राजस्थान की लोक-गायिकी में एक जोड़ी का नाम सबसे पहले और आदर के साथ लिया जाता है, वह है चंपा-मेथी। ‘चंपा-मेथी’ यानी चंपालाल राव और उनकी पत्नी मेथी देवी। हालाँकि ये जाति से भईभाट थे और इनका पैतृक काम अपने भील जजमानों की वंशावली गाना था; लेकिन इन्होंने लोक गीत गाने शुरू किए।
राजस्थानी लोक गायिकी में संभवतः पति-पत्नी की यह पहली जोड़ी थी, जिन्होंने व्यावसायिक रूप से साथ में गाना शुरू किया। चंपा जोधपुर जिले के बालेसर के पास स्थित आगोलाई गाँव से थे और मेथी उनकी पत्नी थी। दोनों को ही संगीत की औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी। विरासत में जो कच्ची ट्रेनिंग मिली, उसी को संवारकर दोनों ने अपना रंग दिया और लोक-गायिकी के उच्चतम शिखर तक पहुँचे। चंपा हारमोनियम बजाता था और मेथी ढोलक। दोनों ने न केवल पारंपरिक लोक-गीतों को नए सिरे से संवारा, बल्कि नए गाने भी इजाद किए। इस संबंध में “उमराव थारी बोली प्यारी लागे” गीत का उल्लेख किया जा सकता है। यह गीत चंपा ने बाड़मेर जिले के वाणियाबास के एक रईस चारण उमराव सिंह बारहठ की प्रशंसा में लिखा था।
चंपा-मेथी की प्रतिभा को सर्वप्रथम जोधपुर के प्रसिद्ध भजन गायक रामनिवास राव ने पहचाना और उनके कुछ गाने अपने टेप-रिकॉर्डर में रिकॉर्ड करके लेकर गए और विभिन्न मंचों से उनके नाम का उल्लेख करते हुए उनकी गायिकी की प्रशंसा की। उनका पहला रिकॉर्ड गाना ‘रामलाल मुंशी जी रे’ है; जो उस समय इतना चर्चित हुआ कि अपने समय की तमाम बड़ी कैसेट कंपनियों ने चंपा-मेथी के गाने रिकॉर्ड किए। इन कंपनियों में ‘यूकी कैसेट’,‘श्री कृष्णा कैसेट’ और ‘राम-रहीम कैसेट’ आदि का नाम लिया जा सकता है।
एक समय था जब चंपा-मेथी के कैसेट पश्चिमी राजस्थान में बिक्री में शीर्ष पर थे। तब तक चंपा-मेथी अपने पैतृक गाँव आगोलाई को छोड़कर जोधपुर में मंसुरिया पहाड़ी के पास कहीं रहने लगे थे। उनके गानों की मिठास ने टी-सीरीज कंपनी के मालिक गुलशन कुमार को भी अपनी तरफ़ खींचा। साल 1997 में गुलशन कुमार ने इनसे मुलाकात की और कुछ गाने रिकॉर्ड करने की योजना बनाई, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। इस मुलाकात के कुछ ही दिनों बाद उनकी हत्या हो जाने के कारण चंपा-मेथी का यह सपना अधूरा ही रह गया। इस सुरीली जोड़ी में दरार तब आयी जब जालौर में एक कार्यक्रम के दौरान मांडवला गाँव की भगवती की मुलाकात चंपा से हुई। दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे जिसकी भनक मेथी को लग गई। घर में झगड़े होने लगे। ग़ुस्से में आकर चंपा ने भगवती देवी से दूसरी शादी कर ली। इस शादी के बाद मेथी स्थायी रूप से चंपा से अलग रहने लगी। लोक-गायिकी की इस महान यात्रा में इससे पूर्णविराम लग गया। थोड़े समय बाद ही चंपा को तपेदिक (टीबी) हो गया। लंबे समय तक दमे और साँस की बीमारी से लड़ते हुए इलाज के अभाव में साल 2000 में चंपालाल ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लोक-गायिकी की इस महान जोड़ी का जीवन इस अर्थ में त्रासद कहा जाएगा कि जिन्होंने जीवन भर प्रेम के गीत गाए, लोगों के जीवन में प्रेम भरा; वही अंत समय में साथ नहीं रह पाए।
चंपा के निधन के बाद मेथी ने अपने सबसे बड़े बेटे दिलीप के साथ गाना शुरू किया। चंपा-मेथी के साथ ढोलक पर संगत करने वाला मदनलाल मेथी के पीहर पक्ष से था और रिश्ते में मेथी का चाचा लगता था। चंपा की मृत्यु के बाद मदनलाल को भरोसा था कि मेथी के साथ उसे मुख्य-गायक की भूमिका मिलेगी। जब मेथी ने अपने बेटे के साथ गाना शुरू किया तो उसके मन में रंजिश पैदा हो गई। चंपा की मृत्यु के अगले साल 2001 में ही एक सामान्य से झगड़े में मदनलाल ने मेथी के दूसरे लड़के राजू पर गुप्ती से हमला किया। बेटे को बचाने के लिए मेथी बीच में आयी और वह धारदार हथियार उसके सीने के पार हो गया। मेथी मारी गई और उसी के साथ लोक-संगीत का एक महान घराना भी मर गया। चंपा-मेथी की अकाल मृत्यु त्रासदी में तब बदल जाती है, जब यह सुनने में आता है कि जिन कैसेट कंपनियों के मालिकों ने उनके गाने बेच-बेचकर अपना घर भरा, गाड़ियाँ खरीदीं; वे उनकी मृत्यु के बाद उनके घर झाँकने तक न आए। आज चंपा-मेथी के परिवार की बहुत बुरी हालत है।
चंपा-मेथी का लोक संगीत में सबसे बड़ा अवदान यह है कि इन्होंने लोक-गीतों को ज़िंदा रखा और अपनी मधुर आवाज़ में गाकर लोगों की ज़बान पर भी स्थायी रूप से बिठा दिया। लोकगीतों के जितने आयाम हो सकते हैं, चंपा-मेथी ने उन सभी गीतों को अपनी सुरीली आवाज़ दी। वे चाहे वीर गीत हों या संस्कार गीत। वे चाहे हालरिया गीत हो या हरजस। चाहे ऋतु के गीत हों या प्रेम गीत; चंपा-मेथी ने सभी गीतों को अपने सुर की खराद पर चढ़ाकर अमर कर दिया। उनके चर्चित गीतों में ‘बन्ना लाओ उड़द री दाल’,‘धुधलिये धोरां में’,‘केसरियो हजारी गुल रो फूल’,‘टेशण-टेशण रेडियो’,‘रामलाल मुंशी जी रे’,‘जिनावारिया’,‘बीन्टी’, और ‘ओमपुरी’ आदि हैं।
जिनके बचपन ने कैसेट्स का ज़माना देखा है, जीया है; वे जानते हैं कि चंपा-मेथी के सुर की तासीर क्या थी। आज भी जब कहीं ‘बन्ना टेशण-टेशण रेडियो लगाई दो सा’ गाना बजता है तो सुनने वालों की आँखों की कोर भीग जाती हैं।