निज दुख देखे नाँह, पर दुख में पूरा दुखी।

मनुष इसा जग मांह, चहुं दिस थोड़ा, चकरिया॥

भावार्थ:- हे चकरिया, जो अपने दुख को नहीं देखते (अपने दुख की चिंता नहीं करते) तथा दूसरों के दुख से पूर्णरूपेण दुखी रहते हैं (एवं उसके निवारण में प्रयत्नशील रहते हैं); ऐसे (पर दुख-कतार) मनुष्य इस जगत् की चारों दिशाओं में बहुत (ही) थोड़े हैं।

स्रोत
  • पोथी : चकरिये की चहक ,
  • सिरजक : साह मोहनराज ,
  • संपादक : भगवतीलाल शर्मा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार
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