आ, थारांळी सभ्य-संस्कृति किण नै पोखै

है, जिण रा गुण गाता थारी जीभ नीं थकै

जिण रै सबद-सबद नै थारौ हिरदौ गोखै

लिख-लिख पोथा जिण पर थारा आंक नीं अकै।

संस्कारां रा जाळ गूंथ,र भोलै-ढालै

चिड़ी कबूतर जेहड़ै लोगां नै निज फंदै

मांय फसावण छोड, बताओ किण रा टाळै

है आ, बिखा या भिजोक, माणस नै रंदै

है तौ बस राछां उपर धार धरम री

लगा लगा'र, रीत-रिवाजां में उलझावै

इसौ मिनख नै, अरथ सरोधै मार मरम री

मारै इसी के माणस आखी उमर कमावै

जिकौ, लगा देवै ईं रै दुर-संस्कारां में

अनैं रैवै डूब्यौ निरधनता री धारा में।

स्रोत
  • पोथी : अंवेर ,
  • सिरजक : मोहन अलोक ,
  • संपादक : पारस अरोड़ा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर ,
  • संस्करण : पहला संस्करण
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