मृगयनयणी पछिम रयणी सयन सोल सुमाणइ।

विपुल फळ जस सकळ सुरकुळ तित्थ जन्म वखाणइ॥

दीठो मद मातंग मणोहर, गौहरि हरि प्रीउदाम शसी।

भूसण जझय युग्म सरोवर सागर सिंघासन सुवसी॥

देव विमान असुर घर मणिकइ निरगत घूम क्रशानुचय।

पेखीय जागीय पूछीय तस फळ पति पासि संतोस भयो॥

पुष्पक पति अवतरीयो जिनपति।

इंद्र नरेंद्र कराव्या बहु नति॥

जात महोछव सुरवरि कीघो।

दान मान दंपतिनि दीधो॥

वाघिइ गरभ भार नाहि त्रिवळीकार करिइ सुख विहार शोक हरि।

वरसि रयण रंगि, घणह घनंद घनंद चगि छपन कुमारी संग सेव करि॥

पूरीय पूरा रे मास, पूरवि सयल आस, हवोउ जनम तास मासि भलो।

जाणी सयल इंद्र भावि विगद तद्र. आवीय सुमति मद्रणाण निलो॥

सुहम आपुणि हाथि थापीय मंदर माथिं अमरनि कर साथिणहन कीयो।

देइय सन्मति नाम सारी जनम काम, पामीय परम धाम माइन दीयो॥

नाचीय नाटक इंद, भरीय भोगनुकद नमिय मह जिणद इंद गया।

बाघिउ विबुध स्वामी धरि अवधि भामी, थयासुभगंगामीणाण मयरा॥

जुगि जोवन अगि धरिए रंगि त्रीस बरस विभुभयो।

अेक निमित्त देखीय धरम पेखी निगथ मारगि तेगयो॥

श्री वीरस्वामी मुगति गामी गर्भहरण ते किम हउयो।

ते कवयानंदन जगतिवंदन जनक नाम ते कुण भये॥

रयण वृष्टि छमास श्री दिस दनि तै कहिनि करी।

रिखमदत्त विसाल सुक्रि देवनंदा शोणित।

वपु पिंड पुहुवि तेणि वाद्यो वृद्धि याधि उन्नत॥

त्र्यासि दिवस रंभसि वीसरिया।

इन्द्र ज्ञान तिहा नवि संचरिया॥

जाणी भक्षुक कुलि अवतरीय।

गर्भ कल्याण किहा करीया॥

तिहा सयल सुरपति वीर जिनपति गर्भ कर्म ने जाणीय।

कुल कमल भूसण विगतदूसण नीच कुल ते आणीय॥

तस हरण खरखिं हरण कश्यप, पुहवि पटणि पाठव्यो।

ते सुणउ लोका विगत सोका कर्मफळ किम नाटव्यो॥

जे जिन नाथि नहीं निसेध्यो।

ते हर वा मधवा किम वेध्यो॥

भरती सावी सवीय राखी।

अे चिंता तेणि किम भाखी॥

गर्भ हर् यो ते केहु द्वार।

जनमि मार्ग तै सुणौउ प्रकार॥

जनम महोछव वळी तिहां जोईइ।

भर्मि गर्भ कल्याणक खोइई॥

विचारि विचारि वीजि वारि किम नीकलतेगर्भभलो।

उदारि उन्नत स्थूळत परिणत अवर कहु अेक कळितकलो॥

नर नरकावासी कम्महपासीका नवि काडि देवगणा।

शीता सुरपति लक्ष्मण नरपति नवि काड्या दृष्टातळ घणा॥

वळी नाळ त्रुटि आयु खुटि किमह जीविते वळी।

जे सुफळ आबू सरस लाबु अनेथि चहुंटि किम भली॥

उदर कमळि गरभ मलि नाळ मार्ग्र सहु लहि।

पाप पाकि नाळ या कि गर्भ पातकह सहुकहि॥

रोडि रोपी रोपड़नी अप्पि आपी वद्धइ।

अन्येथि थी अन्यन्त्र लेता गरभ कुण निषेधए॥

भ्रस्ट नस्ट द्रस्टात दाखी लोकनि थिर कारइ।

वर वीरवाणी विचार करता, तेहनि वली बारइ॥

रोप सम सहु माय जाणु गर्भ फळ सम सांभळो।

अनेथि थी अन्वेथि धरती कोण कहितो नीमळो॥

दोइ तात दूपण पाप लक्षण जिनहि संभारिइ।

अस्यु भाखि पाप दाखि शास्त्र ते किम तारइ॥

जिननाथ सवसि करण उपरि खील खोसि गोवाळीया।

असम साहस साम्य मु की जिनह छूब बगाळीया॥

वज्र रूप सरीर भेदी खीला खल किम खूच्चइ।

दोइ वीस परीसह अतिहि दुसह जिन्न कहो किम मुच्चइ॥

राज मू की मुगती शकी देव दुख्यते किम धरिइ।

इन्द्र आपि थिरू थापि गुरू होइ ते इम करइ॥

मूकइ समता घरइ ममता वस्त्र वीटि सहु सुणिइ।

हारि नामा अचेलभामा परिसह किम जिन भणइ॥

जे भाषि अथी निलिंलि, मारग मुगति तणि मनरंगि।

ते नवि जाइ सत्तम पुढवी, अल्प पापि अथी माहब्वी॥

माधवी पुढवी नहीं जावां यस्स पाप संचउ।

ते मुगति मार्ग किम माणइ अेह महिमा खंचउ॥

सइ वरि अजी करि ज्जानत्तक्षणनु दीक्षीउ।

वंदण नमसण तेह नेहिह्य काइ तह्यो लक्षीउ॥

स्त्री रूप पडिमा काइ मानु जो उपामि शिवपुर।

नाम अबला कर्म सबळा जीयवा किय आदरं॥

कवल केवळी करि आहार अणतु सुहते किहा घरे।

वेदणीय सत्ता आहार करता रोग सघळा संचरे॥

नरकादि पीड़ा मरत कीड़ा देखिनि किम भुंजइ।

णाण झाण विनाश वेदन क्षुधा की सहु सीझइ॥

सर सरस वळी आहार करता वेदना वहु वुझइ।

अेक घरि अनेक आहार घरि घरि भम्मता किम सुझइ॥

अेक घरि वर आहार जाणी जायता जीह लोळता।

आहार कारणि गेह गेहि हींडता अणाणता॥

समोसकरणि जा करइ भोजन तोहि मोटी मम्मता।

भूखि लागि अवरनीपरि आहार ले जिन गम्मता॥

अठार दूषण रहित वीरि केवलणाण सुपामीउ।

जन नयन मन तन सुघट हरण हर करण वर भरमामीउ॥

इंद्र भद्र खगेन्द्र शुभचन्द नाथ परपति ईश्वरो।

सयल संघ कल्याण कारक धर्म वैश यतीस्वरो॥

सिद्धारथ सुत सिद्धि वृद्धि वांछित वर दायक।

प्रियकारिणी वर पुत्र सप्तहस्तोन्नत कायकं॥

द्वासप्तति वर वर्ष आयु सिंहाक सुमंडित।

चामीकर वर वर्ण सरण गौतम यती पड़ित॥

गर्भ दोस दूसण रहित सुद्ध गर्भ कल्याण करण।

शुभचंद सूरि सोवित सदा पुहवि पाप पकह हरण॥

स्रोत
  • पोथी : भट्टारक शुभचन्द्र ,
  • सिरजक : भट्टारक शुभचन्द्र ,
  • प्रकाशक : दिगम्बर जैन मंदिर, पाटीदी, जयपुर
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