ज्यूं सलितहुं समदी मिलहिं, त्यूं पंचतत परिवार।

सो संतति कछु है नहीं, रज्जब समझि विचार॥

ज्यूं रज्जब नर नांव मैं, दह दिसि बैठहिं आइ।

पार गये पंथूं पड़े, मोह बांध्या जाइ॥

बहु बिहंग बैठे बिरखि, पंथी बसै सराइ।

रज्जब मोह बंधही, नर देखौ निरताइ॥

बैरी मिलहिं सु बैर बिधि, रणि मिले रण भाइ।

रज्जब चूकै बैर रणि, पीछे रह्य जाइ॥

सीत कोट सपने की संपति, माया मोहनि बंद।

रज्जब रार्यूं देखतौं, कहा होइ जाचंध॥

स्रोत
  • पोथी : रज्जब बानी ,
  • सिरजक : रज्जब ,
  • संपादक : ब्रजलाल वर्मा ,
  • प्रकाशक : उपमा प्रकाशन, कानपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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