घनघोर घटा चहुंओर चढी, चित्तचोर बहार समीर चले।

महि मोर महीन झिंगोर करे, हरठोर वृक्षान् की डार हलै।

जदजोर पपीहे की लोर लगी, मनहोय विभोर के गात गले।

बनऔर किता खगढोर नचे, सुनि सोर के 'मोहन' जी बहले॥

हिलते लतिका दमके दतिका, दिल दादुर बोलन से दरपे।

धरधार धरे घनघोर घुरे, तद केहर खीज रह्यो तड़पे।

कलराय रहि पिक कानन में, सफरी सरसाय रही सरपे।

हरठोर सिखि कर सोर रहया अरुं 'मोहन' मस्त भयो घरपे॥

तरणी रही तेज चले सरिता, धरणी हरिता हरिता दरसे।

झरणी छटा सिखर पे झलके, करणी किरतार रही करसे।

तरणी निज ढांक दियो तनको, चरणी अटकी भटकी डर से।

परणी कर याद रही पिवने, बरणी नह जाय ऐसी बरसे॥

सरीता चली चाल बयाल सिंगाल, सभी जगजीव खुशी दरसे।

जलजात जलच्चर सोईसुखी तनु, सीप समुन्दर ना तरसे।

अचला धरि आंचल रंग हरीत, सुगीत गावे करसा हरसे।

अब बोवन धान किसान कितायक, 'मोहन' काज चले घर से॥

स्रोत
  • सिरजक : मोहन सिंह रतनू ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी