चढ़ि चलन राज आवाज कीन। नीसान नद्द बज्जे बजीन॥

चिहु ओर भरनि छुट्टै तुरंग। सति सिलह भाँति नाना अभंग॥

धम धमकि धरनि धाने सुभंग। गज्जिय अकास कै गहर गंग॥

भय हूह हाक आंतक जोर। सह सुरन फेरि भेरीन घोर॥

उडि रेन सेन मुंदिग अकास। परि रोर सोर जँह तँह मवास॥

धरि रोस मुच्छ मुररंत भीम। रस बीर व्रक संक्रोध हीम॥

चंपी सु सीम अरियन सजाम। डेरा सुदीन नृप सरित ताम॥

जुररा सिकार तीतर बटेर। खेलंत सरित तट भइ अबेर॥

इहि समय ताम परतापसीह। लहु वंधु साथ आरसी अबीह॥

हुते सकल बाहुर ते बेर। नय मझ्झ आइ खेलत अबेर॥

गजराज नाम साहन सिंगार। सरितान मझ्झ वह पियै वार॥

सुनि सोर दान छूट्टे छँछार। जनुभूत भांति भय भीत भार॥

जमुना कि जग्गि काली करार। सिर धूंनि महावत दियो डार॥

गज एक वारि पीवंत दूरि। तिन पर सु तुट्टि जमुँ सिंघ चूरि॥

धरि पंख पब्ब जनु धप्पि धाय। भुज पर्यो नम्भ बद्दर सुभाय॥

दिखि दुरद उनहि आवत आन। धुनि करि सुडारि उन पीलवान॥

धायौ ति समुह साहन सिंगारु। जनु वंध जंम उप्पर अपार॥

कलपंत पाइ जनु पवन आइ। हल हले पब्ब जित तिति बिठाइ॥

जम रूप दूअ जनु जंम द्वार। द्वय भ्रात बीच घेरे असार॥

इक ओर वारि द्रह गहर गूल। इक जोर जोर बर उंच कूल॥

परताप संनंमुख पर्यो जाइ। डारंत अश्व असि कियौ घाई॥

बहि सीस परन दो हथ करार। खरबूज जांनि बिफर्यौ विफार॥

जगन्नाथ हंडि जनु वंटि दोइ। इह भंति कुंभ कुंभी होई॥

गज पर्यौ धरनि साहन सिंगार। किन्नो अकाम परताप पार॥

अरसीह पुठ्ठ जग धस्यौ देख। सन मुख्य क्रम्यो सम सीह भेख॥

गज गही दौरि सिर पग्ध सुंड। दिय गुरज चीर द्वय हथ्थि मुंड॥

फट्यौति सीस भइ पंच फारि। गज ढर्यौ जानि गिरवर विसार॥

सुनि बत्त राज भोरा सु भीम। पायौ अनंत दुख आप हीम॥

कह वाव कियौ नृप अप्प साम। तुम सोन हमहि चाकरह काम॥

स्रोत
  • पोथी : पृथ्वीराज रासो ,
  • सिरजक : चंद बरदाई ,
  • संपादक : श्रीकृष्ण शर्मा ,
  • प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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