संपति बिपत्ति सु मदहरन, जामै यहु मत होइ।
रज्जब रिधि आये गये, जे रंग न पलटै कोइ॥
रज्जब संपति विपत्ति मैं, साहस एक समान।
आतम अकलि अतीत वह, पाया पद निरवान॥
मान रहत अरमान मैं, सुमन समंदर देखि।
संपति मिलि सो ना बंधै, घटै न बिपति बसेखि॥
संपति मैं सूधे द्रसैं, बिपत्ति मध्य बहु बंक।
रज्जब मन सु मयंक से, नहिं ईसर नहिं रंक॥
पूजा पुष्टि सु दीन व्है, बिन पूजा बलवंत।
रज्जब लीन्ही बाल बुधि, समझ्या साधू संत॥
संपति मैं सिमटी रहै, बिपति बिगासै जोइ।
साधु कली ज्यूं जाइकी, गुण नहिं व्यापै कोइ॥
आकिल अंघृप सक्ति सलिलहि, तौ तन कोमल कोर।
रज्जब रहता उभै रस, काया कष्ट कठोर॥
बहु पूजा मन लग भये, तुछ सेवा दीरघ।
रज्जब अज्जब देखिया, महत महोदधि मघ॥