भारत में रंगाई-छपाई कला का इतिहास अति प्राचीन है। ईसा पूर्व यहाँ के रंगे-छपे वस्त्रों का निर्यात विदेशों को होता था। ठप्पों से छापने की पद्धति का जन्म चीन में माना, जो मध्य एशिया से ईरान होती हई मुसलमानों के साथ भारत आई। 11वीं शती तक ईरानवासी रेशमी कपड़े छापते थे, परन्तु सूती नहीं। श्री छैल बिहारी एवं श्री बादशाह मियां, जयपुर के मतानुसार, 'दाब' का शाब्दिक अर्थ है दबाना या ढाँकना। वस्त्र छपाई के संदर्भ में दाब (दाबू) का मतलब ऐसे घोल या द्रव से है कि जिसे कपड़े पर रंगाई से पूर्व निश्चित स्थान पर ठप्पे की सहायता से छाप दिया जाता है।

ठप्पा संस्कृत शब्द स्वाप्यक से बना। बाण भट्ट ने इसके लिए रूप शब्द का प्रयोग किया। अजन्ता के चित्र जैन लघु चित्र, फोस्तात से प्राप्त छपे कपड़े से प्रमाणित है कि हंस का अलंकरण छपाई की भाँतों में लोकप्रिय था। 'पत्थर का ठप्पा 5वीं शती का आहड़ सभ्यता में मिला था। सिन्धु सभ्यता से प्राप्त कपड़े का टुकड़ा भी इसका प्रमाण है। आहड़ सभ्यता का पलेवा पत्थर का ब्लॉक टेराकोटा ब्लॉक तथा बन्धेज शिल्प के प्रमाण लाल-काली मृदभाण्ड, पोट्रीज आदि हैं। समिद्धेश्वर मन्दिर, शिलालेख से प्रमाणित है कि चित्तौड़ में छपाई शिल्प 11वीं शती में उन्नत थी। मन्दिर के कमरे में एक पट्टी पर जाजमों के अलंकरण खुदे हैं।

पश्चिमी चालुक्य शासक सोमेश्वर ने मानसोल्लास में सूती, रेशमी, क्षीम, ऊनी कपड़ों पर विविध रंगों से बनाये जाने वाले गोल, चौकोर, बूंदे, लहरदार अलंकरणों का वर्णन किया था। मध्य युग के शब्दकोष में 'उच्छोद' छपाई उद्योग, हिन्याय छीपा शब्द में ध्वनित है कि इस युग में यह उद्योग सुविकसित था तथा छीपों की श्रेणियाँ बड़े-बड़े समूह विकसित थे। भारतीय कारीगरों में कला संस्कृति को सुरुचि पूर्ण ढंग से अपना लेने की अद्भुत क्षमता थी। सिन्ध में फूलदार सूती कपड़े, हरे रंग की छींट बनती थी।

राजस्थान में बाड़मेर तथा छीपों का आकोला, चित्तौड़, जयपुर की पुरानी बस्ती, सांगानेर, कालाडेरा, बगरू, जाहोता, बस्सी व करौली आजादी से पहले लगभग 22 रियासतें कहलाती थीं सभी जगह अपने हिसाब से राजाशाही (राजशाही छपाई) का काम होता था तथा हुकमरानों तथा ठिकानेदारों के लिये काम करने के लिये उन्हीं के स्थानों पर काम होता था। सवाईमाधोपुर, टोंक, कोटा, बूँदी, कालादि स्थानों पर 'मेकिरयाना पद्धति' होती है। समुदाय व जाति के हिसाब से भाँतों की छपाई होती थी। दाब का प्रयोग मुख्य गहरे रंगे कपड़े सफेद दिखाने के लिये किया जाता है।

पूर्वी राजस्थान में 248, पश्चिमी राजस्थान में 120 और दक्षिणी राजस्थान में 41 अर्थात् कुल 409 प्रकार की भाँतों का प्रचलन था। ठप्पों के प्रकारों में रेख, चिराई, गद, डट्ठा, हाशिया, बूँटा, बूँटी, बेल, जाल आदि थे जो रंगों के आधार पर बनाये जाते थे जिन्हें एक भाँत में जितने रंग होते थे। एक भाँत के उतने ही ठप्पे बनते थे। जिन्हें बूँटा, दुग्गा, तिग्गी, चीग्गा, पंजा कहते थे।

 

राजस्थान में छपाई केन्द्र

अजमेर - यहाँ चादर, ब्राण्ड क्लॉथ की खपत थी, का जाल पूरे कपड़े पर या रेखा काली छपी रहती थी, आँचल में मेहराब रहता था।
जोधपुर - यहाँ रेजा, खादी के मोटे कपड़े पर पलंगों की छपाई होती थी। गहरे लाल, काली, नीली रंग की जमीन पर बड़े-बड़े बेलदार पट्टियाँ होती थीं। 
उदयपुर - यहाँ दुपट्टे, कमरबन्द, पगड़ियाँ छपती थी, सफेद, हल्की बादामी रंग जमीन पर गहरे लाल रंग की दो रंगतों में फूलदार बूँटे, कलंग छपते थे।
कोटा - यहाँ अलग ढंग की छपाई थी, सफेद कपड़ों में रेजिस्ट पेस्ट से भाँतें छापी जाती थी। नीली, लाल जमीन होती थी, सफेद फूल होते थे, रेख छापकर बाँध दिया जाता या छोड़ दिया जाता था।
बाडमेर-जैसलमेर - यहाँ गहरे लाल-काली जमीन पर मोटी भाँतें छापी जाती थीं। कुर्ते, लुंगी, पर्दे, चादर काफी प्रचलित थे।
मेवाड़ - यहाँ मौलानी छींपा करसाणो-रईसाणी छपाई करते थे।

प्रमुख वस्त्र - करसाणी छपाई आदिवासियों एवं काश्तकारों के प्रमुख वस्त्रों में अंगोछा, जामसाइ, नानणा, कहकी, रेनसाई, लूगड़ी, ओढ़नी, ज्वार भाँत, लहर भांत, चुन्दड़, केरी भाँत, फुटड़ी, तारा भाँत व अंगरखी।

दाब के लिए उपयोग में आने वाले कपड़े को तेल व खार की पद्धति से कलफ हटाकर काम में लिया जाता है। दाब प्रायः सूती, खादी, सिल्क, ऊनी, जूट तथा वर्तमान में शिफोन, जोरजट, टसर सिल्क, मलमल, मलबरी सिल्क, कई प्रकार के कपड़ों पर दाब पद्धति प्रचलन में है। दाब का कार्य राजस्थान में हिन्दू छीपा नामदेव खत्री करते थे। पुराने समय में हिन्दू छीपा दाब का काम करते थे तथा मुस्लिम नीलगर, नील में रंगाई करते थे। हिन्दू छीपा नील में हाथ नहीं देते थे, परन्तु आज ऐसा नहीं है। पहले लूगड़ी, मीणों की फड़द, जाटों के घाघरे तथा जाजम, मेण की छपाई, मलमल के दुपट्टे, कुर्ते आदि के लिये दाबू की छपाई होती थी। अलग-अलग स्थानों पर दाब की क्रिया अलग-अलग होती है। जिनकी निम्न विधियाँ प्रचलित हैं-

पुताई - इस विधि में दाब के घोल से सम्पूर्ण कपड़े पर पोत दिया जाता है। कपड़े के सूखने के पश्चात् कपड़े पर पुताई किये स्थान पर हल्की दरारें पड़ जाती हैं, जो रंगने पर उसी स्थान पर उत्कीर्ण हो जाती हैं। दाब किये हुए कपड़े पर दरारों वाले स्थान पर डिजाइन दिखाई देती है।

डबल दाब - इस विधि द्वारा कपड़े पर दाब लगाकर प्रथम बार हल्के रंग में रंगाई की जाती है तथा पुनः इसी कपड़े पर सूखने के बाद दुबारा अलग डिजाइन की दाब लगाई जाती है और सूखने पर फिर गहरे रंग में रंगाई की जाती हैं। इस विधि को डबल दाब की छपाई कहते हैं। वर्तमान में यह विधि अधिक लोकप्रिय हो रही हैं।
सिंगल दाब - इसमें सफेद कपड़े अथवा हल्के रंग में रंगे कपड़े पर दाब लगाकर फिर सीधे गहरे रंग की रंगाई कर ली जाती है। यह विधि भी वर्तमान में काफी प्रचलित है।
राता दाब डटाई - इस विधि में काले एवं लाल रंग की छपाई के बाद विभिन्न भाँतों में दाब लगाकर छपाई की जाती है।

दाब के विभिन्न प्रकार हैं जिनमें मेण की दाब, ग्वार की दाब व बिंदण की दाब प्रमुख हैं। दाब से छपाई के बाद कपड़े को नील में रंगाई करके अथवा गहरे रंग में रंगाई की जाती है तथा नील रंगाई के बाद हल्दी रंग एवं अनार के छिलके के मिश्रण से पुताई की जाती है। जिससे कपड़े की रंगत हरी हो जाती है, इसको हरी फड़द के नाम से बोला जाता है। दाब की मिट्टी साफ करने के लिए कपड़े की दो बार धुलाई की जाती है।

दाबू शिल्पी छीपों का इतिहास

प्राचीन काल से ही छीपा, दर्जी, टाँक, शेखावाटिया, मारू, मेवाड़ा, सुई दर्जी, दर्जी छीपा, रंगारा आदि थे, इन सब में पहले कामकाजी सम्बन्ध होते थे। वस्त्र सीने का काम करने वाले टाँक दर्जी, रंगने का काम करने वाले टाँक छींपा कहलाते थे। वस्त्र रंगने छापने का श्रीगणेश टाँक जाति में नामदेवजी ने किया था।

मोतीलाल ब्रह्मभट्ट के मतानुसार, जैसलमेरी नामदेव वंशी हिन्दू दर्जी छीपों की 172 गोत्र थीं। ढाढी मिरासी पोथी के अनुसार हाबल से हिन्दू काबुल से मुस्लिम छीपा थे। बड़वा पोथी जैसलमेरी छीपों को मुल्तान से आना बतलाती है। मौलानी छीपों का इतिहास 1990 ई. के पश्चात् लिखित रिकॉर्ड के रूप में छीपा समाज के पास था, पूर्व में पटेल, पंच, चोखला की मौखिक परम्पराएँ थीं। 1976 ई. में प्रथाओं-परम्पराओं को छीपा जाति समाज में आईन स्वरूप लिखित मान्यता दी। आईन मरकजी जो मेवाड राज्य के लिए था। 12 उपखण्डों के मुकामी आईन थे। मरकज का हेड ऑफिस भीलवाड़ा में था। 1994 ई. में छीपा मरकज को भंग किया गया था और 12 ब्लॉक स्वतन्त्र हो गये थे।

जुड़्योड़ा विसै