भज रे भज दीन दयाल हरी,

वज रे वाज राम संत सदा।

तज रे तज हो विषयानल कां,

सज रे सज सास उसास सदा।

गज रे गज अंद्रिन जारन कां,

धज रे धज राखगु नाथ सदा।

जज रे जज हो निर अन्तर व्है,

मझ रे मझ संभव द्वार सदा॥

ग्रभ ही बिच कोल करी विनती,

कर सो अब भूल गयो सब ही।

सब ही दिन वा विखया संग मे,

रह जानत ना प्रभु को कबही।

कब ही भज रे निज रूपह कां,

तुमको सब दुःख कटै जब ही।

जब ही सुख पाय रहोगी सदा,

तजहौ तुम या बपु को ग्रब ही॥

मन रे तुज को दुय रूप लखो,

सुन रे मुजको तुहि बैन कहूं।

सुभरे गुन कां गहवे कुच लो,

तब रे उझको अलि की गत हू।

बिखरे रस कां लख के लपटो,

ब्रसरे रत को भव ऐकि नहूं।

तज रे गन को गन अंबुज को।

मत रे मल कै गुटिया घर हू॥

बड घोर प्रलै भव सिंधु भर्यो,

जिनमें बिचर्यो बहु काल मगी।

चत आठ दसों लख जोजन लां,

फिरतै हुयगो तब बुद्धि भगी।

यह मोरव तोरय भोंर अगै,

रहगै पद पाँच रू सात अगी।

मन रे मलहा मजबूत रहो,

मत बोरहु नाव किनार लगी॥

स्रोत
  • पोथी : गुमान ग्रंथावली ,
  • सिरजक : ठाकुर गुमानसिंह ,
  • संपादक : देव कोठारी ,
  • प्रकाशक : साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर। ,
  • संस्करण : प्रथम