मुख पखाळेवा गयु प्रीउड़उ, आवतु हुसिइ कंत रूअड़उ।
वाट जोइ नारी रही तिहां, म-हजयमूंकीनइ लळ गयु किहां ?॥
सुंदर दीठउ रूपिइ करी, कोई किंनरी गई हुसिइ अपहरी।
कंत नावइ, घणी वेळा थई, नावइ तु कस्यू कारण भई ?॥
मूंहनइ सही ए मेहली गयु, आपणपूं निस्चिंत ज थयु।
मूंकी जावूं तु-हजयनइ नवि घटइ, आपणपूं हईइ आवटई॥
कमललोचन ते माहरु वाहळउ, भलु कीधु नळजीइ टाळउ।
कोइ जईनइ कंतनइ वाळु, किम हींडसिइ मोरु जीवनपाळु ?॥


दवदंती तिहां विलाप करइ,
’नळ बिना किम रहीइ रे माइ?।
सगुण सुवेधी सुंदर कंता, ए दुख,
कहिनइ कहीइ रे माइ ?॥’
’प्रीऊ प्रीऊ’ करती नारी हींडइ,
दिसि विदिसिइ ते जोती रे।
दुख धरीनइ नीसासु मेहलइ,
अबळा नारी रोती रे॥
’रहीअ न सकूं तुम विण नलजी।
क्रीअ न सकूं तोह रे।
माहरइ मनि छइ तूंह जि कंता।
तूं विण अवर न कोई रे॥
सिउ अवगुण तु-हजय हईड़इ वसीउ?
जे मेल्ही निराधार रे।
सिइ ऊवेखी माहरा कंता।
निसधपुत्र ! सुविचार रे॥
चंदसूरिज वनदेवता सांभळु !
नलजी वन किहीं दीठु रे ?।
ते कंतानइ मेलवु म-हजयनइ,
मूह स्यूं कंत ज रूठउ रे॥
सुणि तूं जीवनस्वामी !
माहरा, मन ताहरूं किम वहिउं रे ?।
गुण नवि वीसरइ कंता !
ताहरा, मइ तु कांइ न कहिउं रे ?॥
स्या माटिइ वाहला !
तूंअ रीसाणु ? हूं ते नारी तोरी रे।

तइ छेहु भलु म-हजयनइ आपिउ,
घणी कीधी तइ जूरी रे॥
सी परि करीसि ? किहां हूं जाईसि ?
’नल नल’ कही ते रड़इ रे।
कूटइ हईडूं, डील आछेटइ,
पगि पगि ते नारि आखड़इ रे॥
’कइ मइ कोइ मुनिवर संतापिउ ?
कइ ऊगती वेलि कापी रे ?
कइ मइ कहिना भंडार ज लूस्या ?
कइ लीधी वस्तु नापी रे ?॥
कइ मइ कूडूं आल ज दीधूं ?
कइ मइ छेद्या वृक्ष रे।
कइ मइ कूड़कपट ज केळविउ ?
कइ संतापिया दृक्ष रे ?॥

देवगुरुनी मइ निंदा कीधी ?
कहिसिउं कीधु द्रोह रे ?।
खेदिउ मर्म पीआरा बोल्या ?
जे मइ पामिउ विच्छोह रे॥


ढाळ


तुझ ऊपरि मोरी आसड़ी, किम जासिइ मझ रातड़ी।
कहि आगलि करूं रावड़ी, चरणकमल की दासड़ी॥
चंचल चपल तोरी आंखड़ी, जैसी कमला दळची पांखड़ी।
तोरी भमहि अछइ अणीआलड़ी, एहवइ नल जीइ हूं छंडी॥
वाहळड न मिळइ ता आखड़ी, किसीअ न खाउं सूखड़ी।
ते विरहइ नहीं भूखड़ी, रंग गयु अेहनु ऊखड़ी॥
जोउं छउं कंता ! वातड़ी, सार करु न अह्मरड़ी।
कां मेल्ही निराधारड़ी ? किहां लागइ छइ वारड़ी ?॥
जिम मेहनी वाट जोइ मोरड़ी, कंता ! ताहरी छउं गोरड़ी।
मेल्हणवेळा नहीं तोरडी, अवर पुरुसस्यूं कोरड़ी॥
सी आवी तुम रीसड़ी ? नारी कणकनी दीवड़ी।
किम अेकलां नावइ नींदड़ी, पूरव भवनी प्रीतड़ी॥
कांकिमपणउं धरिउं जिम गेड़ी, -सजयळवळती मेहली जिम दड़ी।
संघातिइं हूं सीद तेड़ी ? ताहरी न मेल्हउं हूं केड़ी॥
तुमसिउं कंता ! नहीं कूड़ी, नारी सविहुमांहि हूं भूंडी।
जाणज्यो कंता ! नहीं कूड़ी, कोइ ल्यावइ नलनी सुद्धि रूड़ि ?॥
प्रकृति थई कंता ! अति करड़ी, स्या माटिइ तूं गयु मरड़ी ?
इम नवि जाईइ वाल्हा ! वरड़ी, बाधी छइ प्रेम गठड़ी॥
नल सरीखी न मिलइ जोड़ी, बाळापणनी प्रीति त्रोड़ी।
कपट करीनइ कां मोड़ी ? आ रानमांहि हूं कां छोड़ी॥
किम तिजी माया अेवड़ी ? मझ हससिइ तेवड़तेवड़ी।
कंटकि वींटी जेवड़ी, भमरु न मेल्हइ केवड़ी॥
विरह थईअ गहेलड़ी, जोउं छउं पगला रहिअ खड़ी।
विरहइ कारणि तुझ रीस चडी ? नलनइ वियोगिइ अतिहि रडी॥
कंतस्यूं न कीधी वातड़ी, एणी एणी वृक्ष छांहड़ी।
भीमराजानी बेटड़ी दवदंती बोलइ भाखड़ी॥
’भली मेहली हूं गुडउ गुडी, सुख संभरइ ते घड़ी घड़ी।
घणु नेह तइ देखाड़ी सिइ मेहली ध्रसुडी ?’॥


ढाळ


’नल नल’ कहिति नीसरी, नवि पेखइ कहइ ठामि रे।
’सिइ ऊवेखी तूंअ गयु ?बलिहारी तुझ नामि रे॥
कहींइ मिलसिइ वालिभ ? तेह विण क्षण नवि जाइ रे।
तइ न धरी माया माहरी’, एहवूं कहइ तेणइ ठाइ रे॥
नारी सोधइ दसो दिसि, सुद्ध नथी जीवन्न रे।
रानवगडमां मेल्ही गयु, किम राखूं हूं मन्न रे ?॥
नान्हपणानु नेहड़उ, कांइ वीसारिउ नाह रे ?
कठिन कठोरमांहि मूळगू, ताहरु प्रीछीउ माह रे॥
ए तु कायर लक्षण, साहसीकनूं नहीं काम रे।
अधविचि नारीनइ मेल्हीइ, बळतूं न लीइ नाम रे॥
नलजी ! माहरा नाहला ! अेक ताहरु आधार रे।
माया सघळी वीसारी, कां मेहली निरधार रे ?॥
कुटंब हुइ पुहुचतूं, कंत बिना सही फोक रे।
कुणइ कांई नवि हुइ, अवसरि सहू ए लोक रे’॥
वस्त्रइ अक्षर देखीआ, वांचिवा लागी तेह रे।
’तूं हवइ पीहरि जाइजे, सुख हुइ तूंहनइ देहि रे’॥
इम मेहली कंता ! नवि जईइ, ताहरु नुहइ आचार रे।
मूंहनइ वाल्हा ! दोहिलूं, तूं तु छइ सुविचार॥
संभाळ करु माहरी, मननु छइ विश्राम रे।
मंत्र तणी परि ते जपइ, मुखिथूं नवि मेल्हइ रे॥

दूहा


दवदंती ते दुख धरी, चाली पीहरि तेह।
नल अक्षर मंत्रनी परिइ राखइ अहनिसि जेह॥

वाटिइ वनगज फणगर, सीहतणा बोंकार।
रौद्र अटवी बीहामणी, धूकतणा धूतकार॥

सूअर घरकइ जिहां घणउं, बरकइ चीत्रा अति।
अस्टापद तिहां जीवड़ा, बीहवानी नहीं मति॥

संबर सरभ नइ कासर, वरू सूअर सीआळ।
दावानळ तिहां प्रज्वळइ, यक्ष राक्षस खेत्रपाळ॥

गंधर्व विद्याधर खेचर, साकिनी डाकिनो जेह।
योगिनी दीसइ ठामि ठामिइ, तेहनु न लाभई छेह॥

घोर बीभच्छ भयंकरी, सुणीइ महा हुंकार।
वनचरनु कोलाहल घणु, सूर्यकिरण न लगार॥

ते न पराभवइ तेहनइ, नवि लोपइ ते आण।
पंच पदनूं ध्यान करइ, जोउ सील मंडाण॥

’नल नल’ कहिति ते चालइ, राखिउ हईआ बारि।
सील सन्नाह पहिरि करि, जाइ दवदंती नारि॥

बोर बाउलीआ गोखरू, चरणि वींधाइ तेह।
पीउ चित्तिइ न वीसरइ, अधिक वधारइ नेह॥                              

स्रोत
  • पोथी : रास और रासान्वयी काव्य ,
  • सिरजक : महीराज ,
  • संपादक : डॉ. दशरथ ओझा,डॉ. दशरथ शर्मा ,
  • प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
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