काल किसी छोड़ै नहीं, सुर नर सब ब्रह्मंड।
जन रज्जब द्रष्टांत कौं, जथा अगनि बनखंड॥
काल न छोड़ै ज्ञान गुणि, बेद पढ़ै जे चारि।
जन रज्जब मंजार ज्यूं, पढ्या अपढ़ सुकुमारि॥
रज्जब रहै न राज बलि, छुटै रंक न होइ।
जम ज्वाला नर तर सु तृण, क्यूं करि बंचै कोइ॥
साहिब बिन साहिब किया, सो रज्जब सब जाइ।
काल सहित सब काल मुखि, जे देख्या निरताइ॥
रज्जब रहै न कोइ, सबकौ मरना है सही।
काल कंवल जग जोइ, भूष भेष मेल्है कही॥
रज्जब कोल्हू काल कै, सब तनि तिली समान।
सो उबरै कहै कौन बिधि, जो आये बिचि घान॥
निसि दिन जामन मरण मै, चंद सूर आकास।
जीव सहित सब सानि करि, काल करै इक ग्रास॥
जैसे ससि कै सकल दिसि, मंडल मडै अकास।
त्यूं रज्जब रहसी नहीं, प्यंड प्राण कै पास॥
ज्यूं आभे आतुर उठैं, बिलै होत नहिं बार।
त्यूं रज्जब तन काल बसि, छिन मैं होंसी छार॥
जैसे सावण कै समै, धनक उदै आकास।
रज्जब पलटै पलक मैं, त्यूं तन छिन मैं नास॥
दामिन दमकहि देखि लै, केतक बेर उजास।
त्यूं रज्जब संसार मैं, अस्थिर नाहीं बास॥
जैसे अहरणि उष्ण परि, बूंद बिलै होइ जाइ।
त्यूं रज्जब देही दसा, हरि भजि बार न लाइ॥
यहु तन जल का बुदबुदा, अलप अधूरी आव।
रज्जब रती न ठाहरै, तापर कहावै बाव॥
जन रज्जब संसार मैं, रहसी रंक न राव।
सब घट जाता देखिये, बोलौं कीसी आव॥
करिही करि क्या कीजिये, अति गति ओछी आव।
जन रज्जब जोख्यूं घणी, जरा बिपति जमराव॥
आभौं परि अस्थल नहीं, बिहंग न बैठा जाइ।
तौ रज्जब संसार मधि, आतम क्यूं ठहराइ॥
आदित अंतक देखतौं, वोले ज्यूं अभिलाख।
अठार भार आगिन मिलत, पान फूल फल राख॥
कहां इंद्रासन इंद्र कौं, कहां पहुम पुनि राज।
जे रज्जब जीजै नहीं, तौ जगत्र केहिं काज॥
रजधानी सब लोग की, आवै बिसवा बीस।
सो रज्जब झूठी सबै, जे जम आमिर सीस॥
लघु दीरघ आव सु अलप, जे सिर ऊपरि मीच।
रज्जब राम संभालिये, ढील न कीजै नीच॥
चंद सूर पाणी पवन, धरती अरु आकास।
ये रज्जब जोख्यूं भरे, खलक सहित षट नास॥
आवष्या तरोवर कटै, अहनिसि बहै कुहाड़।
जन रज्जब सो क्यूं रहै, जो आया बिच दाड़॥
आवष्या सरवर घटै, मानै मनिष न मीन।
जो रज्जब माता जगत, माया मोहमद पीन॥
कड़ी जड़ी तुलि जाल की, मीन मुदित जल माहिं।
त्यूं रज्जब जीत्या जुरा, जीवहि सूझै नाहिं॥
रज्जब काया कूप मैं, आव अधारे नीर।
रहत रैणि दिन घड़ि घड़ी, भरिये सलिल समीर॥
तन तरकस तैं जात है, सांस सरूपी तीर।
मांगे मिले न मोलि सों, अरये निघटे बीर॥
घड़ी घड़ी कर तीर है, पट प्राणी की आव।
रज्जब रेजा कछु रह्या, सो तूं भुजा चढ़ाव॥
रज्जब धवणि लोहार की, त्यूं सुर नासिक दोइ।
भजन बिमुख पावक पवन, देखौ दहेम सु होइ॥
जीवी ऊपरि जतनि बहु, टूटी टूटै सब।
कहना था सो यहु कह्या, मन बच क्रम रज्जब॥
जीवी ऊपरि जतन भौ, आवहिं अनत उपाव।
रज्जब राम सु काढ़ि ले, तब थाकै सब डाव॥
होती आव उपाव बहु, ओषद जतन अनेक।
सो सरकावै सांइया, तब तहि का मन येक॥
जीव जतन बहुतै करै, क्यूं ही मरिये नाहिं।
रज्जब रोकै बाहिले, मारणहारा माहिं॥
जुगति जतन सारे रहे, जब जम पकड़्या सीस।
रज्जब धन धणि यूं लिया, कहा करै तैंतीस॥
सकति सकति सो नीकसी, कहै और की और।
रज्जब काढ़्या धन धणिहु, उठी आतमा ठौर॥
छहै सहस इक बीस बीरियां, मारुत माग गहंत।
रज्जब अहनिसि उठि चलै, कहु कैसे सु रहंत॥
अहुठ कोड़ि इकई उभै, इते माग मग येक।
रज्जब जिव जल क्यूं रहै, काया कुंभ ये छेक॥
रज्जब रज मारुत लगी, बप सु बघूला हेर।
गात बात गत गांठि कौ, कहु छुटति क्या बेर॥
रज्जब रुकसे घाट सब, काल कष्ट तन भौन।
सांस सबद संकट पड़ै, तब सुमिरेगा कौन॥
रज्जब राम न सुमिरिये, मिलै सकल संजोग।
तब सुमिरौगे कौन बिधि, जब बपि बाइ बिजोग॥
बिषम व्याधि क्यूं टालिये, कठिन काल की चोट।
रज्जब केसरि काटसी, धाइ गही हरि ओट॥
काया माया मांड सब, सकल जीव को काल।
रज्जब काटै कौन बिधि, यहु अंतरि गति साल॥
च्यंता चिता कुकाल है, मनह मनोरथ मीच।
रज्जब जानै राम बिन, यहु जौं राम न नीच॥
काम कल्पना कोटि बिधि, नीच मार मन मौज।
जन रज्जब जिव क्यूं रहै, देखी दह दिस फौज॥
मन कुरंग कित जाइ चलि, चेतनि चीता काल।
रज्जब पटकै पलक मैं, काटै करि करि छाल॥
जैसे सुसा सिकार मैं, बचै न कानहु ओट।
त्यूं रज्जब पटकै पलक मैं, काटै करि करि छाल॥
जैसे सुसा सिकार मैं, बचै न कानहु ओट।
त्यूं रज्जब हम होइ करि, क्यूं टालै जम चोट॥