(राग सारंग)


सामवड़ा घनसामजी॥
चंदन की संग वासना, दूजा झाड़ थ्या महिमाए।
समवड़ मूल माहे वरत्यां, सरवस तोलत कांए॥
तेल तल्ली थी उपज्यो, नाम धरावत तेल।
संगत कारण तापस्युं, पलटी भ्यो फूलेल॥
कीट भ्रमर संगत थकी, पूरण अणावी पंख।
उठ बैठो कमल उपरे, लाड्यो लेल असंख्य॥
काग संगत करी हंस की, मोति सगियो चंच।
संगत का परसंग थकी, करम तजी भयो हंस॥
मूढ़ थी पंडत्य होय, वचीख्यण बांचे वेद।
ग्यानी संगथ मूरख करे, लहे अगोचर भेद॥
तेम अंमो तुमस्यूं मल्या, संगत कीधी साम।
आतोर भागी अन्त्यरा, फलिया मनोरथ काम॥
सोरत नोरत रंग लागिओ, साम सहेली मांय।
केहत राधा हरि सम हुआ, चरण कमल की चाय॥

स्रोत
  • पोथी : भारतीय साहित्य रा निरमाता संत मावजी ,
  • सिरजक : संत मावजी ,
  • संपादक : मथुराप्रसाद अग्रवाल, नवीनचन्द्र याज्ञिक ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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