समै, समै तौ मांगै है किणी किसम री

कला भलाईं हुवै, जलम बीं रौ चिन्तण री

भाव भोम पर हुवै सदा ई, फकत जिसम री

भूख मिटावण नै पड़ता-आथड़तां किण री

अनै कृणसी कला निखर'र जग री थाती

बणी आज तांई, माणस री सूमद सगती

जणा निचुड़ती रैवै फकत रोटी नै, गाती

परसेवा रा गीत, बिचारां नै रह ठगती

जणा पेट री खुधा संस्क्रति अनै कला री

बिकसाणौ तौ दूर, बात किण नै सूझै

आठ पौ’र चिन्तणा रैवै जद भूख बला री

दर-दर भुंवतौ मिनख-मजदूरी बुझै।

यूं लाग्या रैया पेट रा जेकर सांसा

सदा मिनख नै, मरसी कला, संस्कृति, भासा।

स्रोत
  • पोथी : अंवेर ,
  • सिरजक : मोहन अलोक ,
  • संपादक : पारस अरोड़ा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर ,
  • संस्करण : पहला संस्करण
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