भारतीय संस्कृति का मेरुदंड धर्म तथा उसकी आधारशिला दर्शन है। प्राचीन भारतीय कलाएँ धर्म-रूपी वटवृक्ष की छत्र-छाया में पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित हुईं। इस दृटि से राजस्थान का विशिट योगदान है तथा मूर्तिकला के जो पद्म यहाँ प्रस्फुटित हुए, वे भारतीय कला की धरोहर हैं।

राजस्थान की धरती संस्कृतिगर्भा है। यद्यपि राजस्थान के विभिन्न प्राचीन स्थलों के उत्खनन से प्रत्यग ऐतिहासिक एवं परवर्ती काल के ऐसे सांस्कृतिक एवं कलावशेष प्रकाश में आये हैं, जो तत्कालीन मानव के सौन्दर्य बोध, परिष्कृत, अभिरुचि, कल्पनाशील एवं उर्वर मस्तिष्क के परिचायक हैं। कालीबंगा (श्रीगंगानगर) से प्राप्त हड़प्पाकालीन सांस्कृतिक पुरासामग्री में मिट्टी तथा धातु की लघ्वाकार मूर्तियाँ एवं खिलौने उल्लेखनीय हैं। जब बलूचिस्तान सिन्ध-पंजाब के सैन्धव सभ्यता के नगरों में मातृदेवी के पूजन का प्रचलन था और उनकी असंख्य मृणमूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं, तभी राजस्थान, हरियाणा-गुजरात के इसी सभ्यता के स्थलों में मातृका फलकों का सर्वथा अभाव है। ऐसी दशा में राजस्थान में कालीबंगा से आयताकार, वर्तुलाकार तथा अंडाकार अनेक अग्निवेदियों की सम्प्राप्ति विचारणीय है।

शुंग-कुषाणकाल में राजस्थान में देवमूर्तियों का निर्माण हुआ जिनमें यक्ष-यक्षी की प्रतिमाएँ लोक परम्परा की अद्भुत देन हैं। आज भी लोक तथा ग्राम देवता के रूप में वे मान्य तथा पूजित हैं। लोक कहावतों में - 'गाँव-गाँव को ठाकुर, गाँव-गाँव को वीर' प्रसिद्ध है। सन् 1993 में नोह (भरतपुर) में खोजी गई इस काल की मूर्ति जाखबावा आज भी ग्राम में पूजान्तर्गत है। उत्तर भारत की प्रारम्भिक शैव मूर्तिकला राजस्थान की ही देन हैं। इस दृष्टि से भरतपुर परिसर की विशेष भूमिका रही है। उत्तरप्रदेश-राजस्थान की सीमा पर भरतपुर सीकरी राजमार्ग पर अवस्थित चौमा, भंडपुरा का लगभग 4 फीट ऊँचा शिवलिंग शैव मूर्तिकला का अद्भुत उदाहरण है। मानवाकार विग्रह में भी शिव की अभिव्यक्ति उत्तर कुषाणकाल से प्राप्त होने लगती है। उत्तरी राजस्थान में सरस्वती उपत्यका में रंगमहल, मुण्डा आदि की कला सामग्री इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।

शिलालेख साक्ष्य से सुस्पष्ट है कि चित्तौड़ के निकट नगरी (प्राचीन मध्यमिका) में शुंगकाल में संकर्षण-वासुदेव (कृष्ण-बलराम) की पूजा विद्यमान थी। राजस्थान की प्राचीनतम वैष्णव प्रतिमाएँ उत्तर कुषाण काल अथवा प्रारम्भिक गुप्तकाल की हैं। इस दृष्टि से नगर (मालवनगर, टोंक), सांभर (जयपुर) तथा पीलीबंगा (गंगानगर) से प्राप्त लघ्वाकार विष्णु फलक महत्त्वपूर्ण हैं। पुष्कर (अजमेर) के निकट नांद में जो अन्यतम कुषाण कालीन शिवलिंग रोपित है, सांभर फलक प्रस्तर विनिर्मित है तथा नगर और पीलीबंगा के फलक खड़िया मिट्टी के बने हैं जो निस्संदेह गांधार कला का प्रभाव है।
बौद्ध धर्म का जन्म भारतभूमि में हुआ और गंगा-यमुना की उपत्यका में उसका आशातीत रूप में विकास एवं संवर्द्धन विशेषतः मौर्य से कुषाण युग में हुआ। प्राचीन मत्स्यप्रदेश की राजधानी विराटनगर अथवा बैराठ (जयपुर) बौद्ध धर्म का सांस्कृतिक केन्द्र बना। बौद्धकालीन मूर्तियों में अशोक महान् (ईसवी पूर्व 272-232) के दो अभिलेख यहाँ से प्राप्त हो चुके हैं। सन् 1840 में कैप्टन बर्ट द्वारा खोजे गये और अब कोलकाता में सुरक्षित है। वैराट में अशोक का दूसरा अभिलेख भीमजी की डूंगरी पर उत्कीर्ण है।

गुप्तकालीन कला (319-600 ई.) -  प्राचीन भारत का स्वर्ण युग है। सांस्कृतिक वैभव की जो वर्षा साहित्य, संगीत, कला के विभिन्न आयामों के रूप में इस काल में हुई वह भारतीय मानव की परिष्कृत अभिरुचि तथा सौन्दर्य-बोध की पराकाष्ठा है। भावनात्मक देव मन्दिरों का निर्माण हुआ तथा मूर्तियाँ उसका अभिन्न अंग बन गयीं। विविध प्रयोगों, अभिप्रायों एवं नवीन उद्भावनाओं के माध्यम से मूक पाषाण मुखर हो उठे। राजस्थान में गुप्तकाल में अनेक मन्दिर बने जो अब काल के ग्रास हो चुके हैं। हाड़ौती के क्षेत्र में मुकन्दरा तथा चारचौमा के शिव मंदिर मात्र बच रहे हैं। नगरी (चित्तौड़), गंगधार (झालावाड़), मंडोर (जोधपुर) तथा सरस्वती उपत्यका (गंगानगर) में भव्य देवालय विद्यमान थे, जिनकी मूर्तियाँ तथा स्थापत्य खंड आज भी विगत अतीत के वैभव का गुणगान कर रहे हैं। उत्तरी राजस्थान से सन् 1916-1919 के वर्षों में इटेलियन विद्वान् डॉ. एल. पी. टेसीटोरी रंगमहल, मुण्डा, पीर सुल्तान री थेड़ी, पीलीबंगा, बड़ोपल (हनुमानगढ़) आदि के टीलों से मृण्मूर्तियों की जो अमूल्य धरोहर खोज कर प्रकाश में लाये, वे आरम्भिक गुप्तकालीन कला की अनुपम निधियाँ हैं। ये बीकानेर संग्रहालय में प्रदर्शित हैं। इनमें सबसे बड़ी नारी का धड़ (3 फीट 2 इंच) मात्र है 'जो पीर सुल्तान री थेड़ी से प्राप्त हुई है। मुण्डा से मिली खंडित मृण्मूर्ति की पाद पीठिका पर उत्कीर्ण 'यशोदाकृति' लेख महत्त्वपूर्ण है। भद्रकाली से प्राप्त चतुर्भुजी महिषमर्दिनी तथा मुण्डा से मिली वीरभद्र शिव भी महत्त्वपूर्ण मृण्मूर्तियाँ हैं, प्रस्तर विनिर्मित अनेक महत्त्वपूर्ण गुप्तकालीन मूर्तियाँ राजस्थान में प्राप्त हैं। वर्ष 1871-73 में रूपवास (भरतपुर) से कारलाइल द्वारा खोजी गयी चक्रधर द्विभुजी विष्णु (22 फीट) तथा सर्पफणा बलराम रेवती (19 फीट) की विशालकाय प्रतिमाएँ राय कृष्णदास के शब्दों में गुप्तकाल की कला की श्रेष्ठताओं से युक्त हैं। हेमावास (पाली) तथा भीनमाल (जालोर) की विष्णु प्रतिमाएँ समपाद स्थानक अवस्था में है। हेमावास विष्णु तोंदिल तथा द्विभुजी (खंडित) हैं जब कि भीनमाल की प्रतिमा चतुर्भुजी है।

गुप्तोत्तरकालीन कला के क्षेत्र में जो प्रतिमान बनाये उनसे बागड़ (बांसवाड़ा-डूंगरपुर) से लेकर अर्बुद (आबू) तक का समूचा परिसर प्रभावित हुआ। धातु मूर्तियों के निर्माण को भी प्रोत्साहन मिला। लामा तारानाथ ने पश्चिमी भारत की स्वतन्त्र कला शैली का उल्लेख करते हुए मरुदेश के श्रृंगधर नामक कलाकार तक की चर्चा की है। कूसमा (सिरोही) में वि. सं. 693 (636 ई.) तथा झालावाड़ में चन्द्रभागा के तट पर वि. सं. 746 (690 ई.) में शिव मन्दिर निर्मित हुए जो आज भी विद्यमान हैं। आमझरा, तनेसर, नवलश्याम, केजड़, कल्याणपुर, जगत्, आबू आदि से इस युग की मनोरम कलाकृतियाँ मिल चुकी हैं। तनेसर में स्कन्द-कार्तिकेय से सम्बन्ध कृत्तिकाओं का मन्दिर था। उसकी मूर्तियाँ राष्ट्रीय संग्रहालय (नई दिल्ली), उदयपुर संग्रहालय तथा अमरीका के संग्रहालयों तक में पहुँच चुकी हैं। वसन्तगढ़ (सिरोही) से तीर्थंकरों की दो सुन्दर धातु मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें एक पर वि. सं. 744 (687 ई.) का लेख उत्कीर्ण हैं।

मध्यकालीन की कला (8 से 13 शताब्दी) - मंदिर स्थापत्य और उसकी मूर्तिकला अपने विकास की क्रमिक यात्रा करते हुए चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुई। राजस्थान में आज भी इस युग की कीर्ति का बखान करने वाले अनेक देव भवन बच रहे हैं। मध्यकालीन मूर्तिकला अपनी पूर्ववर्ती प्रतिमाओं की अनुकृति अथवा परम्परावादी तथा रूढ़िवादिता से आबद्ध निर्जीव कृतियाँ मात्र नहीं हैं। वे अपने युग की धार्मिक चेतना एवं भाव-भूमि की वास्तविक प्रतिबिम्ब है। इस युग में मृण्मूर्तियाँ लोक कला तक ही सीमित रह गयीं, परन्तु धातु मूर्तियाँ की समृद्ध परम्परा ने मूर्तिकला को नये आयाम प्रदान किये। 
विभिन्न राजपूत राजवंशों के समय मध्यकाल में बने मन्दिरों में मारवाड़ में ओसियाँ, सोयला, लाम्या, बुचकला, घटियाला, किराडू (बाड़मेर), केकीन्द (पाली) आनन्दपुर कालू (पाली), नीमाज (पाली) का मकरमण्डी माता तथा गोठ मांगलोद (नागौर) का दधिमाता मंदिर, जयपुर परिसर में आबानेरी, हर्षनाथ, (सीकर) तथा जयभवानीपुरा के मंदिर, चित्तौड़ दुर्ग का कालिका माता एवं कुम्भश्याम मंदिर, मेवाड़ का मेनाल, बिजोल्याँ जगत् व बाड़ोली के शिवालय, झालरापाटन में चन्द्रभागा मन्दिर के तट पर स्थित शीतलेश्वर मंदिर, कोटा के कंसुआ, रामगढ़, भंडदेवरा, बूढ़ादीत, अटरू तथा आम्बां के देवालय, आबू पवर्त में विमल वसही तथा लूण वसही बांगड़ में अर्थणा (बांसवाड़ा) तथा देव सोमनाथ (डूंगरपुर), पारानगर (अलवर) में नीलकंठ महादेव मन्दिर आज भी अपनी मूल अवस्था में बच रहे हैं।

उत्तर मध्यकाल में 13वीं शताब्दी और उसके बाद देवभवनों के निर्माण को गहरा आघात पहुँचा तथा मूर्तिकला ह्रासोन्मुखी हो गयी। राजस्थान और गुजरात की समृद्ध कला परम्पराओं के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो गया। दो शताब्दियों के संघर्ष के बाद 15वीं शताब्दी में जिस सांस्कृतिक पुनरुत्थान के युग का सूत्रपात हुआ उसमें मेवाड़ के गुहिल तथा जैसलमेर के भाटी राजवंशों ने अग्रणी भूमिका निभायी। मेवाड़ में महाराणा कुम्भा (1433-1460 ई.) का उदय सांस्कृतिक इतिहास की बड़ी घटना है। कुंभलगढ़, चित्तौड़गढ़ और अचलगढ़ (आबू) में भव्य मंदिर बने और राजस्थान की मूर्तिकला का मानो पुनर्जन्म हुआ। इन तीनों ही केन्द्रों में उन्होंने 'कुम्भस्वामी' नाम से विष्णु मंदिर बनवाये। चित्तौड़ का कीर्ति स्तम्भ (वि. सं. 1505/1448 ई.) वास्तव में वहाँ के कुम्भ स्वामी मंदिर का विष्णु स्तम्भ है। यह भारतीय मूर्तिकला का शब्दकोष ही है। कीर्तिस्तम्भ के निर्माता कुशल कलाकारों की आकृतियाँ भी दूसरी तथा पाँचवीं मंजिल में बनी हैं, जिनमें उल्लेखनीय जड़ता तथा उनके पुत्र नापा, पोमा तथा पूंजा हैं। कुम्भलगढ़ के मंदिर और मूर्तियों को निर्मित करने का श्रेय सुप्रसिद्ध सूत्रधार मण्डन और उसके परिवार को है। इस दुर्ग के वटवृक्ष के नीचे अनेक मातृका प्रतिमाएँ तथा विष्णु के चतुर्विंशति स्वरूपों की मूर्तियाँ क्रमशः वि. सं. 1515 तथा वि. सं. 1516 में बनी जिनका निर्माण रूपमण्डन के आधार पर हुआ था। इनमें सोलह मूर्तियाँ उदयपुर संग्रहालय तथा कुछ कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही विद्यमान हैं। इनकी पादपीठ पर इस आशय का लेख भी उत्कीर्ण है। इसी काल में जैन मन्दिरों का भी निर्माण हुआ जिनमें रणकपुर का चतुर्मुख आदिनाथ मंदिर (वि. सं. 1496) तथा चित्तौड़गढ़ का शांतिनाथ मंदिर अथवा श्रृंगार चौरी (वि. सं. 1505) प्रमुख है। रणकपुर के भव्य एवं विशाल मंदिर को सोमपुरा शिल्पज्ञ देपाक के निर्देशन में पचास से भी ऊपर शिल्पियों ने निर्मित किया। युगादीश्वर ऋषभनाथ मूलनायक के रूप में पूजित हैं जो सर्वतोभद्र समवसरण प्रतिमा है। इनके दर्शन चारों दिशाओं से किये जा सकते हैं। किन्हीं दो स्तम्भों के अलंकरण एक जैसे नहीं हैं, जो कलाकार की पैनी दृष्टि के परिचायक हैं। नागदा की 9 फीट ऊँची शांतिनाथ प्रतिमा (वि. सं. 1494) तथा उदयपुर संग्रहालय की इसी क्षेत्र से प्राप्त आदिनाथ प्रतिमा को बनाने का श्रेय मदनपुत्र धरणा या धरणाक को है।

 

मरुस्थली की गोद में बसे जैसलमेर दुर्ग में 15-16वीं शताब्दी में एक के बाद एक मंदिर बनते गये। लक्ष्मीनाथजी का विशाल वैष्णव मंदिर (वि. सं. 1494/1437 ई.) तथा आठ जैन मंदिर क्रमशः इसी कालावधि में निर्मित हुए। 14 वर्षों में निर्मित 52 जिनालयों तथा सुन्दर तोरण द्वार से युक्त चिन्तामणि पार्श्वनाथ के मंदिर का शिलान्यास वि. सं. 1459 (1402 ई.) में खरतरगच्छ आचार्य सागरचन्दसूरि द्वारा किया गया जिनके गर्भगृह के बाहर हाथ जोड़े मूर्ति जड़ी हुई है। बीकानेर में विशाल परकोटे में स्थित लक्ष्मीनाथजी के मंदिर के निकट ही समकालीन भांडासर का 'त्रैलोक्य दीपक प्रसाद' (वि. सं. 1571/1514 ई.) तथा नेमिनाथ के जैन मंदिर निर्मित हुए।

आमेर नरेश महाराजा मानसिंह (1589-1614 ई.) ने वृंदावन (मथुरा) में सन् 1590 में गोविन्ददेवजी का सुविख्यात और भव्य मंदिर बनवाया। उसकी रानी ने अपने दिवंगत पुत्र जगतसिंह की याद में आमेर में जगतशिरोमणि का भव्य वैष्णव मंदिर बनवाया। तोरणयुक्त मंदिर के सम्मुख छतरी में वि. सं. 1677 (1620 ई.) में प्रतिष्ठित सफेद मकराना में सुन्दर गरुड़ है। राजा मानसिंह बंगाल से शिलादेवी (महिषमर्दिनी) की पालकालीन प्रतिमा लाये, जिन्हें आमेर में पधराया गया। वैराठ में शक संवत् 509 (1588 ई.) में तीर्थंकर विमलनाथ का समलंकृत तोरण द्वार युक्त मंदिर बना। ब्रह्माबाद से प्राप्त तथा भरतपुर संग्रहालय में प्रदर्शित जैन परिकर का निर्माण वि. सं. 1679 (1622 ई.) में उस्तामोहन, हरबंस, दयाल तथा मधुरा द्वारा किया गया। नरसिंह मंदिर (आमेर) में वि. सं. 1702 (1645 ई.) में सफेद मकराना में एक सुन्दर डोल (हिंडोला) राजमाता सिसोदिया दमयंतीजी ने यशोदानंदन कृष्ण के लिए बनवाया। पट्टम (पाटन) में वि. सं. 1698 (1641 ई.) में प्रतिष्ठित केशोराय मंदिर तथा उदयपुर में राजमहलों के निकट 1708 (1651 ई.) में प्रतिष्ठित जगदीश मंदिर, मुगलकाल में राजस्थान में बने अन्य महत्त्वपूर्ण वैष्णव मंदिर हैं। पाटन में श्वेत संगमरमर में केशवराय तथा उदयपुर में जगदीशजी की श्यामवर्णी पाषाण मूर्ति पूजान्तर्गत है। जगदीश मन्दिर के निर्माता कलाकार भंगोरा जाति के शिल्पी भाणा के पुत्र मुकन्द, भूधर एवं पौत्र बाघा थे। 17-18वीं शताब्दी में श्रीनाथजी (नाथद्वारा), द्वारिकाधीशजी (कांकरोली), मथुरेशजी (कोटा), गोविन्ददेवजी (जयपुर), तथा रतनबिहारी एवं दाऊजी (बीकानेर) के मन्दिर व मूर्तिकला इसके प्रमाण हैं। महाराणा राजसिंह ने राजसमुद्र पर द्वारिकाधीश मंदिर निर्मित किया, जिसकी पाल पर स्थित नौचोकियों की मूर्तिकला पारम्परिक कला का अंतिम सशक्त उदाहरण है। राजनीतिक उतार-चढ़ाव के उपरान्त भी राजस्थान में मन्दिर और उनमें मूर्तियाँ बनती रहीं। कला की यह निरन्तरता इस प्रदेश का निजस्व है, परन्तु उत्तर मध्यकालीन मूर्तिकला में पूर्व की जीवन्तता, सौन्दर्य, अलंकारिता, लयात्त्मकता एवं गतिशीलता का सर्वथा अभाव है। जयपुर में अब भी मूर्तियाँ बन रही हैं, लेकिन उनमें वह दमखम कहाँ?

राजस्थान की लोक मूर्ति-कला - परम्परागत रूप से भारतीय मूर्तिकार लोक जीवन का आवश्यक अंग है। मूर्तिकला एक व्यवसाय के रूप में विकसित हुई है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी कलाकार अपनी कला का हस्तान्तरण करते रहे हैं। मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने का कार्य कुंभकार करता था, पत्थर से मूर्तियाँ बनाने का कार्य सिलावट करते थे, लकड़ी की मूर्ति बनाने का कार्य सुथार प्रमुख रूप से करते रहे हैं एवं धातु से मूर्तियाँ ढालने का कार्य धातु का कार्य करने वाले दक्ष कलाकार करते थे। जिस वस्तु की मूर्ति बनानी होती है उस वस्तु पर काम करने वाली जाति विशेष के लोग मूर्तियाँ बनाते रहे हैं, अनुमान है कि लगभग 5000 मूर्तिकार जयपुर में मूर्ति निर्माण का कार्य करते हैं। अधिकतर कलाकारों के लिए यह खानदानी व्यवसाय है।

परम्परागत मूर्तिकला में मूर्तियों के विविध विषय होते हैं। मुख्य रूप से जैसे-देवी देवता तथा उनके वाहन, प्रतीक चिह्न बनाये जाते हैं। मन्दिर के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले नर्तक, नृत्यांगनाएँ, गायक वादक आदि की मूर्तियाँ बनाने के आदेश भी प्राप्त होते हैं। सनातन तथा वैष्णव धर्म के देवी-देवता एवं उनके अवतार जैसे-विष्णु, लक्ष्मीनारायण, चारभुजा, राम-सीता, कृष्ण-राधा, हनुमान आदि की मूर्तियाँ संगमरमर के दूध जैसे उज्ज्वल शिलाखण्ड से निर्मित होती हैं।

महापुरुषों की मूर्तियों के निर्माण का चलन भी आजादी के बाद से बहुप्रचलित हो गया है। स्वतंत्रता सेनानियों, राजनेताओं तथा स्थानीय विभूतियों की मूर्तियाँ सार्वजनिक स्थानों पर लगाने का प्रचलन बढ़ने से जयपुर के मूर्तिकार महापुरुषों तथा स्थानीय व्यक्तियों की मूर्तियों के लिए उनके चित्रों के आधार पर अग्रिम राशि लेकर अनुबन्ध करते हैं।

डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा के निकट तलवाड़ा ग्राम में सोमपुरा जाति के मूर्तिकार बहुत प्रसिद्ध हैं, ये कुछ ही परिवार हैं जो स्थानीय काले पत्थर को काँट छाँट कर सुन्दर मूर्तियाँ बनाते हैं। सोमपुरा मूर्तिकार पढ़े-लिखे तथा मूर्तिकला के ज्ञाता हैं। वे शास्त्रीय परम्परा को महत्त्व देते हैं। लाल पत्थर की मूर्तियाँ बनाने का काम अलवर जिले के थानागाजी तहसील के झिरी, किशोरी, मांदरी आदि निकटवर्ती गाँवों में होता है। लाल पत्थर की मूर्तियाँ अधिकतर आकार में छोटी होती हैं तथा विभिन्न उपयोग हेतु बनवाई जाती हैं, आबू पर्वत, उदयपुर, कोटा, सिरोही तथा अनेक नगरों के आस पास कुछ परिवार सिलावटों के बसे हैं, जो नरम पत्थर पर मूर्तियाँ उत्त्कीर्ण करते हैं एवं गणेश, शिव-पार्वती, शिव-लिंग, कृष्ण, राम, देवी आदि देवी-देवता के स्वरूप बनाकर, उन्हें बस स्टेण्डों, रेलवे स्टेशन तथा नगरों, मोहल्लों में घर-घर जाकर बेचते हैं।

काष्ठ की मूर्तियाँ जो अधिकतर कठपुतलियों के रूप में बनती हैं, राजस्थान के अनेक स्थानों पर बनाई जाती हैं। सुथार जाति के लोग इमारती लकड़ी को विभिन्न आकृतियां व रूप देकर उनको रंग-रोगन से सजा देते हैं। चित्तौड़गढ़ जिले में बस्ती कस्बे में अनेक काष्ठकृतियाँ बनाने वाले हैं तथा मूर्तियों के साथ-साथ काष्ठ के खिलौने व चित्रित कावड़ आदि बनाते हैं। चित्तौड़ में इस कला में दक्ष सुथार तीन-चार फुट ऊँचे हाथी, घोड़े, ऊँट तथा बंदर की सुंदर आकृतियाँ बनाते हैं तथा उनका निर्यात भी होता है। उदयपुर, जयपुर, कोटा, बूंदी, जोधपुर, करौली, बीकानेर आदि में काष्ठ-कला के निर्माणकर्ता रहे हैं। जोधपुर के लकड़ी के झूले बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। लकड़ी पर लाख, रंग तथा स्वर्ण लगाकर झूले बनाये जाते हैं तथा उनको काँच के टुकड़ों से सजाया जाता रहा है। झूले के स्तम्भों पर हाथी, घोड़े, मोर, तोते तथा चिड़िया की आकृतियाँ बड़े सुन्दर ढंग से जोड़ी जाती थीं। करौली के मोहल्लों में लकड़ी के बने आदमकद 'लांगुर' खड़े दिखाई देंगे। बाड़मेर में लकड़ी की खुदाई प्रसिद्ध है।

धातु की मूर्तियों की महत्त्वपूर्ण परम्परा भी राजस्थान में रही है। पीतल, ताँबा, कांसा तथा अष्ट-धातु का प्रयोग बड़ी मूर्तियों के निर्माण में किया जाता था। परन्तु यह कार्य महँगा तथा विशेषज्ञों द्वारा ही संभव था, अतः इसके केन्द्र अब लगभग नहीं रहे। सोने-चाँदी की मूर्तियाँ भी बनाई जाती हैं। स्वर्णकार इस कार्य को करते हैं। ऐसी मूर्तियाँ धनाढ्य-जन ही अपना पाते हैं, अतः अधिकतर व्यक्तिगत संग्रह में मिलती हैं। चांदी सी चमकती सस्ती धातु जस्ता राजस्थान में प्राप्य है, अतः जोधपुर जस्ते की सुंदर मूर्तियों का केन्द्र बन गया है।
मिट्टी से मूर्तियाँ बनाने का कार्य सस्ता होते हुए भी कठिन है। मिट्टी से मूर्ति बनाने की परम्परा प्राचीनतम है। संसार भर में टेरा कोटा (मृणमूर्तियाँ) का निर्माण होता रहा है। कुम्भकार के लिए मिट्टी के बर्तन बनाना सुविधाजनक है, कुछ कुम्भकार नाथद्वारा के निकट ग्राम 'मोलेला' में रहते हैं जो विविध देवी-देवताओं को उस फलक पर इस तरह निर्मित करते हैं कि दर्शक दाँतों तले अंगुली दबा लेता है। गणेश,लक्ष्मी, महिषासुर मर्दिनी, कृष्ण, गोप-गोपियाँ, सामान्य जन, भोपा-भोपी, बैलगाड़ी, रेलगाड़ी, वाली-बाल खेलते युवा-जन आदि विभिन्न विषयों पर ये कुम्भकार सजीव मूर्तियाँ बनाते हैं। विशाल घोड़े, हाथी आदि भी इनके प्रिय विषय हैं। राजस्थान की मूर्तिकला की परम्परा सामाजिक आवश्यकता रही है। विस्तृत खुले पहाड़ी या रेतीले प्रदेश में चलते-चलते किसी पेड़ की छाँह तथा विश्राम के लिए छोटा-बड़ा मंदिर होता है। जहाँ मूर्ति स्थानीय परम्परा के अनुसार ही होगी। चित्रों को सुरक्षित रखना सामान्य जन के लिए सम्भव नहीं था। मूर्तियाँ चाहे वे मिट्टी की हों या लकड़ी की इस शुष्क प्रदेश में आसान रहा है। मूर्तियाँ बहुजनों की सौन्दर्य रुचि की आवश्यकता की पूर्ति करती हैं, जबकि चित्र व्यक्तिगत संग्रह की वस्तु बनकर सामान्य जन से दूर हो जाते हैं। परम्परागत मूर्तियाँ राजस्थान की कला तथा संस्कृति का एक उज्ज्वल पृष्ठ है।


राजस्थान की समकालीन मूर्तिकला - राजस्थान के सन्दर्भ में समकालीन मूर्तिकला का इतिहास स्वतन्त्रता प्राप्ति से अधिक पुराना नहीं है। पारम्परिक मूर्तिकला की राजस्थान में इतनी समृद्ध परम्परा रही है कि उससे दूर हटकर नए रूपाकार गढ़ना कठिन कार्य रहा है, परन्तु फिर भी समकालीन मूर्तिकला में नये आयाम उभर कर आये हैं, वे सराहनीय हैं तथा कला यात्रा की सम्भावना को उजागर करते हैं।

स्वन्त्रता के उपरान्त राजस्थान की समसामयिक मूर्तिकला में परम्परा के बीजांकुर जयपुर के मूर्ति मोहल्ले से टटोले जा सकते हैं। वहाँ एक ठेठ देसी कलाकार स्व. उस्ताद मालीराम का नाम सबसे पहले उभरता है। जीविका के लिये इसने बाजार में बिक सकने वाली पौराणिक मूर्तियाँ बनाई, गुलाबचन्द शर्मा ने भी मालीराम की तरह शेरों का शिकार, घुड़सवार, जानवरों की लड़ाई आदि दर्शनीय और कौशल से परिपूर्ण रचनाएँ उत्कीर्ण कीं। 1948 में इन्हीं के भतीजे लल्लू नारायण स्कूल ऑफ आर्ट में मूर्तिकला के अध्यापक नियुक्त हुए और जुलाई 1979 में सेवानिवृत्त हुए। उल्लेखनीय है कि इनके पिता चन्दर मिस्री स्टेच्यू सर्किल पर बनी छतरी के निर्माता थे। लल्लू नारायण शर्मा के पुत्र राजेन्द्र शर्मा संप्रति राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट में मूर्तिकला के शिक्षक हैं। 1950 में जन्मा यह कलाकार 1969 में अकादमी से पुरस्कृत हुआ।

मुकुटबिहारी नाठा एवं ओम प्रकाश नाहठा जयपुर के मूर्तिकार घराने के प्रभावशाली युवा कलाकार हैं जो स्कूल ऑफ आर्ट में अध्ययन कर सृजन की दिशा की ओर प्रवृत्त हुए। मुकुट बिहारी नाठा को 1972, 73, 74 एवं 77 में अकादमी से पुरस्कृत किया गया। आनन्दीलाल वर्मा, अय्याज मुहम्मद एवं गंगाराम भी स्कूल ऑफ आर्ट में मिश्रा जी के शिष्य रहे और अकादमी से पुरस्कृत हुए। इनका जमाना यथार्थवादी व्यक्ति छवियों का या काल्पनिक संयोजनों का जमाना था, जहाँ साधन के बिना गति सम्भव ही नहीं थी। 1962 में स्वर्गीय रघुनन्दन शर्मा को अकादमी का पुरस्कार मिला था यह मूर्ति और चित्रकला दोनों में ही लीक से हटकर काम करने की पहल की। इनके यथार्थवादी पोट्रैट अध्ययन की बारीकी और उन्मुक्तता दोनों लिए हुए सबसे अलग होते थे।

मूर्तिकार घराने में 1964 में जन्मे युवा कलाकार नरेश भारद्वाज ने भी जयपुर स्कूल ऑफ आर्ट में अध्ययन कर 1984 में डिप्लोमा प्राप्त किया। इसी वर्ष इन्हें अकादमी से अपनी रचना के लिए पुरस्कृत किया गया। कमल प्रसाद मिश्र, पुरुषोत्तम शर्मा एवं छगनलाल शर्मा भी मूर्तिकला के दक्ष कलाकर हैं जो स्कूल ऑफ आर्ट, जयपुर के विद्यार्थी रहे तथा अकादमी से 1970 एवं 74 में पुरस्कृत हुए हैं। मूर्तिकार घरानों से अलग कुछ कलाकारों ने अपने सृजन से समकालीन मूर्तिकला में नये आयाम जोड़े हैं। हैं। इनमें हरिदत गुप्ता उल्लेखनीय हैं। मूलतः इन्जीनियर गुप्ता 1921 में जन्मे वरिष्ठ कलाकार हैं। कलाकार हैं। इन्होंने काष्ठ रूपों को भावनात्मक अभिव्यक्ति दी है। दी है। पेड़ की जड़ों, तनों और टहनियों में रूप तराश कर कहीं ललित तो कहीं विरूपित सौन्दर्य को खोज कर सबसे अलग अपनी पहचान बनाई है।

अर्जुनलाल प्रजापति मूलतः परम्परागत मूर्तिकला घराने से सम्बद्ध रहे हैं, इन्होंने 1983 और 85 में पुरस्कार प्राप्त किया। प्रजापति की मिट्टी के मॉडल बनाने में विशेष दिलचस्पी है, जो अधिकतर काल्पनिक विषयों के होते हैं। बहुत सधा हुआ हाथ और काम में तेजी इनकी विशेषता है। इस क्षेत्र में महिला कलाकारों का उल्लेख करना भी वांछित होगा। श्रीमती उषारानी हूजा स्मारक रूप और विशाल आकार की प्रतिमाएँ बनाने में विशेष दक्ष एवं अपनी रचना क्षमता के लिये सुपरिचित हैं। जयपुर में पुलिस मैमोरियल, संतोकबा अस्पताल में माता एवं शिशु एवं जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में डॉक्टर को अपना रुग्ण बच्चा दिखाती माँ की विशाल प्रतिमाएँ इन्हीं की रचना हैं। इनकी अमूर्त रचनाओं में भी मूर्त आकार बोलते हैं। मंजु शर्मा एवं वीरबाला भावसार क्रमशः 1981 एवं 1982 में पुरस्कृत हुई। एक पेपर मेशी द्वारा रिलीफ में आलंकारिक रचनाएँ बनाती हैं तथा दूसरी ने केनवास पर मिट्टी से विभिन्न आकार रूपायित कर उन्हें ली रिलीफ में दक्षता से अभिकल्पित किया है। अंकित पटेल राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट में प्रवक्ता हैं। इन्होंने लकड़ी एवं पीतल, एल्यूमिनियम आदि धातुओं में छोटी-बड़ी रचनाएँ सृजित कर समसामयिक कला-जगत में खासा नाम अर्जित किया है।


यदि कहा जाय कि समसामयिक मूर्तिकला अब भी उपेक्षित है और इस पर चित्र और ग्राफिक हावी है, तो कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। युवा सर्जक मंच कलावृत्त ने इस ओर पहल की और अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिवर्ष मूर्तिकार शिविर आयोजित किये इनमे राजस्थान के युवा कलाकारों ने काम किया जिससे उनकी दृष्टि और सोच में अन्तर आया। यही कारण है कि केवल यथार्थ की दशा को छोड़ मूर्त-अमूर्त सृजनात्मकता शुरू हुई और यहाँ के युवा कलाकारों को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली। पत्थर को तो यहाँ के कलाकार बड़ी दक्षता दक्षता से सम्भाल सकते हैं, उसके लिये न किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता है, न दिशा-निर्देश की सृजन की दृष्टि चाहिए थी जो कलावृत्त के माध्यम से धीरे-धीरे पनपी और माध्यम भी बदलने लगे। भविष्य में युवा मूर्तिकारों से बहुत अपेक्षाएँ की जा सकती हैं।

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