माणस रै किणी अंग मैं हुवै पीड़ भावैं

भेळो हुवै सगळो दरद परो एक जगां

छोटी-सूं-छोटी चिटली रै बीं कीं लाग्यां

सा पीड़ मिनख रै मस्तक ने तड़पावे।

दुनियां रो कोई देस, देस रो हिस्सो हो

मिनखापत जठै'र जणा-जणा बेजार हुवै

मन रोण ढुकै कवि रो, जद अत्याचार हुवै

माणस ऊपर, फेर चाये भूख रो किस्सो हो

यातनां हुवै, या मौत हुवै निरदोसां री

महामारी हुवै, भलाई जुद्धां रो विनास

माणस जद देवै माणस ने कोई तरास

कवि हिड़दो पकड़े बा सौ-सौ कोसां री

कवि जग रो मस्तक है, जग मैं जद पड़े भीड़

सहस्यूं पै'लां वीरं मन मैं उठे पीड़।

स्रोत
  • पोथी : सौ सानेट ,
  • सिरजक : मोहन आलोक ,
  • प्रकाशक : ग्राम मंच प्रकाशन
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