थारो विड़द संभालियेजी, नहीं होइये न्यारा।

वेर वेर संतन भई , प्रगट्यो बहु वारा।

मंजारी सुत राखिया, अगनि बहु धारा।

जन प्रहलाद उबारिया, हिरणाकुश मारा।

में मति हीणां बापजी, मन का अनंत पसारा।

मैं जाणूं मने हरि मिले, यों लोटत छारा।

अरणि मेरे कछु नहिं, शरणागत थारा।

अलियुग धर्म अपार है, राषो सिरजन हारा।

कहै आत्म क्यूं बरणिये, तव गुण वेचारा।

आदि अंत अरु मध्य में, तारे पतित अपारा॥

स्रोत
  • पोथी : श्री महाराज हरिदासजी की वाणी सटिप्पणी ,
  • सिरजक : स्वामी आत्माराम ,
  • संपादक : मंगलदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा,दादू महाविद्यालय मोती डूंगरी रोड़, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम