सतगुरु कहिये पद अविनाशी,जाके दरस कर्म संन्यासी।

तीर्थ के तीर्थ प्रति दाता, नव नाथ पर है हरिनाथा।

घट घट राम सकल भरपूरा, भ्रमत फिरत बताते दूरा।

मात पित सुत बंधु दारा, स्वार्थ हेत कहै म्हारा।

परमार्थ नहिं अपणां, सतगुरु में हरि चौरासी तजणां।

आत्माराम राम रस पीवै, फिर फिर मरता मृतक जीवै॥

स्रोत
  • पोथी : श्री महाराज हरिदासजी की वाणी सटिप्पणी ,
  • सिरजक : स्वामी आत्माराम ,
  • संपादक : मंगलदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा,दादू महाविद्यालय मोती डूंगरी रोड़, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम