जै कलि नाम कबीर होते,

तौ लोक बेद अरू कलिजुग मिलि करि। भगति रसातलि देते॥टेक॥

आगम निगम कहत पांडे, फल भागौत लगायौ।

रजस तामस सातिग कथि-कथि, यूँ यहु जगत भुलाया॥

बकता सुरता इन्यूँ भूले, दुनिया सबै भुलाई।

कल्पवृच्छ की छाया बैठे, तौ क्यूँ कल्पना जाई॥

सर्गुण कथि कथि मिष्ट खवाया, काया रोग बढ़ाया।

निर्गुण नींव पिया नहिं गुरगामि, यूँ अटकी जीव विकाया॥

अंध लकुटिया अंध गही है, परत कूप कत थोरै।

अबरण बरण दुइै रस अंजन, आँखि सबनि की फौरे॥

हमसे पतित कहा कहि रहते, कौण प्रतीति मन धरते।

नाना बाणी देखि सुणि श्रवननि, बहु माराग अनसरते॥

करि हरि भगति भगति कण लीना, त्रिविध रहित थिति मोहे।

पाखण्ड रूप भेष सब कंकर, ग्यान सूपक सोहे॥

तिरगुण रहित भक्ति भगवंतहि, बिराला कोई पावै।

दया होई जौ कृपा नाथ की, तौ नाम कबीरा गाई॥

भगति प्रताप राखिऐ कमनि, निज जन आप पढ़ाया।

नाम कबिरा साच प्रकास्या, तहाँ पीपै कछु पाया॥

स्रोत
  • पोथी : राजर्षि संत पीपाजी ,
  • सिरजक : संत पीपाजी ,
  • संपादक : ललित शर्मा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम