वीर जिणंदना प्रणमी पाय, संभरी सरसती भगवती माय।
गुरु प्रणमी करइं सिलोको, इक मनी करी सुणज्यो लोको॥
चरम जिनेश्वर श्री वर्धमान, गणधर अेकादस गुणखाण।
पाट परम्परा तेहनी कहीइं, भणतां गणतां शिवसुख लहीइं॥
पाचमुं गणधर सोहम साम, जंबु स्वामी प्रभव गुणधाम।
सीज्जभव जसभद्रा नामी, संभुती भद्रबाहु स्वामी॥
स्थूलभद्र पातरना त्यागी, महागिरी सुहस्ती वडुभागी।
बहुलनी जोड़ी स्वाती स्वामी, कानिक सूरि स्कंदील स्वामी॥
आर्य समुद्र श्री मंगु धर्म, भद्रगुप्त नेइं स्वामी वज़र।
सीहगुरु घनगुरुना शिष, वजर स्वामीजी धुरी जगीस॥
वयरसेन श्रीचंद सुनंदा, संमत भद्रजी स्वामी मुनीदा।
सीतपट दीगपट पाय, वन महीं करइ तप रिसीराय॥
मल्लवादी वृद्धवादी ज्ञानी, सिद्धसेन नय न्याय प्रमाणी।
वादी देव ने हेम सूरीद, परवर्शी परगट्या मुनीद॥
इम अनेक मुनिपति मोटा, पाट परंपरइ कर्म इ छोटा।
जगिइचंद्र रुसी तप सूरा, विजयचंद्र गुरु पावन पुरा॥
खीमा कीरतजी हेमजी स्वामी, यसोभद्र रत्नाकर नामी।
रत्न प्रभु रुसीवर मुनि शेखर, धर्म देव अने ज्ञानी सूरीस्वर॥
इण काळइ सौराष्ट्र धरामइं, नागनेरा तटिनी तट गामइ।
हरीचंद श्रेष्ठी तीहा वसइ, मउंघी बाइ घरणी शील लसइ॥
पुनम गच्छंइ गुरु सेवन थी, शैयदना आशीष वचन थी।
पुत्र सगुण थयो लखु हरखी, शत चउदे सत सीतर वर्षी॥
ज्ञानसमुद्र गुरुसेवा करतां, भणी गणी लहीउं वन्यो तव त्यां।
द्रम्म कमाणी श्रुतणी भक्ति, वघइ रगं इ धर्मनी शक्ति॥
आगम लखइ मनमां शंकइ, आगम साखी दान न दीसइ।
प्रतिमा पूजा न पड़िक्कमणुं सामायिकं पोसइ पीण पडि कमणुं॥
श्रेणिक कुणिक राय प्रदेशी, तु गीया श्रावक तत्व गवेषी।
किणइ पडिक्कमणुं नवी कीधुं, किणइ परने दान न दीधुं॥
सामायिक पूजा छइ ढोल, जती चलाइ इण विध पोल।
प्रतिमा पूजा वडु संताप, तो अम्हि करीइ धर्म नी थाप॥
अविधि लुपइ लुंपक नाम, लखुको नामइ लउको नाम।
नहीं सयंत पीण यतीथी अधिकु, लोकोंइ मत परखीउं लडकुं॥
सवतु पन्नर सत अड वरपि सिद्ध पुरीइ शिवपद हरखी।
खोली थापीउ जिनमत शुद्ध, लुंकउ गच्छ हुओ परसिद्ध॥
पातसाही महमुद सयाण, मानीइ लुंकामत परमाण।
सुबा सेवक सउको मानइ, लखु गुरु चरणि शीश नामइ॥
हिव सोरठइ लीबड़ी गाम, कामदार अछे लखमशी नाम।
लुंका गुरुनो ग्रही उपदेस, धर्म पसारओ देस विदेस॥
इण मत विजयि मड़द वाद, न्यायाधीश करइ पक्षपात।
शत पन्नर तेत्रीश सालइ, छप्पन वरसिं सुरघर महालइ॥
शत पन्नर तेत्रीशनी सालइ, भाणजीने ते दीक्खा आलइ।
भाणती-रीखी सतमत फेलावइ, जीवदयानुं तत्व बतावइ॥
वर्धमाननी पेठी अेकी, विचरइ देस विदेसी छेकी।
पाट परम्परा चालइ शुद्धि, पाटे भद्ररुषि सुबुद्धि॥
लवण, रुषि भीमाजी स्वामी, जगमाला रुषि सरवा स्वामी।
बीजो नीकळ्यो कुमति पापी, तेणइ वली जिनप्रतिमा थापी॥
रूपजी जीवाजी कुंवरजी, वीरहइ श्रीमलजी रुषीवरजी।
प्रणमी पूज्य तणइ वरपाया, गावइ ’केशव’ नीत गुरुराया॥