मन मानसरोवर न्हान रे।

जल के जंत रहैं जल मांहीं, आठौं बखत बिहान रे॥

लग चौरासी जल के वासी, भरमें चार्यौं खानि रे।

चेतन होय कर जड़ कू़ॖं पूंजैं, गांठी बांधि पखान रे।

मरकब कहा चंदन के लेंपैं,क्या गंग न्हवाये श्वान रे।

सूधी होय पूंछ तास की, छाडत नाहीं बानि ये।

द्वादश कोटी जहां जम किकंर, बड़े बड़े दैंत हिवान रे।

धर्मराय की दरहग मांहीं, हो रही खैंचा तान रे।

लख चौरासी कठन तिरासी, बचन हमारा मानि रे।

जैसे लोह तार जंती में, ऐसे खैंचै प्रान ये।

जूंनी संकट मेट देत हैं, शब्द हमारा मानि रे।

हरदम जाप जपौ हरि हीरा, चलना आंब दीवान रे।

सुगम रसातल लोक कुसातल, रचे जिमी असमान रे।

चौदह तबक किये छिन मांहीं, सिरजे शशि अरु भान रे।

निर्गुण नूर जहूर जुहारो, निरखि परखि प्रवानि रे।

गरीबदास निज नाम निरंतर, सतगुरु दिन्हा दान रे॥

स्रोत
  • पोथी : श्री सतगुरु ग्रंथ साहिब ,
  • सिरजक : गरीबदास ,
  • संपादक : आशीष कुमार पाण्डेय ,
  • प्रकाशक : लोकनाथ प्रकाशन , वाराणसी, उत्तर प्रदेश ,
  • संस्करण : प्रथम