जीभ ही सब सुख दुख री जड़ है।

अणीनै वश राखै सोई बड़ है॥

जड़ चेतन रो नाम करै या, चौ आंगळ चामड़ है।

दो बत्तीसां मांय दबाई, तो पण जावै कड़ है॥

विष अमृत रो वास अणीमें, ईमें ही चढ़ पड़ है।

ईशूं मलै हेत कर कर’नै ईंशूं जावै लड़ है॥

ज्ञान कर्म नै जळ अगनी, या चारां री चोपड़ है।

ईंशूं फरै नरोगी देही, ईशूं जावै पड़ है॥

या संतोष करै कोरी में, या चावै चोपड़ है।

याही केवै सांच पादरी, याही झूंठी घड़ है॥

आखो ही आधीन अणीरै, गुण तीनां रो गढ़ है।

या संजीवन बूंटी है या, सड़य्यो नकामो खड़ है॥

कबाण रा वचन बाण शूं, भमै नहीं सो भड़ है।

कान्यां कामधेनु है याही, बुरी ढोर बांगड़ है॥

स्रोत
  • पोथी : चतुर चिंतामणि ,
  • सिरजक : चतुर सिंह ,
  • संपादक : मोतीलाल मेनारिया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : तृतीय