तप प्रायश्चित व्रत करि शोध, मन वचन काया निरोधि।

तु क्रोध माया मद छाड़ि, आपणपु सयलइ माडि॥

गया जिणवर जगि चउवीस, नहिं रहि आवार चकीस।

गया वलिभद्र, वर वीर, नव नारायण गया धीर॥

गया भरतेस देइ दान, जिन शासन थापिय मान।

गयो बाहुबलि जगमाल, जिणे हइ राख्यु साल॥

गया रामचन्द्र रणि रगि, जिण साचु जस अभग।

गयो कुंभकरण जगिसार, जिणें लियो तु महाव्रत भार॥

जे जातरा करि जग माहि, सभारै ते मन माहि।

गिरनारी गयु तु धीर, सभारिह बड़ावीर॥

पात्रा गिरि पुन्य भंडार, सभारैहवड़ा सार।

तारण तीरथ होइ, सभारह बड़ा जोइ॥

हवेइ पांचमो व्रत प्रतिपालि, तू परिग्रह दूरिय टाळि।

हो धन कंचन मांह मोल्हि, सतोवीइं माह समेल्हि॥

हवई चहुंगति फेरो टाळि, मन जाति चहु दिसि बार।

हो नरगि दुःखन विसार, तेह केता कहू अविचार॥

जे भणई सुणइ नर नारि, ने जाइ भवनेइ पारि।

श्री सकलकीर्ति कह्यु विचार, आराधना प्रतिबोधसार॥

स्रोत
  • पोथी : सीखामणिरास ,
  • सिरजक : भट्टारक सकलकीर्ति