ज्यों राज गए राजेन्दर झूरै, खोज गअे नै खोजी।

लाछ मुई गिरहायत झूरै, अर्थ बिहूंणा लोगी।

मौर झड़े कृपाण भी झूरै, विंद गअे नै जोगी।

जोगी जंगम जपिया तपिया, जपी तपी तक पीरूं।

जिहि तुल भूला पाहण तोलै, तिहिं तुल तोल हीरूं।

जोगी सो वो जुग जुग जोगी, अब भी जोगी सोई।

थे कान विरावो विरघट पहरो, आयसां यह पाखंड तो जोग होई।

जटा बधारो जीव संघारो, आयसां यह पाखंड तो जोग कोई॥

जिस प्रकार राज्य के चले जाने राजा और खोजक (खोजी) पदचिन्हों के लुप्त हो जाने पर विलाप करता है। घर गृहलक्ष्मी (पत्नी) के मर जाने से विलाप करता है और धन-हीन लोग जैसे धन के लिये विलाप करते है वैसे ही योगी वीर्य के निपात होने पर विलाप करता है।

हे योगी! जंगम, जप करने वाले, तप करने वाले (पंचाग्नि में तपने वाले) तकिये में रहने वाले और मुसलमानो के धर्मगुरु पीर, जिस तुला से पत्थर तोले जाते हैं। भ्रम में पड़ कर तुम उसी तुला से हीरे तोलो अर्थात् जो साधन ज्ञान अथवा मोक्षप्राप्ति का हेतु नहीं है अज्ञानवश उसे करो।

जो योगी है वह तो युग-युगान्तरों में भी योगी ही रहेगा और वह वर्तमान काल मे भी योगी है।

हे योगी! तुम कानों को चिरवा कर मुद्रा एवं गले में गुंजा पहनते हो यह पाखंड तो है पर योग नहीं है। तुम लम्बी-लम्बी जटा बढ़ाते हो और जीवहिंसा करते हो, ऐसा करना तो पाखंड है, यह तो कोई योग नहीं है।

स्रोत
  • पोथी : जांभोजी री वाणी ,
  • सिरजक : जांभोजी ,
  • संपादक : सूर्य शंकर पारीक ,
  • प्रकाशक : विकास प्रकाशन, बीकानेर ,
  • संस्करण : प्रथम
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