भारतीय लोकनाट्य परंपरा में ‘तुर्रा-कलंगी’ एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह लोकनाट्य शैली मध्यप्रदेश के नंदेरा राज्य से उद्भूत हुई, जहाँ हिन्दू संत तुकमांगिर और मुस्लिम संत शाह अली द्वारा इसे प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इन दोनों संतों के मध्य शास्त्रार्थ के माध्यम से उपजे संवाद ने ‘तुर्रा’ एवं ‘कलंगी’ के दो दलों की उत्पत्ति की। इस शोध आलेख में ‘तुर्रा-कलंगी’ की उत्पत्ति, विकास, स्वरूप, प्रस्तुतिकरण की शैली तथा इसकी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रासंगिकता का विश्लेषण किया गया है।

तुर्रा-कलंगी एक संवादात्मक लोकनाट्य है, जिसमें दो दलों द्वारा मंच पर आमने-सामने बैठकर प्रश्नोत्तर शैली में गायन किया जाता है। यह कला रूप मूलतः मालवा अंचल, विशेषकर निमाड़, झाबुआ, धार, और मेवाड़ क्षेत्र में प्रचलित है। इसकी जड़ें धार्मिक, सामाजिक तथा ऐतिहासिक सन्दर्भों से जुड़ी हैं।

तुकमांगिर शिव के आराधक थे, जबकि शाह अली शक्ति के उपासक थे। इन दोनों के मध्य होने वाले शास्त्रार्थ को नंदेरा के राजा ने सार्वजनिक मंच प्रदान किया, और इस प्रकार ‘तुर्रा’ (तुकमांगिर का दल) और ‘कलंगी’ (शाह अली का दल) के रूप में दो समूह सामने आए। इस परंपरा ने आगे चलकर लोकनाट्य का रूप ले लिया।

तुर्रा-कलंगी की प्रस्तुतियाँ बिना मंच सजावट के खुली जगह पर होती हैं। प्रमुख पात्रों के बैठने के लिए एक ऊँचा आसन (शोभामंच) बनाया जाता है। कलाकार गद्य-पद्य मिश्रित संवादों के माध्यम से समाज, राजनीति, धर्म और नैतिक मूल्यों पर आधारित प्रश्नोत्तर करते हैं। इसकी प्रस्तुतियों में हास्य, व्यंग्य, वीरता तथा भक्ति रस प्रमुखता से झलकते हैं।

तुर्रा-कलंगी में संवादों को ‘बोल’ कहा जाता है, और चंग नामक वाद्य यंत्र का प्रमुखता से प्रयोग होता है। इसमें सभी पात्र पुरुष होते हैं, जो कभी-कभी स्त्री पात्र की भूमिका भी निभाते हैं।

लोकप्रियता और सामाजिक प्रभाव:-
तुर्रा-कलंगी नाटकों में ऐतिहासिक व पौराणिक कथाएँ जैसे सम्राट हर्षवर्धन, राजा हरिश्चंद्र, भीष्म, रामायण, महाभारत आदि विषयों पर आधारित प्रसंग प्रस्तुत किए जाते हैं। यह न केवल मनोरंजन का माध्यम है, बल्कि सामाजिक संदेश, नैतिक शिक्षा और धार्मिक एकता को भी सशक्त रूप से प्रस्तुत करता है।

‘तुर्रा-कलंगी’ एक ऐसी लोकनाट्य विधा है जो संवाद, संगीत, वेशभूषा, और वाक्पटुता के माध्यम से जनमानस को शिक्षा और मनोरंजन प्रदान करती है। यह हिन्दू-मुस्लिम एकता, सांस्कृतिक समन्वय और लोकबुद्धि की सशक्त अभिव्यक्ति है। वर्तमान समय में इसके संरक्षण और प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है ताकि यह बहुमूल्य धरोहर आने वाली पीढ़ियों तक जीवित रह सके।
जुड़्योड़ा विसै