डारण भुज डंडांह, रजवट वट गोपाल रै।

खरवो नव खंडांह, कमधज तूं चावो कियो॥1॥

भारत धर भोपाल, सिंह ब्रिटिस हिरण हुवा।

गिड़ एकळ गोपाळ, कमधजियो भेवो करै॥2॥

गीदड़ कई गुलाम, मतलब माया में मगन।

नेक उबारण नाम, गिणां एक गोपाळ नै॥3॥

बीजा चित बोदाह, कळजुगिया दीठा किता।

जग मालम जोधाह, त्याग खाग भुज ताहरै॥4॥

जसनै धन जाणेह, धन जाणै कै धरम नै।

तूं मूंछां ताणेह, सोहे भड़ गोपालसी॥5॥

इण संपत नै आन, साध लेसी सूमड़ा।

थिर जस हिन्दुस्तान, गाढै राव गोपालसी॥6॥

अनमी अर्‌यां अजेव छत्रपत रिव किण सू छिपै।

दिपै सवाई देव, गढ़ खरवै गोपाळसी‌‌॥7॥

स्रोत
  • पोथी : राजस्थान का स्वतन्त्रता-संग्राम काव्य प्रतिनिधि रचनाएँ ,
  • सिरजक : हिंगलाजदान कविया ,
  • प्रकाशक : राजस्थान साहित्य अकादमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण