चित्रकला - प्रागैतिहासिक काल का मानव गुफाओं में रहता था तो उसने गुफाओं की दीवारों पर चित्रकारी की थी। कला के विभिन्न रूपों में ‘चित्रकारी’ कला का एक सूक्ष्मतम प्रकार है जो रेखाओं और रंगों के माध्यम से मानव चिंतन और भावनाओं को अभिव्यक्त करता है। चित्रकला एक स्थानिक और अचल कला है। यहाँ गति, दिक् संस्कृति सब वास्तविक है और दर्शक को स्वयमेव चित्र के इर्द-गिर्द गतिशील रहकर उसकी अनेक भंगिमाओं को ग्रहण करना पड़ता है। ‘चीयते इति चित्रम्’ अर्थात् चित्रकार बहिर्जगत और अन्तर्जगत के भावों का चयन कर उन्हें रंग और रेखाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। चित्रकार किसी आधारभूत सतह पर रेखाओं व रंगों के संयोजन से अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करता है। चित्रकला का माध्यम रेखा और रंग हैं। इसमें स्थापत्य और मूर्ति की भाँति स्थान का उपयोग आवश्यक है पर माध्यम अति कोमल हो जाने के कारण अभिव्यक्ति अधिक सशक्त हो जाती है। विद्वानों के अनुसार चित्रकला के पाँच तत्त्व हैं – रेखा प्रवाह, रूप योजना, स्थान, छाया प्रकाश, वर्ण।

 

चित्र और चित्रण - किसी एक तल पर जो सम हो और रंग खमदार पानी, तेल अथवा अन्य माध्यम में घुले या सूखे रंगो से रेखा व रंगमेजी द्वारा किसी रमणीय आकृति को दर्शाने या अंकन करने को चित्रण कहते हैं और प्रस्तुत वस्तु को चित्र कहते हैं। चित्राकंन में सतह भित्ति, पत्थर, काठ, पकाई मिट्टी के पात्र या फलक, हाथी दांत, चमड़ा, कपड़ा, ताड़पत्र या कागज़ की होती है।

 

राजस्थानी चित्रकला - राजस्थानी चित्रकला, लघु चित्रकला की वह शैली है जो मुख्य रूप से 16वीं-19वीं शताब्दी में पश्चिमी भारत में राजस्थान के स्वतंत्र हिंदू राज्यों में पांडुलिपि चित्रण से विकसित हुई। राजस्थानी चित्रकला हिंदू राजपुताना की सबसे अधिक प्रतिनिधि शैली है, इसलिए इसे हिंदू शैली भी कहा जाता है। हालांकि इसके विकास के बाद के वर्षों में मुगल प्रभाव स्पष्ट हो गया। राजस्थानी चित्रकला अन्य चित्रकलाओं से भिन्न है।

 

राजस्थानी चित्रकला की  विशेषताएँ - राजस्थानी चित्रकला में मुख्य आकृति और पृष्ठभूमि की समान महत्ता होने के साथ-साथ इसमें प्रकृति का मानवीकरण भी देखने को मिलता है। राजस्थानी चित्रकला में नारी सौंदर्य को खास तरीके से दिखाया गया है समयामुसार और इसको चित्रों में मुगल प्रभाव भी दिखता है। राजस्थानी चित्रकला में आम जनजीवन और लोक विश्वासों को ज़्यादा अभिव्यक्ति मिली है जिससे राजस्थानी चित्रकला के चित्र संयोजन में समग्रता की विशेष झलक देखने को मिलती है, इसी वजह से राजस्थानी चित्रकला में विषय-वस्तु और वातावरण का संतुलन होने से दर्शक को रुचिकर लगता है।

 

राजस्थानी चित्रकला के स्कूल व कुछ प्रमुख शैलियां - राजस्थानी चित्रकला का प्रथम वैज्ञानिक वर्गीकरण आनंद कुमार स्वामी ने किया था, राजस्थानी चित्रकला में मेवाड़ स्कूल, मारवाड़ स्कूल, हाड़ैती स्कूल और ढूंढाड़ स्कूल प्रमुख हैं। राजस्थान की सबसे प्रसिद्ध पेंटिंग बणी-ठणी है और इसकी प्रमुख शैलियों में मेवाड़ शैली, किशनगढ़ शैली, बीकानेर शैली, हाड़ौती शैली, अलवर शैली, डूंगरपूर उपशैली और मेवाड़ शैली है।

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