रों का पैनल आमेर शैली का प्रारम्भिक इतिहास प्रदर्शित करता है। ये चित्र जयपुर की प्रचलित आराइश शैली में न बनकर सीधे ही पत्थर पर बनाये गये हैं। प्रत्येक चित्र एक आर्च से बंधित है।

विषयवस्तु की दृष्टि से इन चित्रों में शिकार, अवतार, कुश्ती, योग, लैला-मजनूँ, रागरागिनी, हाथी, ऊँट, बैल की सवारी तथा पशुओं की लड़ाई प्रमुख हैं। गेरू, रामरज, सफेदा, कालूस आदि मौलिक रंगों का इन चित्रों में प्रयोग हुआ है। रेखांकन लाल या काले रंग में किया गया है और फिर चित्र में रंग भरे गये हैं। इन चित्रों उत्तर अकबर और पूर्व जहाँगीरकालीन चित्रण का प्रभाव विशेष दृष्टिगोचर होता है। चार नौक का चाकदार जामा, घेरदार जामा तथा जहाँगीरी पगड़ी के प्रभाव के साथ ही लोक-कलात्मक प्रभाव इन चित्रों की विशेषता है। औरतें राजस्थानी वस्त्र अर्थात् घाघरा, ओढ़नी, चोली आदि के साथ ही मुगल शैली के वस्त्राभूषण पहने हुए भी प्रदर्शित की गयी हैं।

आमेर की छतरियों के अतिरिक्त बैराठ के तथाकथित मुगल गार्डन में भी आमेर शैली के भित्ति-चित्र अंकित हैं, जिनमें रागरागिनी, कृष्ण-लीला, नायिका-भेद, लैला-मजनूँ, कुश्तीबाज, हाथी, घोड़े, ऊँट आदि की सवारी का चित्रण हुआ है। प्रारम्भिक आमेर शैली के अध्ययन की दृष्टि से ये चित्र महत्त्वपूर्ण हैं। जयपुर के पास ही मौजमाबाद भी प्रारम्भिक आमेर शैली का गढ़ रहा है। मौजमाबाद की छतरी में भी उपर्युक्त शैलीगत विशेषताएँ भित्ति चित्रण में उपलब्ध होती हैं जो अब नष्टप्रायः हैं।

आमेर शैली पर मुगल शैली का प्रभाव अधिक है; आमेर की छतरियों तथा आमेर के राजप्रासादों की भोजनाशाला के स्याह कलम के तीर्थ-स्थलों के चित्र, जगत-शिरोमणि मंदिर के भित्तिचित्र, शाह मखदूम के मकबरे का भित्यांकन, बैराठ के बाग तथा राजा मानसिंह के जन्म-स्थान मौजमाबाद के भित्तिचित्र इसी कारण मुगल शैली से प्रभावित हैं। प्रसिद्ध सचित्र ग्रंथ रज्मनामा (1584-1588) जो अकबर के दरबार में चित्रित हुआ और सिटी पैलेस म्यूजियम, जयपुर में उपलब्ध है; आमेर शैली के प्रारम्भिक स्वरूप एवं कलात्मक आदान-प्रदान का रूप दृष्टिगोचर होता है।

आमेर शैली का दूसरा चरण मिर्जाराजा जयसिंह (1625-1667) प्रारम्भ होता है। बिहारी जैसे रीतिकालीन शब्द-चित्रकार मिर्जाराजा के दरबारी रत्न थे, जिनकी ‘बिहारी सतसई’ ने अनेक चित्रकारों और रसिकजनों को प्रभावित किया। खेद यही है कि तत्कालीन चित्र बहुत कम उपलब्ध होते हैं। जिनमें लोक-कला की विशेषता और मुगल प्रभाव झलकता है।


आमेर-शैली की विशेषताएँ
आमेर शैली की अपनी निजी विशेषताएँ हैं। भित्ति-चित्रण आमेर शैली की दाय है जिसमें पुरुष और स्त्रियों की शारीरिक बनावट राजस्थानी लोक-कला से अधिक प्रभावित है। मुगलों से सम्बन्ध होने के कारण सांस्कृतिक आदान-प्रदान स्वाभाविक था, अतः शारीरिक बनावट और वेशभूषा में अकबरकालीन तथा जहाँगीरकालीन वस्त्राभूषणों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। चार नौक का जामा और बाद में घेरदार जामा तथा चुस्त पाजामा, जहाँगीरी पगड़ी, चगताई औरतों जैसा पहनावा आदि चित्र आमेर शैली में द्रष्टव्य है। हाथों में काले-फुंदने, घाघरा, ओढ़नी, चोली आदि ठेठ राजस्थानी लोक-जीवन से सम्बन्धित हैं। रेखाओं में अपभ्रंश-कालीन भदेसपन तथा प्राकृतिक रंग जैसे हिरमच, गेरू, कालूस, सफेदा, पेवड़ी आदि का प्रयोग बहुलता हुआ है। पशु-पक्षियों और पेड़ों की बनावट भी लोक-कला के अधिक नजदीक है। कुल मिलाकर आमेर शैली का अपना रूप-विधान है जो इन भित्ति चित्रों और कुछेक सचित्र ग्रंथों में दर्शनीय है।


जयपुर-शैली
जयपुर को आमेर शैली विरासत के रूप में मिली। या यों कहना चाहिये कि आमेर शैली ही जयपुर शहर बसने के कारण नये रंगरूप में विकसित हुई तभी से जयपुर शैली के नाम से जानी जाने लगी। महाराजा सवाई जयसिंह ने जयपुर शहर का निर्माण (सन् 1727) कराना प्रारम्भ किया और आमेर से हटाकर जयपुर को बड़े वैज्ञानिक और नियमबद्ध तरीके से बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। वे महान् गणितज्ञ, ज्योतिषि, नक्षत्रशास्त्री तथा कला-प्रेमी राजा थे, अतः उन्होंने वेधशाला, चन्द्रमहल, जयनिवास बाग, तालकटोरा, सिसोदिया रानी का महल जैसी भव्य इमारतें बनाकर जयपुर को एक नवीन आयाम दिया

अपने आकर्षक शिल्प-सौष्ठव, मोहक रंगविधान और सुव्यवस्थित बसावट के कारण जयपुर भारत का प्रसिद्ध गुलाबी नगर रहा है। श्रेष्ठ परम्परावादी लघुचित्रों, कलात्मक उद्योग, उल्लासपूर्ण त्यौहार तथा रंग-बिरंगी वेशभूषा के कारण यह शहर प्रारम्भ से ही संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है। कलात्मक धरोहर इसे विरासत में मिली, अतः जयपुर की चित्रकला का प्रारूप भी अन्य कलाओं के केन्द्र में रहा। जयपुर के नवनिर्माण के कारण देशभर के वास्तुकार, कलाकार व अन्य गुणीजनों का जमघट राजधानी में होने लगा। पारस्परिक कछावा या आमेर शैली के लोक-कलात्मक परिवेश से सुसंस्कृत कोमल चित्रांकन को विशेष महत्त्व दिया। मुगल दरबार के पुराने सम्बन्धों के कारण मुगल शैली की नफ़ासत इस समय और उभरकर सामने आयी। महाराजा सवाई जयसिंह का दरबारी चित्रकार मुहम्मदशाह था, उसने कुछ ग्रंथों को बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित किया। मुगल शैली के अत्यधिक प्रभाव के कारण इस काल के प्राप्त चित्रों के बारे में भ्रम होने लगता है, पर फिर भी गुलाबी नगर, जयपुर के निर्माता महाराजा सवाई जयसिंह का काल (1699-1743) अन्य कलाओं के साथ-साथ चित्रकला की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण रहा है।

सवाई जयसिंह के पुत्र ईश्वरीसिंह (1743-1750)  तांत्रिक थे; अल्प समय में उन्होंने मराठा विजय के फलस्वरूप ईसरलाट का निर्माण कराया। उनके समय में साहिबराम नामक चितारा एक प्रतिभाशाली कलाकार के रूप में उभरकर आया। उसने ईश्वरीसिंहजी का एक आदमकद चित्र चंदरस से बनाया जो उच्चकोटि की कलाकृति है। इनके समय का दूसरा चित्रकार लाल चितारा था, जिसने पशु-पक्षियों की लड़ाई के अनेक चित्र बनाये। ये चित्र अत्यधिक सजीव और भावनात्मक हैं।

सवाई माधोसिंह-प्रथम के समय (1750-1767) गलता के मन्दिरों, सिसोदिया रानी के महल तथा चन्द्रमहल को भित्ति-चित्रों से सुसज्जित करवाया। भित्तिचित्रों की परम्परा जयपुर की हवेलियों तक में प्रवेश पा गयी। पुण्डरीक की हवेली के भित्तिचित्र इस दृष्टि से विशेष महत्त्व के हैं। साहिबराम इस समय मंजे हुये कलाकारों में गिना जाने लगा। वह बड़े आकार की पोट्रेट बनाता था। इस काल के दो और कलाकार रामजीदास और गोविंद भी बड़े आकार की तस्वीरें बनाते थे। लाल चितारा, राजकीय खेलों के अंकन में मगन रहा। इस समय की चित्रकारी में मुगल प्रभाव धीरे-धीरे विलीन होने लगा और शुद्ध राजपूत शैली की प्रधानता झलकने लगी। अलंकारों के चित्रण के स्थान पर मोती, लाल और लकड़ी की मणियों को चिपका कर रीतिकालीन आलंकारिक मणिकुट्टिम की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाने लगा।

महाराजा पृथ्वीसिंह का समय (सन् 1767-1779) अल्प रहा। राज्य के आश्रित कलाकार इनके समय में भी चित्रांकन करते रहे। दरबारी चित्रकार, हीरानन्द और त्रिलोक का कार्य विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने सन् 1778 में महाराजा का आदमकद पोट्रेट बनाया। महाराजा पृथ्वीसिंह के आकस्मिक निधन के कारण उनके छोटे भाई सवाई प्रतापसिंह (1779-1803) ने राज्य का कार्यभाल संभाला। सवाई प्रतापसिंह कलाप्रेमी और साहित्यिक अभिरुचि के राजा थे, अतः उन्होंने जयपुर के कलात्मक जीवन में नवीन पृष्ठ जोड़े। धर्म और काव्य के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। वे स्वयं ब्रजनिधि के नाम से काव्य-रचना करते थे और पुष्टिमार्गी उपासक होने के कारण कृष्ण-भक्ति में विशेष अनुराग रखते थे। उनके रचित इक्कीस ग्रंथ उपलब्ध हैं। जगत प्रसिद्ध हवामहल का निर्माण इन्हीं के समय में हुआ। कलात्मक रीति के कपाटों से सुसज्जित प्रीतम निवास, दीवाने-आम, चन्द्रमहल की ऊपरी मंजिलें आदि इन्हीं की प्रेरणा से निर्मित हुईं।

कवि, चित्रकार और भक्त होने के कारण अनेक कवि और चित्रकार उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। वरिष्ठ चित्रकार साहिबराम अभी भी चित्रांकन में संलग्न था। उसके बनाये तीन प्रसिद्ध चित्र अद्वितीय कलाकृति हैं जिनमें से दो महाराजा के पोट्रेट तथा एक राधा-कृष्ण के नृत्य से सम्बन्धित है। इनके समय में राधाकृष्ण की लीलाओं, नायिकाभेद, रागरागिनी, ऋतु-वर्णन आदि से सम्बन्धित चित्रांकन विशेष रूप से हुआ जिनमें राजा और रानियों के विशाल आदमकद चित्र तथा भागवत पुराण, दुर्गा सप्तशती, कृष्ण-लीला आदि के अनेक चित्र उल्लेखनीय हैं। साहिबराम के अतिरिक्त अन्य कलाकारों में जीवन, घासी, सालिगराम, रघुनाथ, रामसेवक, गोपाल, उदय, हुक्मा, चिमना, दयाराम, राजू, निरंजन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्होंने जयपुर शैली में भित्तिचित्रण तथा लघुचित्रण दोनों ही विधियों में कार्य किया।

सवाई जगतसिंह (1803-1818) के दरबार में प‌द्माकर जैसे प्रसिद्ध रीतिकालीन कवि थे, जिन्होंने 'जगद्-विनोद' की रचना कर जयपुर घराने को बिहारी सतसई से जोड़ दिया; सवाई जगतसिंह के उपरान्त जयपुर शैली की मौलिकता अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति के प्रभाव के कारण अधिक दिन नहीं टिक सकी और उसमें कंपनी शैली का प्रभाव प्रविष्ट होने लगा। महाराजा रामसिंह के समय में चित्रकार यथार्थवादी शैली में चित्र बनाने लगे। फोटोग्राफी के ढंग से पोट्रेट चित्रित किये जाने लगे। अंग्रेजी प्रभाव एवं कलाकारों की इस प्रवृत्ति को देखकर महाराजा ने महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स की स्थापना कर यहाँ की चित्रकला को नया मोड़ दिया। उनके आदेशानुसार नगर को गुलाबी आवरण दिया गया जिससे यह गुलाबी नगरी नये परिवेश में उभरकर सामने आयी।

जयपुर शैली का सम्बन्ध जयपुर के राजघराने से ही नहीं रहा, वरन् जयपुर से सम्बन्धित ताज़ीमी बड़े ठिकानों में भी दूर-दूर तक चित्रकला पनपी और विकसित हुई। ईसरदा, सिवाड़, झिलाय, उणियारा, चौमूं, मालपुरा, सामोद आदि स्थानों में समय-समय पर चित्रण हुआ। कुछ ठिकानों की कला तो अपनी विशेषताओं के साथ उभरकर सामने आई। उणियारा में अलग की उपशैली विकसित हुई जिसमें जयपुर और बूँदी शैली का सम्मिश्रण विशेष दर्शनीय है। उणियारा के महल का भित्तिचित्रण तथा उणियारा दरबार के निजी संग्रह और कुँवर संग्रामसिंह के संग्रह में उपलब्ध लघुचित्र इस बात के साक्षी हैं। सामोद के महलों का चित्रण भी जयपुर शैली की भित्तिचित्रण परम्परा में ही है।


जयपुर-शैली की विशेषताएँ
प्रारम्भिक जयपुर शैली आमेर की पारम्परिक कला के अनुकूल होने के साथ ही मुगल दरबार के पारस्परिक आदान-प्रदान के कारण शैली के प्रभाव क्षेत्र में अधिक रही है, पर धीरे- धीरे राजपूत संस्कृति की मौलिकता को ग्रहण किया, जिसके फलस्वरूप जयपुर शैली के चित्रों में लोक-कलात्मक तथा राजपूत वैभव की प्रधानता दृष्टिगोचर हुई। गलता, पुण्डरीक की हवेली, चन्द्रमहल, सिसोदिया रानी का महल तथा नगर सेठों की हवेलियों और मंदिरों में भित्ति चित्रण की विशिष्ट परम्परा के साथ ही सैकड़ों सचित्र ग्रंथ, हजारों लघु-चित्र तथा आदमकद और बड़े पोट्रेट जयपुर-शैली की अनोखी दाय हैं, जो सिटी पैलेस म्यूजियम, राजकीय संग्रहालयों तथा निजी संग्रहालयों में उपलब्ध हैं। कुँ. संग्रामसिंह के अनुसार जयपुर शैली की निम्नांकित विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं-

जयपुर शैली में कलाकारों ने बड़े-बड़े केनवासों पर आदमकद चित्र बनाकर चित्रकला में नई परम्परा डाली। प्रारम्भिक चित्र अवश्य पारम्परिक शैली में बनते रहे। सैकड़ों व्यक्तिचित्र और समूह-चित्र जयपुर-शैली की अपनी विशेष दाय हैं, जिनमें राजा, सामन्त, जागीरदार, कलाकार आदि के व्यक्तिचित्र तथा शाही सवारी, महफिलें, उत्सव, रागरंग, शिकार आदि का समूह-चित्रण बहुलता से हुआ है। लघुचित्रों एवं पोथी चित्रों की परम्परा में गीत गोविन्द, रामायण, कृष्ण लीला, दुर्गा सप्तशती, महाभारत, रागरागिनी, बारहमासा, नायिका भेद, काम-कला आदि का चित्रण बहुलता से हुआ है।

भित्ति-चित्रण की परम्परा-शैली की निजी दाय है। आमेर शैली की परम्परा में जयपुर शहर के निर्माण के बाद महलों, मन्दिरों, छतरियों और हवेलियों में आराइश का कार्य प्रचलन में आ गया और भित्ति चित्रण स्थापत्य का अंग हो गया। यह परम्परा 19वीं शती में इतनी प्रसारित हुई कि शेखावाटी के सेठों ने अपने-अपने नगरों में नयी अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप बड़ी-बड़ी हवेलियाँ बनाकर उन्हें चित्रण द्वारा सुसज्जित किया। जयपुर शैली के कलाकारों ने चित्रों के हाशिये बनाने में गहरी लाल रंग का प्रयोग किया। सफेद, लाल, नीला, पीला तथा हरा रंग जयपुर शैली में बहुलता से प्रयुक्त हुआ है। चाँदी और सोने का प्रयोग भी उन्होंने चित्रों में किया।

इस शैली के चित्रों में पुरुष तथा महिलाओं के कद अनुपातिक हैं। पुरुष पात्रों के चेहरे साफ तथा आँखें खंजनाकार हैं। उन्हें अधिकतर तलवार लिए अंकित किया गया है। जहाँ तक वस्त्राभूषणों का प्रश्न है, पुरुषों को विवाह के समय तुर्रा-कलंगी लगा सेहरा, कानों में लोंग, बाली या गुर्दा पहने दिखाया गया है। सुसम्पन्न व्यक्ति पगड़ी, कुर्ता, जामा, चौगा, अंगरखी, पायजामा, कमरबन्द, पटका, जूता आदि पहने हुए अंकित हुआ है।

नारी पात्रों का अंकन स्वस्थ, आँखें बड़ी, लम्बी केशराशि, भरा हुआ शरीर तथा सुहावनी मुद्रा में हुआ है। अन्य राजस्थानी शैलियों की भाँति इस शैली में भी नारियाँ टीका, टोंटी, बाली, हार, हंसली, सतलड़ी, टेवटा, कंठा, बाजूबन्द, चूड़ी, पायजेब आदि से विभूषित हैं। वस्त्रांकन में चोली, कुर्ता, दुपट्टा, लहँगा, बेसर, तिलक और कामदार जूतियों का प्रचलन अधिक रहा है।

कलाकारों ने पृष्ठभूमि के लिए उद्यानों का अंकन बड़ी दक्षता से किया है। शेर, चीता, हाथी, भेड़, बकरी, ऊँट, घोड़ा, गाय, बैल, मोर, बतख, तोता आदि का विषयानुकूल अंकन हुआ है। सन् 1850 के बाद विदेशी प्रभाव के कारण फोटोग्राफी का प्रभाव तथा विदेशी स्थापत्य और वेशभूषा का अंकन जयपुर शैली में समाविष्ट हो गया और धीरे-धीरे शैली की निजी विशेषताएँ लुप्तप्रायः होने लगीं।


शेखावाटी-शैली
15वीं शती में कछावा वंश में बालाजी के पौत्र और मोकलजी के पुत्र शेखाजी एक वीर और न्याय परायण व्यक्ति हुए जिन्होंने अपने बाहुबल से एक स्वतंत्र एवं विस्तृत राज्य की स्थापना की, जो आगे चलकर शेखावाटी के नाम से प्रचलित हुआ। यह प्रदेश राजस्थान की मरुभूमि का ही एक अभिन्न अंग है और लक्ष्मी, सरस्वती और कला का संगम स्थल माना जाता है। रामायणकाल और मरुकान्तार तथा महाभारत काल में मत्स्य की सीमाओं में आने वाला यह वहद् भूभाग कला की दृष्टि से ढूँढ़ाड़ चित्रकला स्कूल की शेखावाटी चित्रशैली के नाम से जाना जाता है। चित्रकला के अध्ययन की दृष्टि से शेखावाटी क्षेत्र आमेर और बैराठ की भित्तिचित्रण परम्परा तथा जयपुर के महल, मन्दिर और विशेषतः हवेलियों के चित्रण ने शेखावाटी क्षेत्र को भी प्रभावित किया और हवेली संगीत की भाँति हवेली चित्रकला का प्रसार शेखावाटी क्षेत्र में विस्तार से हो गया।

प्राचीन समय से ही यह भूभाग दुर्गम एवं जंगलों से घिरा होने के कारण तथा ताँबे की बहुत उपलब्धि के कारण संस्कृति का केन्द्र रहा है। नीमकाथाना से 10 किलोमीटर दूर गणेश्वर में पुरातत्त्व की खुदाई में ताम्रयुगीन संस्कृति के आज से 5 हजार वर्ष पुराने सैकड़ों तीर के फलक, भाले की नोंक, आभूषण, मछली पकड़ने के काँटे और कुल्हाड़े आदि मिले हैं, जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा सिन्धु सभ्यता में काम आने वाला ताँबा यहीं से जाता था। शेखावाटी क्षेत्र में चित्रकला का प्रादुर्भाव हवेलियों के निर्माण से ही माना जाना चाहिए। अंग्रेजी राज्य की स्थापना के बाद यहाँ के सेठों ने अपना व्यापारिक क्षेत्र बढ़ाया। वे अंग्रेजों के व्यापार के सहभागी बने और अपने साहस और उत्साह के कारण लोटा और डोर लेकर घर से कलकत्ता-बम्बई की ओर निकल पड़े।

शेखावाटी 19वीं शती के पूर्वार्द्ध से ही व्यापारिक केन्द्रों में शामिल हो गया तथा वणिकों के बाहर जाकर व्यापार करने के कारण यह प्रदेश लक्ष्मी का निवास स्थल हो गया। इस तरह पिलानी के बिड़ला, नवलगढ़ के पोद्दार, मुकुन्दगढ़ के कानोड़िया, बगड़ के बाँगड़, फतहपुर के गोइनका रामगढ़ के रूइया तथा डालमियाँ, बजाज, जयपुरिया आदि बड़े औद्योगिक घरानों ने भारतीय अर्थनीति में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया। उन्होंने अपने-अपने नगरों में बड़ी-बड़ी हवेलियाँ तथा मंदिर तथा छतरियाँ बनवाईं तथा उन्हें चितारों से चित्रित करवाया। हवेलियों की रंगशालायें तथा आन्तरिक और बाह्य परिवेश चित्रकला से सुसज्जित हैं।

चूँकि हवेली चित्रकला 19वीं शती की देन है, अतः इसमें लोककला के साथ-साथ कंपनी शैली का पूर्ण प्रभाव है। अंग्रेजों के आगमन से यातायात के साधनों तथा रहन-सहन, वेशभूषा तथा नवीन आविष्कारों के कारण सेठ लोग प्रभावित हुए और उन्होंने कम्पनी सभ्यता के प्रभाव को अपनी हवेलियों में अंकित करवाया। 19वीं शती के प्रभाव, चमत्कार तथा जनजीवन के उत्साह और कार्य-कलापों का शेखावाटी शैली में अच्छा अध्ययन हो सकता है।

सेठों की ये हवेलियाँ वृहदाकार में भारतीय वास्तुशास्त्र के आधार पर बनी हुई हैं, नवलगढ़, लक्ष्मणगढ़, मुकुन्दगढ़, चूरू, सरदारशहर, रामगढ़ फतेहपुर आदि कस्बों की हवेलियों का वास्तुशास्त्र की दृष्टि से और कला की दृष्टि से अध्ययन होने की गुंजाइश है। ये हवेलियाँ लकड़ी के बड़े-बड़े कलात्मक कपाटों से सुसज्जित हैं तथा गवाक्ष, दरवाजे तथा सामने की दीवारें राजपूत शैली और कम्पनी शैली से प्रभावित चित्रों से मंडित हैं। हवेली के अन्दर भी यथास्थान चित्रण हुआ है। कुछ हवेलियों में तो चित्रशालायें बनी हुई हैं जिनमें शीशों की जड़ाई सोने की हिल का बहुलता से प्रयोग हुआ है। प्रमुख द्वार को अत्यधिक खूबसूरती से सजाया गया है। उपर्युक्त कस्बों के मंदिरों में भी राम और कृष्ण की लीलाओं का बहुलता से चित्रण मिलता है। रींगस, रामगढ़, बिसाऊ, चूड़ी-अजीतगढ़ आदि स्थानों की छतरियों में विस्तार से चित्रांकन हुआ है जो आमेर की परम्परा का विकसित स्वरूप है।

शेखावाटी का ऐसा कोई कस्बा नहीं है जहाँ बड़ी हवेली, छतरी एवं मन्दिर न हो तथा वहाँ चित्रण न किया गया हो। जयपुर के पास का क्षेत्र-चौमू, सामोद, रींगस, श्रीमाधोपुर, अजीतगढ़ आदि क्षेत्रों का भित्ति-चित्रण जयपुर-शैली से अधिक प्रभावित है। उसके विषय एवं रंग-रेखायें जयपुर-शैली के अनुकूल अधिक हैं। पाटण, गणेश्वर, छापोली, खेतड़ी तथा झुँझुनूँ के अनेक कस्बों की चित्रकला हरियाणा की लोककला से अधिक प्रभावित है। नागौर और बीकानेर की तरफ अर्थात् सीकर से पश्चिमांचल के कस्बों में मारवाड़ स्कूल का प्रभाव अधिक है।


शेखावाटी शैली के विषय
विषयवस्तु की दृष्टि से शेखावाटी शैली में विविधता मिलती है। असल में शेखावाटी की हवेलियों का निर्माण संक्रमणकाल की देन है। देशी रियासतों का प्रभुत्व क्षीण होता जा रहा था तथा अंग्रेजों का कम्पनी राज्य अपना विस्तार पा रहा था। शेखावाटी के सेठों का औद्योगिक महानगरों में संतरण तथा वहाँ की संस्कृति के आदान-प्रदान ने शेखावाटी शैली को नयी रंगत में ढाल दिया। विषयवस्तु की दृष्टि से यह शैली जहाँ अपनी परम्परा को कायम रखे हुए थी वहीं कम्पनी शैली के प्रभाव को भी अपनाये बिना न रह सकी। शेखावाटी शैली के विषयों में- धार्मिक चित्र, सामंती एवं श्रृंगारिक चित्र, लोक-जीवन-विषयक चित्र; तथा औद्योगिकीकरण एवं कम्पनी शैली से प्रभावित चित्र रहे हैं।

शेखावाटी शैली के विषयों में पारंपरिक राजस्थानी चित्रकला के विषयों को आधार बनाकर बहुलता से चित्र बने हैं, इसलिए धार्मिक सामंती एवं श्रृंगारी चित्रों में वह परम्परा विशेष द्रष्टव्य है। राम और कृष्ण की लीलाओं का विस्तार से इन भित्ति-चित्रों में अंकन हुआ है। सामंती वैभव शेखावाटी के ठिकाणेदारों के किलों एवं महलों के भित्ति-चित्रों में तो विशिष्ट रूप से अंकित हुआ ही है, पर सेठों की हवेलियों में भी तीज-त्यौहार, होली-दीपावली के जुलूसों का अंकन, शिकार, महफिल, नायक-नायिका-भेद एवं अन्य श्रृंगारी भावों का अंकन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। शेखावाटी की हवेलियाँ कस्बों एवं गाँवों में अधिक हैं, इसलिए लोक-जीवन के प्रभाव से वे अछूती नहीं हैं। भित्ति-चित्रण में लोककथाओं का वैशिष्ट्य देखते ही बनता है। ढोला-मारू, निहालदे-सुल्तान, पृथ्वीराज-संयोगिता, खातण-गौरी आदि के अंकन के साथ लोकजीवन की अनेक भाव-भंगिमाओं को भी कलाकारों ने अपने चित्रण का विषय बनाया है।

शेखावाटी शैली में सर्वाधिक विषय 19वीं शती के बदलते परिवेश को अभिव्यक्त करने के लिए बनाये गये हैं। इस दृष्टि से 19वीं शती के बदलाव, रहन-सहन, नये-नये आविष्कार और उनका प्रभाव आदि का अध्ययन इन चित्रों के माध्यम से सहज ही किया जा सकता है। रेल, मोटर, हवाईजहाज, कपड़े सीने की मशीन, साइकिल, बग्गी, बैण्ड बाजा, कुर्सी, सोफासेट तथा अन्य विक्टोरियन समय की वस्तुओं का अंकन इन हवेलियों में चमत्कारी ढंग से हुआ है। 20वीं शती की हवेलियों का स्थापत्य भी विक्टोरियन शैली से प्रभावित होने लगा, इसलिए कमरों की साज-सज्जा और चित्रण में विषयवस्तु का बदलाव भी समय के अनुकूल बदल गया।


शेखावाटी शैली की विशेषताएँ
राजस्थानी चित्रकला एवं कलाकृतियाँ कम्पनी शैली एवं 19वीं-20वीं शती के औद्योगिकीकरण का प्रभाव होने के उपरान्त भी शेखावाटी शैली का संविधान अलग ही दृष्टिगोचर होता है। इसकी अपनी अलग विशिष्टताएँ हैं जिनसे इसकी पहचान देशी-विदेशी कला-प्रेमियों एवं पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर रही हैं। बड़े-बड़े हाथी और घोड़ों तथा चोबदारों, चंवर-धारणियों का लोक-कलात्मक अंकन, गवाक्षों के दोनों ओर की दीवारों पर अंकन इन हवेलियों की विशेषता रही है। गवाक्ष एवं प्रमुख द्वार पर देवी-देवताओं का अंकन सुघड़ शैली में हुआ है। छज्जे के नीचे टोड़ों के बीच में कलाकारों ने अपनी सूझबूझ के अनुसार मल्लयुद्ध, कुश्ती, दधिमंथन, गौदोहन, विचित्र पशु-पक्षियों, देवी मिथकों, राक्षसों, कामकला, रागरागिनी, साधुसंतों, लोकथाओं का विशेष अंकन किया है। हवेलियों की बाह्य दीवारों एवं अन्दर कथात्मक बड़े-बड़े फलकों का चित्रांकन शेखावाटी शैली की विशेष देन है। लोक-जीवन, लोककला और लोक-तकनीक की मोटी रेखाओं द्वारा इन चित्रों को जयपुर की हवेलियों की भाँति अधिकतर फ्रैस्को तकनीक जिसे बोलचाल की भाषा में आलागीला, आराइश तथा मोराकसी कहते हैं; का प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं पर सीधे ही दीवार की सतह पर रेखांकन कर रंग भर दिये गये हैं, जो अधिक स्थायी नहीं हैं। कम्पनी शैली से प्रभावित चित्रों से कलाकारों ने विदेशी विषयवस्तु को अधिकतर देखा नहीं, इसलिए उनमें अपनी कल्पना का खूब प्रयोग किया है। इस प्रकार ढूँढ़ाड़ स्कूल में शेखावाटी की कला का वृहद् विस्तार होने के कारण आज इसकी चर्चा होने लगी है तथा शोधार्थी अध्ययन करने लगे हैं।


अलवर-शैली
रावराजा प्रतापसिंहजी (सन् 1756-1790) ने सन् 1770 में राजगढ़ को नये ढंग से बसाकर और सुदृढ़ दुर्ग बनाकर उसे प्रथम राजधानी बनाया तथा सन् 1775 में अलवर के किले पर भी अधिकार कर लिया। प्रतापसिंहजी ने अपनी वीरता, कुशलता एवं राजनीतिज्ञता के कारण जयपुर और भरतपुर के कुछ भाग पर अधिकार कर अलवर राज्य की स्थापना की। माना जाता है कि अलवर शैली का जन्म अलवर राज्य की स्थापना के बाद से ही हुआ है।  प्रतापसिंहजी का अधिकांश समय युद्धों में व नवस्थापित राज्य की नींव सुदृढ़ करने में लगा रहा, किन्तु फिर भी अपनी धर्मपरायणता के कारण कला के प्रति उनकी रुचि थी उनके राज्यकाल में शिवकुमार और डालूराम नामक दो चित्रकार जयपुर से अलवर आये, उन्होंने अपनी कलाकृतियाँ महाराज को भेंट कीं। कहते हैं शिवकुमार तो वापिस लौट गये, किन्तु डालूराम यहीं पर राज्य कलाकार नियुक्त हो गये। उनके बनाये हुए चित्र राजकीय संग्रहालय, अलवर एवं महाराज के निजी संग्रह में मौजूद हैं।

अलवर-शैली की चित्रकला के सम्बन्ध में उपलब्ध भित्तिचित्रों, पोथीग्रंथों, लघुचित्रों, पटचित्रों एवं हाथी दाँत, अभ्रक और लकड़ी के प‌ट्टों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि अलवर की चित्रकला राजस्थानी चित्रकला की अन्य शैलियों से किसी भी प्रकार कम नहीं है। उससे सम्बन्धित सामग्री अनेक संग्रहालयों, महलों, मंदिरों तथा व्यक्तिगत संग्रहों में आज भी शोध का इंतजार कर रही है। चित्रकार डालूराम भित्ति चित्रण में दक्ष थे। लगता है राजगढ़ के किले में शीशमहल में अंकित सुन्दर कलात्मक भित्ति चित्र उन्हीं के समय में उनकी देखरेख में बने हैं। यदि ऐसा मान लें तो वे भित्ति-चित्र अलवर शैली के प्रारम्भिक सर्वोत्कृष्ट सुन्दर चित्र हैं।

राव राजा प्रतापसिंहजी के पुत्र राव राजा बख्तावरसिंहजी अत्यधिक वीर, कला-प्रेमी एवं धार्मिक प्रवृत्ति के थे। 'चन्द्रसखी' एवं 'बख्तेश' के नाम से वे काव्य रचा करते थे। दानलीला उनका महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इनके समय (सन् 1790-1814) अलवर से 20 मील दूर राजगढ़ के सुदृढ़ किले के ऊपरी भाग में एक सुन्दर शीशमहल का निर्माण हुआ, जिसमें विभिन्न रंगों के शीशों की जड़ाई के साथ ही आलियों एवं नीचे की दीवारों पर भित्तिचित्रण के सुन्दर उदाहरण विशेष दर्शनीय हैं। यह शीशमहल दो भागों में विभक्त है- एक बड़ा कमरा लगभग 25'x12' का और उत्तर की ओर उससे लगा बरामद लगभग 25 'x10' का है। कमरे की छत विभिन्न रंगों के शीशों में जड़ी हुई है तथा दीवार पर अनेक सफेद शीशे यत्र-तत्र जड़े हुए हैं। बीच-बीच में अनेक चित्र बने हुए हैं तथा आलियों के नीचे की दीवारें लगभग सारी ही चित्रों एवं बेलबूटों से आवेष्टित हैं। कमरे और बरामदे की छत टीनशैड की भाँति ढालू है और छत तथा शेष दीवारें चित्रों एवं बेलबूटों से अंकित हैं।

अलवर-शैली के भित्तिचित्रों में अनेक विषयों का अंकन है। कृष्ण-चरित्र, रामचरित्र, नायिकायें, दरबार, संगीत आदि विषयों से सम्बन्धित चित्रकला की दृष्टि से अलवर शैली के ये प्रारम्भिक चित्र माने जा सकते हैं। रामलीला, गोवर्धन-धारण, गौचारण, हिण्डोला, वेणी-गुन्थन, दुग्ध-दोहन तथा राम का धनुष-भंग, राजतिलक आदि चित्र कृष्ण और रामलीला से सम्बन्धित हैं। इनमें गायों का चित्रण तथा प्रकृति का सतरंगा चित्रण विशेष महत्त्व का है। धनुष-भंग और राजतिलक का चित्रण बहुत बड़ा है जिसमें राजपूत शैली का स्थापत्य, केले के गाछ, हाथी और घोड़ों की सवारी तथा समूह चित्रों का अंकन अजंता शैली की याद ताजा करता है।

नायिकाएँ अंगड़ाई लेती हुई, काँटा काढ़ती हुई, श्रृंगार करती हुई नायिकाओं एवं दासियों का चित्रण भावपूर्ण एवं मनोहारी है। तबला, सितार, सारंगी आदि बजाती हुई स्त्रियों का चित्रण भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। महाराव प्रतापसिंह और महाराव बख्तावरसिंह जैसे राजाओं का दरबार भी दीवारों पर अंकित है। बेल-बूटे और फूल-पत्तियों के विभिन्न डिजाइनों में रंगों की चटकता और अंकन की लयकारी कमाल की है। रेखांकन अत्यधिक सुदृढ़ एवं सूक्ष्म है। ऐसा लगता है जैसे सारा कार्य डालचन्द जैसे अनुभवी चितेरे की देखरेख में हुआ हो। राजगढ़ के किले के इस शीशमहल में अजंता के गहरे बादामी रंगों का प्रभाव अधिक है। हल्के नीले, हरे, सुनहरी रंगों का जादू इन भित्तिचित्रों को अधिक सुशोभित करता है। इसलिए संभावना है कि ये चित्र अलवर शैली के प्रारम्भिक एवं महत्त्वपूर्ण चित्र होने के नाते कला की दृष्टि से उत्कृष्ट भित्तिचित्र हैं। खेद है कि बिना संरक्षण के इनमें से अधिकांश चित्र नष्ट होते जा रहे हैं।

अलवर राज्य की प्रशंसा एवं महाराव की गुण-ग्राह्यता को सुनकर दूर देशों से बहुत से कलाकार अलवर नगर में आये और राज्य में उनकी योग्यता का यथोचित सम्मान हुआ उनके समय में अलवर शैली विकासमान हुई। बलदेव एवं सालगा एवं सालिगराम उनके राज्य के प्रमुख चितेरे थे। बख्तावरसिंहजी के समय के सैकड़ों चित्र राजकीय संग्रहालय, अलवर में विशेष दर्शनीय हैं, जिनमें नाथों, जोगियों, फकीरों से जंगल में धर्म-चर्चा करते हुए स्वयं महाराज का चित्रण कला की दृष्टि से उल्लेखनीय है। संग्रहालय में जितने चित्र महाराज बख्तावरसिंहजी के प्राप्त हैं, उतने अन्य किसी राजा के नहीं। अलवर के प्राकृतिक परिवेश की पृष्ठभूमि में बने ये चित्र अत्यधिक मौलिक एवं अलवर शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, निश्चय ही कला-प्रेमी रावराजा बख्तावरसिंहजी का अलवर शैली को सम्मोहक एवं मौलिक स्वरूप देने में विशेष योगदान रहा है।

राव राजा बख्तावरसिंहजी के उपरान्त अलवर की चित्रकला को नया मोड़ देने का श्रेय उनके उत्तराधिकारी महाराव विनयसिंहजी (सन् 1814-1857) एवं तिजारा के राव बलवन्तसिंहजी (1826-1845) को है। इनके समय में अलवर की चित्रकला विविध रूप में पारिपोषित होकर अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची। विनयसिंहजी अलवर के राजाओं में सर्वाधिक कला-प्रेमी एवं कला-पारखी हुए हैं। अलवर की चित्रकला के उत्कर्ष में उनका वही स्थान है जो मुगल चित्रकला में अकबर का था। कला-पारखी एवं गुणग्राही होने के कारण देश-विदेश के विद्वान शिल्पकार, चित्रकार एवं संगीतकार उनके दरबार में आकर महाराज के गुणग्राही बने। यह वह समय था जब शाहआलमों का राज्य केवल पालम तक होने के कारण मुगलिया खानदान से सम्बन्धित कलाकार अपनी कलात्मक धरोहर को बेचने तिजारा एवं अलवर आने लगे। महाराज विनयसिंह एवं महाराज बलवन्तसिंह कला-पारखी थे ही उन्होंने अमूल्य वस्तुओं को उचित मूल्य में खरीद कर राज्य के कला-संग्रह को समृद्ध बनाया। उन्होंने प्राचीन सचित्र पुस्तकों का संग्रह कराकर एक अपूर्ण पुस्तकशाला स्थापित की। रत्न-भण्डार एवं शस्त्रालय में बहुमूल्य रत्न एवं अद्वितीय शस्त्र एकत्रित कराये तथा कलाकारों को राज्याश्रय देकर चित्रकला की अजस्त्र धारा को वेगमयी बनाया। उनके दरबार में चित्रकारों, संगीतज्ञों, सुलेखकों एवं कारीगरों की भरमार थी, बलदेव एवं सालिगराम रावराजा बख्तावरसिंहजी के समय में राज्याश्रित कलाकार थे ही, किन्तु इनको भी अपनी कला को प्रकाशित करने का सुअवसर विनयसिंहजी के समय में और अधिक मिला। स्वयं महाराज विनयसिंहजी को चित्रकारी का शौक था। वे बलदेव से चित्रकारी सीखते थे। बलदेव का दरबार में उच्च स्थान था। वे मूलतः अलवर की पारम्परिक शैली में कार्य करते थे, पर दिल्ली से आये मुगल शैली के चित्रकारों के सम्पर्क में आकर मुगल शैली के प्रभाव से युक्त सुन्दर कार्य करने लगे। यही कारण रहा कि अलवर शैली के तत्कालीन चित्रों में मुगल शैली का प्रभाव अधिक झलकने लगा

महाराजा विनयसिंहजी को सचित्र पुस्तकों एवं लिपटवाँ पटचित्रों (स्क्रोल) के निर्माण का अधिक शौक था। यही कारण है कि उन्होंने गुलामअली जैसे सिद्ध कलाकारों, आगामिर्जा देहलवी जैसे सुलेखकों एवं नत्थाशाह दरवेश जैसे जिल्दसाज़ों को राजकीय सम्मान देकर दिल्ली से बुलवाया। रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवतगीता, गीतगोविन्द, दुर्गा सप्तशती, गुलिस्ताँ, कुरान आदि ग्रंथों का सुलेखन एवं चित्रांकन विनयसिंहजी की कलाप्रियता का परिचायक है। गुलिस्ताँ का सुलेखन एवं चित्रांकन उनके राज्यकाल की एक अनोखी घटना है। इस ग्रंथ को तैयार करने पर उस समय एक लाख रुपये खर्च हुए थे। ग्रंथ के चित्र बलदेव व गुलाम अली ने बनाए। इस ग्रंथ का समस्त लेखन सीठे की कलम से हुआ है। किसी भी पृष्ठ में अशुद्धि हो जाने पर वह पृष्ठ फिर से लिखा गया, इस प्रकार गुलिस्ताँ की तीन प्रतियाँ उस समय में सुसज्जित हुईं, जो इन्हीं के समय में तैयार हुआ है। अलवर शैली में राग-रागिनी के अनेक सैट प्राप्य हैं, जिनमें से अधिकतर का चित्रांकन इनके समय में हुआ। आनन्द राम कवि के छन्दों पर आधारित बारहमासा का सुन्दर सैट इसी समय का है।

राव बख्तावरसिंहजी के पुत्र बलवन्तसिंह ने अपने 23 वर्ष के राज्यकाल में कला की जितनी सेवा की वह अलवर के इतिहास में अविस्मरणीय रहेगा। वे कला-प्रेमी शासक थे। इनके दरबार में सालिगराम, जमनादास, छोटेलाल, बक्साराम, नन्दराम आदि कलाकारों ने जमकर पोथी-चित्रों, लघुचित्रों एवं स्क्रोलों (लिपटवाँ पटचित्रों) का चित्रांकन किया। बलवन्तसिंह ने दुर्गा सप्तशती के चित्र बनाने के लिए छोटेलाल चित्रकार को जयपुर से व सालिगराम को अलवर से बुलवाया था। छोटेलाल परदाज़ (स्टिपलिंग) का कार्य करने में दक्ष थे तथा उनकी रंग-योजना चटकदार थी। जमुनादास के सन् 1844 तक वे चित्र उपलब्ध हैं, जिनमें राजा बलवंतसिंह एवं स्वयं चितारे का नाम संवत् भी अंकित है। जमनादास के चित्रों में रेखांकन की सुदृढता और रंगों की कोमलता देखते ही बनती है। इसी समय के नामांकित बक्साराम के चित्र भी राजकीय संग्रहालय एवं महाराज के व्यक्तिगत संग्रह में उपलब्ध हैं।

विनयसिंहजी के ही समय (1830) में निर्मित दीवानजी का रंगमहल (शीशमहल) भित्ति चित्रण की दृष्टि से विशेष दर्शनीय है। अलवर की भित्ति चित्रण की परम्परा में यह दूसरा महत्त्वपूर्ण चित्रण है। बालमुकुन्द (सन् 1785-1855) महाराव बख्तावरसिंहजी के दीवान थे तथा महाराव राजा विनयसिंहजी के भी दीवान रहे। ये अत्यधिक वीर, दानी, धर्मपरायण एवं कलाप्रेमी थे। हवेली एवं शीशमहल के बारे में उनके पौत्र का लिखा हस्तलिखित लेख इस प्रकार मिलता है। लगभग सं. 1887 (सन् 1830) में दीवान बालमुकुन्दजी ने मुंशी बाग के कुएँ पर हवेली अपने निवास के लिए बनवाई। यह अतिविशाल लोहित वर्ण प्रमाण की सुदृढ़ हवेली है। इसका द्वार पश्चिम को है। इसके द्वार के समीप होकर ऊपर शीशमहल में जाने का रास्ता है जिसमें सुनहरी काम और शीशे की जड़ाई का अनेक तरह की रंग-बिरंगी चीताई का काम हो रहा है। यह शीशमहल भी प्रायः राजगढ़ वाले शीशमहल के ही समान बना हुआ है। एक बड़ा कमरा और उत्तर की ओर का बरामदा स्थापत्य की दृष्टि से भी सुन्दर है। कमरा श्वेत शीशों से जड़ा हुआ तथा कुछ चित्रों से सुसज्जित है तथा छत और दीवार के बीच की कोर का चौतरफा चौबीस अवतारों, छत्तीस रागरागिनियों तथा संगीतिकाओं के अत्यधिक सुन्दर चित्रों से युक्त है। दीवार पर गोवर्धन-धारण, वेणी-गुन्थन, हिण्डोला, राजतिलक तथा महफिल आदि के चित्र अंकित हैं। नायिकाओं, गणिकाओं तथा द्वारपालिकाओं के चित्र भी अत्यधिक मनोहारी हैं। हावभाव मुद्राओं की दृष्टि से अलवर शैली के ये भित्तिचित्र भी बेजोड़ हैं, सुरक्षित होने के कारण इनकी दशा राजगढ़ के भित्तिचित्रों से अच्छी है, किन्तु कुल मिलाकर इस रंगमहल के रेखांकन एवं रंगों के प्रयोग में वह नफ़ासत नहीं है जो राजगढ़ के शीशमहल में है।

विनयसिंहजी के समय (सन् 1814-1857) में निर्मित यह रंगमहल अलवर की पुरानी हवेलियों के बीच में खड़ा आज भी अपनी अतीत-गाथा जर्जरित हालत में सुना रहा है। अनेक मंदिरों तथा महलों का निर्माण एवं ऊपर का बेल-बेटों का रंगीन कार्य अलवर की चि को समझने में विशेष योग देता है। राजमहल का शीशमहल अधूरी दशा में आज भी पड़ा हुआ है। विनयसिंहजी के अधि दिनों में निर्मित इस शीशमहल के बीच के बड़े कमरे में राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, गणेश दिनों में अंकित हैं, किन्तु उनमें न कलम की उतनी बारीकी है और न ही रंगों का जादू। चि में फोटोग्राफी का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। पास के कमरे में तो कागज के बने लघुचित्रों क दीवार पर चिपका कर ऊपर शीशा लगा दिया है, किन्तु इस प्रकार के चित्र भित्तिचित्र की परमा में नहीं आ सकते, हालाँकि ऐसे प्रयोग राजस्थान के अनेक महलों में द्रष्टव्य हैं।

सवाई शिवदानसिंहजी (सन् 1859-1874) का समय भी चित्रकला की दृष्टि से कम महत्त्व का नहीं है; चित्रकारी एवं सुलेखन सीखने में उनकी भी रुचि थी। किन्तु विलासी अधिक होने के कारण उनकी कलात्मक अभिरुची भी विलास-वैभव से परिपूर्ण थी, काम-कला के आधार पर निर्मित उनके समय के सैकड़ों कामुक चित्र चित्रकला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं।

महाराजा मंगलसिंहजी के समय में अलवर की कलात्मक परम्परा को नानगराम, बुद्धाराम, उदयराम, मूलचन्द, जगन्नाथ, रामगोपाल, विशनलाल आदि चितेरे निभाते रहे। बुद्धाराम, पशु-पक्षियों के चित्रांकन में सिद्धहस्त थे। वे राजगढ़ के किले के शीशमहल एवं अलवर संग्रहालय के दारोगा थे। मूलचन्द हाथीदाँत पर चित्र बनाने में प्रवीण थे। हाथीदाँत पर अंकित अनेक व्यक्तिचित्र अलवर-शैली की अनुपम विशेषता है। राजस्थान के मन्दिरों और छतरियों में भी भित्ति चित्रण की परम्परा पनपी है। अलवर भी इस परम्परा के वहन करने में पीछे नहीं रहा है। थाने में मंगलसिंहजी की माताजी द्वारा निर्मित मंदिर तथा भूरा सिद्ध के मन्दिर में अनेक चित्र बने हुए हैं, लड्डू खवासजी के मंदिर में कागज पर निर्मित लघुचित्रों को दीवार पर सटाकर ऊपर से शीशा लगा दिया गया है। वे चित्र कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

थाने की हनुवन्तसिंह की छतरी, राजगढ़ की खवास के बाग की छतरी एवं माचेड़ी के बाग की छतरी तथा ताल वृक्ष की छतरी में जो भित्तिचित्र बने हुए हैं, वे काल-कवलित होते हुए भी अपने वैभव की झाँकी आज भी दे रहे हैं। इनमें राम और कृष्ण की लीलाओं एवं राजाओं की सवारी एवं दरबार के चित्र अधिक अंकित हैं। निश्चय ही इन छतरियों की कला में लोक-कला का प्रभाव अधिक है। रेखांकन एवं रंग-संयोजन भी लोक-कलात्मक अधिक है जिससे अलवर में लोक-कलात्मक चित्रण के विकास का सहज ही परिचय मिलता है।

अलवर के भूतपूर्व महाराज श्री जयसिंहजी बहुमुख प्रतिभा वाले व्यक्ति थे। संगीत, चित्रकला एवं स्थापत्य कला उनके समय में विशेषतः विकसित हुई। राजपूती कला के सम्पूर्ण वैभव से युक्त उनकी सवारी का एक 10 फुट लम्बी और 2 फुट चौड़ा चित्र उल्लेखनीय है। इस चित्र को बनाने वाले स्वर्गीय रामसहाय नेपालिया का नाम विशेष स्मरणीय है। श्री रामगोपाल, रामप्रसाद, जगमोहन, ओंकारनाथ आदि चितेरों का योगदान भी कम महत्त्व का नहीं है। कहना न होगा कि योरोपीय प्रभाव, फोटोग्राफी के आविष्कार आदि ने अलवर शैली की महत्त्वपूर्ण परम्परा को भी प्रायः समाप्त कर दिया। आज उसका वैभव संग्रहालयों, व्यक्तिगत संग्रहों तथा शीश महलों और मंदिरों में छिपा पड़ा है।


अलवर शैली के विषय
अलवर शैली में विषय की दृष्टि से विविधता रही है; बख्तावरसिंहजी के समय तक राजपूती दरबारी वैभव, महफिलें, कृष्णलीला, रामलीला, प्राकृतिक परिवेश में साधु-संतों एवं नाथों से धर्म-चर्चा, राग-रागिनी आदि का विशेष चित्रण हुआ। विनयसिंहजी और बलवन्तसिंहजी ने रागरागिनी, बारहमासा तथा संस्कृत, हिन्दी की पुस्तकों का चित्रण विशेष करवाया, जिसमें महाभारत, गीता, रामायण शिव-कवच, दुर्गा सप्तशती, गीतगोविन्द, काली सहस्रनामा, महिमन-स्रोत आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।


अलवर शैली की विशेषताएँ
बख्तावरसिंहजी के समय के प्रारम्भिक चित्रों तक में राजस्थानी शैली की सम्पूर्ण विशेषताएँ अलवर की चित्रकला में दर्शनीय हैं, इसलिए जयपुर-शैली से उन्हें अलग कर पाना थोड़ा कठिन है, किंतु फिर भी प्रदेश के प्राकृतिक सौन्दर्य, रहन-सहन एवं शारीरिक प्रभाव इन चित्रों में द्रष्टव्य हैं। भावात्मकता, रागात्मकता और लोग-कलात्मकता से युक्त ये चित्र रेखांकन एवं रंग-संयोजन की दृष्टि से सुन्दर हैं।

अपने चरम उत्कर्ष के समय में अलवर शैली में ईरानी, मुगल और राजस्थानी विशेषतः जयपुर शैली का आश्चर्यजनक संतुलित समन्वय देखते ही बनता है। इस समन्वय के कारण अलवर शैली के स्वरूप को आसानी से पहचाना जा सकता है। पुरुषों के मुख की आकृति आम की शक्ल में अर्थात् ठोड़ी में थोड़ा खम देकर बनाई गयी है। स्त्रियों के कद कुछ ठिगने, उठी हुई वेणियाँ, अत्यधिक परिश्रम से बनाये गये अंग-प्रत्यंग अलवर शैली की निजी विशेषता है। वेशभूषा में स्थानीय प्रभाव पगड़ियों के बंधेज में स्पष्ट झलकता है। पुरुषों एवं स्त्रियों के पहनावे में राजपूती एवं मुगलई वेशभूषा का प्रभाव लक्षित होता है। अलवर का प्राकृतिक परिवेश इस शैली के चित्रों में वन, उपवन, कुंज-विहार, महल, अटारी आदि के चित्रांकन में देखा जा सकता है।

सुन्दर बेलबूँटों वाली वस्लियों का निर्माण अलवर शैली की निजी विशेषता है। इन वस्लियों का व्यापार सन् 1947 तक होता रहा था। व्यापारी लोग वहाँ की बेलबूटेदार वस्लियाँ लेकर उन पर पुराने चित्र लगा देते थे, जिससे उनकी शोभा द्विगुणित हो जाती थी। इस शैली के चित्र अत्यधिक परिश्रम से बनाये गये सुन्दर मुखाकृति वाले, बेलबूटेदार हाशियों से युक्त और सुवर्ण के आलेखनों से सजे शोभनीय होते हैं। मुगल-शैली जैसा बारीक काम, परदाज़ों की धुएँ के समान छाया तथा रेखाओं की सुघड़ता अलवर के चित्रण में कमाल की है।

रंगों का चुनाव भी अलवर शैली का अपना निजी है। चिकने और उज्ज्वल रंगों के प्रयोग ने इन चित्रों को आकर्षित बना दिया है, लाल, हरे और सुनहरी रंगों का प्रयोग शैली में विशेष हुआ है। सफेद बादल, शुभ्र आकाश, पशु-पक्षियों से युक्त वन-उपवन, नदी-नाले, पर्वत आदि का अंकन अलवर के प्राकृतिक परिवेशानुकूल ही हुआ है।


उणियारा उपशैली
जयपुर और बूँदी रियासतों की सीमा पर बसे उणियारा ठिकाने ने रक्त सम्बन्धों के कारण जयपुर और वैवाहिक सम्बन्धों के कारण बूँदी के कलात्मक प्रभाव को अपनाकर एक नयी शैली का प्रादुर्भाव किया, जिसे उणियारा उपशैली के नाम से जाना जाता है; उणियारा ठिकाणा जो कि हाल टोंक जिले में है। आमेर के नरूजी कछवाहा के वंशज नरूका कहलाये। इन्हीं की वंश-परंपरा में राव चन्द्रभान दासावत (1586-1660) ने मुगल पक्ष में कान्धार युद्ध (1606) में अत्यधिक शौर्य प्रदर्शित किया, जिससे प्रसन्न होकर मुगल बादशाह ने इनको उणियारा, नगर, ककोड़ और बनेठा के चार परगने जागीर में दिये।

उणियारा के रंगमहल के भित्ति चित्रों, रावराजा राजेन्द्रसिंह उणियारा के व्यक्तिगत संग्रह के लघुचित्रों, कुमार संग्रामसिंह के निजी संग्रह तथा अन्य चित्रों के आधार पर उणियारा के चित्रों की अलग पहचान उभरकर सामने आती है, जिससे उसको ढूँढ़ाड़ चित्रकला स्कूल की उपशैली के अन्तर्गत रखा जा सकता है।

राव चन्द्रभान की पाँचवीं पीढ़ी में रावराजा सरदारसिंह (1740-77) कला-प्रेमी सामंत हुए, जिन्होंने उणियारा और नगर में सुन्दर महल बनवाये तथा धीमा, मीरबक्स, काशी, रामलखन, भीम आदि कलाकारों को आश्रय प्रदान भी किया। नगर और उणियारा के रंगमहलों के भित्ति चित्रों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इन पर बूँदी और जयपुर-शैली का समन्वित प्रभाव है।

नगर के भित्तिचित्रों पर जहाँ बूँदी शैली का पूर्ण अभाव है तो उणियारा के रंगमहल के चित्रों में बूँदी और जयपुर कलम का प्रभाव विशेष दर्शनीय है। रंगमहल जो अब जर्जरित दशा में है के भित्तिचित्र अत्यधिक कलात्मक एवं विषय-वैविध्यपूर्ण हैं। कवि केशव की कविप्रिया पर आधारित बारहमासा; रागरागिनी, राजाओं के व्यक्तिचित्र तथा अनेक धार्मिक चित्र यहाँ अंकित हैं। राजाओं में नरूजी, दासाजी, चन्द्रभान, फतहसिंह, संग्रामसिंह, सरदारसिंह, जसवन्तसिंह, अजीतसिंह विसनसिंह, भीमसिंह तथा बूँदी के बुद्धसिंह, जयपुर, कोटा, मेवाड़ आदि राजाओं के व्यक्तिचित्र अत्यधिक सुघड़ता से बनाये गये हैं।

धार्मिक चित्रों में कृष्णलीला, रामदरबार शिव-पार्वती, विष्णु के विभिन्न अवतारों का चित्रण दर्शनीय है। अनेक पोथी-चित्रों तथा लघुचित्रों के माध्यम से भी उणियारा उपशैली का ज्ञान होता है। रावराजा राजेन्द्रसिंह उणियारा के निजी संग्रह का भागवत पुराण, रामायण तथा अनेक लघुचित्र कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। कुमार संग्रामसिंह के निजी संग्रह में उणियारा के अनेक लघुचित्र उपलब्ध हैं जिनमें रावराजा सरदारसिंह की जनानी एवं मर्दानी महफिल के चित्र विशेष उल्लेखनीय हैं। राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में भी कुछ चित्र देखे जा सकते हैं। उपर्युक्त भित्तिचित्रों, पोथी-चित्रों एवं लघुचित्रों की उपलब्धि के आधार पर उणियारा उपशैली का एक अलग स्वरूप बनता है, जिसमें दो शैलियों के समन्वय से एक नयी चित्रांकन परम्परा विकसित हई। उणियारा ठिकाणा जयपुर राज्य के तत्वावधान में रहा, साथ ही कुशवाओं की सांस्कृतिक परम्परा का वहाँ निर्वाह हुआ, अतः जयपुर शैली की शारीरिक बनावट, रंगयोजना, वेशभूषा आदि का पूर्ण प्रभाव उणियारा उपशैली पर है। जयपुर के अनेक कलाकारों का योगदान भी इस शैली पर रहा है। बूँदी के पास होने के भौगोलिक कारण एवं रावराजा सरदारसिंह की पुत्री का बूंदी नरेश दलेलसिंह को अपनी लड़की ब्याहने के वैवाहिक सम्बन्धों के कारण बूँदी के कलाकारों का उणियारा में आवागमन हुआ, जिससे यहाँ के चित्रों के स्थापत्य प्राकृतिक परिवेश एवं चेहरों की बनावट और साज-सज्जा पर बूँदी-शैली का पूर्ण प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। नगर और उणियारा के महलों के भित्ति चित्रों के रहते इस उपशैली पर विस्तार से कार्य होने की आवश्यकता है।


ढूंढ़ाड़-स्कूल की अन्य शैलियाँ एवं ठिकाणा कला
ढूँढ़ाड़ क्षेत्र की अन्य शैलियों, उपशैलियों एवं ठिकाणों की कला का विस्तृत सर्वेक्षण होना जरूरी है। विशेषतः भरतपुर, करौली क्षेत्र की कला पर अभी तक विस्तृत अध्ययन नहीं हुआ है। जयपुर के प्रमुख ठिकाणों जैसे ईसरदा, झिलाय, डिग्गी, चौमूं-सामोद, दूदू आदि क्षेत्रों की कला के उदाहरण भी उपलब्ध होते हैं।


भरतपुर पूर्वांचल की एक महत्त्वपूर्ण जाट रियासत रही है। ब्रजप्रदेश के समीप होने के कारण यहाँ की कला पर ब्रज संस्कृति का पूर्ण प्रभाव है। राधा-कृष्ण की लीलाओं से रंगा यह अंचल चित्रकला की दृष्टि से भी ब्रज की चित्रकला का ही अंग माना जा सकता है। गोवर्धन स्थित छतरियों मे जो चित्रांकन है, उसे ब्रज की चित्रकला का ही प्रारूप कहा जा सकता है। डीग, कामाँ आदि के महलों एवं मंदिरों के भित्तिचित्रों को ब्रज की चित्रकला से अलग करना कठिन है, पर वहाँ के राजाओं के जो व्यक्तिचित्र बने हैं, उन पर ढूँढ़ाड़ स्कूल और विशेषतः जयपुर शैली का प्रभाव द्रष्टव्य है। अलवर संग्रहालय का सूरजमल का एक व्यक्तिचित्र, कुमार संग्रामसिंह संग्रहालय का जवाहरसिंह का व्यक्ति-चित्र विशेष उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त भी भरतपुर के महलों, हवेलियों, छतरियों आदि का सर्वेक्षण होना जरूरी है।


करौली रियासत यदुवंशी राजपूतों की रियासत रही है; यहाँ की चित्रांकन परम्परा ब्रज एवं जयपुर की कला से पूर्णतः प्रभावित है। जहाँ इस छोटी-सी रियासत की चित्रकला पर सामंती प्रभाव है, वहीं यहाँ के यदुवंशी राजपूत कृष्ण के वंशज होने के कारण कृष्ण-चरित्र की लीलाओं का चित्रांकन भी करौली में विस्तार से हुआ है। मदनमोहनजी के मंदिर की संस्कृति ने वहाँ की चित्रकला को अत्यधिक प्रभावित किया है।

करौली के किले के भित्तिचित्रों की श्रृंखला में यह आश्चर्य की ही बात है कि किले में अवस्थित लगभग आधे दर्जन से अधिक कमरे, हॉल समय-समय पर विस्तार से चित्रित किये गये हैं। चित्रण की यह श्रृंखला राजस्थान के अन्य महलों की तुलना में विस्तृत जान पड़ती है। फूल- पत्तियों का विस्तृत अलंकरण यहाँ चमत्कृत कर देता है साथ ही राजाओं के व्यक्तिचित्र भी करौली कलम की विशेषता लिये हुए हैं। छत पर ज्यामितिक अनेक पैटर्न कलात्मक है, जिनमें रंगों की खिलावट और रेखांकन की सधावट देखते ही बनती है। किले के चित्रों का विस्तृत सर्वेक्षण अभी भी होना बाकी है।

किले के पूर्व में बनी अनेक छतरियों में विशेषतः गोपालसिंह की छतरी का चित्रांकन भी लोक-कला के उदाहरणों से युक्त है। मदनमोहनजी के मंदिर की दीवारों पर कृष्ण-चरित्र की विभिन्न झाँकियों के चित्र पुष्टि-सम्प्रदाय की परम्परा के अनुकूल बने हुए हैं। ये चित्र समय-समय पर बनते रहे हैं, इसलिए कंपनी शैली का प्रभाव भी चित्रों में द्रष्टव्य है। इसी प्रकार कैलादेवी के मंदिर के भित्तिचित्र भी करौली कलम के अन्तर्गत ही आते हैं। यह बात दूसरी है कि जयपुर, अलवर के कलाकारों को बुलवाकर यहाँ चित्रण करवाया गया हो।

करौली के लघुचित्रों की परम्परा पर भी अभी खोज होना बाकी है। महाराजा के निजी संग्रह में राजाओं के व्यक्तिचित्र एवं कुमार संग्रामसिंह संग्रहालय के कुछ लघुचित्र इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। पगड़ी बाँधने का अलग ढंग एवं फहराती हुई दाढ़ी का रेखांकन करौली कलम की अलग पहचान कराते हैं।

जयपुर के कुछ महत्त्वपूर्ण ठिकाणों का समय-समय पर वर्चस्व रहा है, अतः वहाँ भी चित्रांकन होता रहा है। ईसरदा, डिग्गी-मालपुरा से समय-समय पर कुछ सचित्र ग्रंथ एवं लघुचित्र उपलब्ध हुए हैं, जिनमें ठिकाणों की अलग पहचान झलकती है। दूदू तथा सामोद के महलों के भित्तिचित्र जयपुर की भित्तिचित्रण परम्परा में ही आते हैं, क्योंकि जयपुर के ही कलाकारों को इस कार्य के लिए समय-समय पर नियुक्त किया गया लगता है। इस प्रकार ढूँढ़ाड़ स्कूल की चित्रण-परम्परा दूर-दूर के क्षेत्रों में फैली हुई है जिसका वैज्ञानिक सर्वेक्षण होना अभी भी शेष है।


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