प्रणमवि जिणवर वीर, सीखामणि कहिसु।

समरवि गौतम धीर, जिणवाणी पभणेसु॥

लाख चुरासी माहि फिर तु, मानव भव लीधु कुलवतु।

इन्द्री आयु निरामय देह, बुधि बिना विफल सहु एह॥

एक मना गुरु वाणि सुणीजि, बुद्धि विवेक सही पामीजि।

पढउ पढावु आगम सार, सात तत्व सीखु सविचार॥

अेक मना जिनवर आराधु, स्वर्ग मुगति जिन हेला साधु।

जाख सेष जे बीजा देव, तिह तणी नवि कीजे सेव॥

गुरु निग्रंथ एक प्रणमीजि, कुगुरु तणी नवि सेवा कीजि।

धर्मवंत नी संगति करूं, पापी संगति तम्हे परिहरु॥

जीव दया अेक धर्म करीजि, तु निशिचे संसार तरीजि।

श्रावक धर्म करु जगिसार, नहिं भुल्युं तम्हें संयम भार॥

धर्म प्रपच रहित तम्हे करु, कुधर्म सवे दूरि परिहरु।

जीवत माइ बाप सु नेह, धर्म करावु रहित संदेह॥

मूया पूठि जै काई कीजि, ते सहूइ फोकि हारीजि।

दृढ़ समकित पालु जगिसार, मूढ़ पणु मूकु सविचार॥

रोग कळेस उप्पना जाणी, धर्म करावु शकति प्रमाणी।

मडल पूछ कहि नवि कीजि, करम तणा फळ नवि छूटीजि॥

आव्यइ मरण तम्हे दृढ़ होज्यो, दीक्ष्या अणसण बन्हि लेयो।

धर्म करी निफळ मनभागु, मारगि मुगति तणि तम्हे लागु॥

कुलि आव्यइ मथ्यात कीजइ, सका सवि टाळी घालीजी।

जे समकित पाळि नरनार, ते निश्चि तिरसी संसार॥

जीव राखु जीव राखु काय छह भेद।

असीय लक्ष चिहु अग्गली एक चित्त परमाण आणीइ।

चालत बिसत सूयता जीव जंतु सठाण जाणीय॥

जे नर मन कोमल करी, पाळि दया अपार।

सार सौख सवि भोगवी, ते तिरसि संसार॥

स्रोत
  • पोथी : सीखामणिरास ,
  • सिरजक : भट्टारक सकलकीर्त